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श्रीराम का भ्रातृ-स्नेह

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श्रीराम का भ्रातृ-स्नेह

राजा जनक के आमंत्रण पर मुनि विश्वामित्र श्रीराम एवं लक्ष्मण को साथ लेकर जनकपुर में ऋषियों के निवास – स्थान पर ठहरे हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि जब भी कोई किसी नए स्थान पर पहुंचता है , तो वह उस जगह को घूम कर देखना चाहता है। यह मानव-सुलभ व्यवहार है। लक्ष्मण भी इससे अछूते नहीं हैं। लक्ष्मण की इच्छा जनकपुर देखने की है , लेकिन वे कुछ कहते नहीं। तो भी , प्रभु श्रीराम अपने अनुज के मन की बात भांप लेते हैं। लक्ष्मण आयु में श्रीराम के समकक्ष हैं तथापि श्रीराम सदैव अपने भाई लक्ष्मण का विशेष ध्यान रखते हैं।

प्रभु श्रीराम को यूं ही मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं कहा जाता है। उनकी हर एक कृति अन्य लोगों के लिए प्रेरकता का कार्य करती है ।  श्रीराम का छोटा-से-छोटा कार्य भी तुलसीदास जी की पैनी दृष्टि से ओझल नहीं है।

तो आइए ! अब भक्त तुलसीदास के शब्दों में इस घटना का अवलोकन करें।

तुलसीदास जी लिखते हैं -लखन  हृदयं   लालसा  बिसेषी। जाइ  जनकपुर आइअ  देखी।।प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं  मनहिं मुसुकाहीं।।

लक्ष्मण जी के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें , परंतु प्रभु श्रीराम का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं। इसलिए प्रकट में कुछ नहीं कहते , मन-ही-मन मुस्करा रहे हैं। बिसेषी शब्द लक्ष्मण की उत्कट इच्छा को प्रकट करता है , जो लक्ष्मण जी के हृदय में न रुककर नेत्र , मुख आदि द्वारा चेहरे पर झलक गई।

मन निराकार है। उसकी गति बाह्य अंगों के हाव-भाव से ही जानी जाती है। कहा गया है -” नेत्रवक्त्रविकाराभ्यां ज्ञायतेऽन्तर्गतं मन: ” अर्थात् मन का भाव नेत्र और मुख के विकारों द्वारा जाना जाता है।

राम अनुज मन की गति जानी । भगत बछलता हियं हुलसानी ।।

अंतर्यामी श्रीराम ने अनुज लक्ष्मण के मन की दशा जान ली , तब उनके हृदय में भक्त-वत्सलता उमड़ पड़ी। जहां लक्ष्मण को जनकपुर के दर्शन की लालसा जगी , वहीं अपने भक्त लक्ष्मण की इच्छा को पूरी करने के लिए प्रभु श्री राम में लक्ष्मण को नगर-भ्रमण कराने की लालसा उठी।

गुरु की आज्ञा पाकर श्रीराम बहुत ही विनय के साथ सकुचाते हुए मुस्कुरा कर बोले-नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं।। जौं  राउर   आयसु  मैं  पावौं। नगर  दिखाइ  तुरत लै आवौं।।

हे नाथ ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं , किंतु प्रभु (आप) के डर से और संकोच के कारण स्पष्ट नहीं कहते । यदि आपकी आज्ञा हो , तो मैं इनको नगर दिखला कर तुरंत ही (वापस) ले आऊं।

सुनि मुनीसु कह  बचन सप्रीती। कस  न  राम तुम्ह राखहु नीति।।

यह सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्र जी ने प्रेम सहित वचन कहे – हे राम ! तुम नीति की रक्षा कैसे न करोगे ? (नीति तो यही कहती है कि बड़ा भाई सर्वदा अपने छोटे भाई के सुख-सुविधा का ख्याल रखे।)

जाइ देखि आवहु नगरु  सुख निधान दोउ भाइ। करहु सुफल सब के नयन   सुंदर बदन  देखाइ।। सुख के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ।

अपने सुंदर रूप दिखला कर सभी (नगर- निवासियों) के नेत्रों को सफल करो।

इसके पश्चात् गुरु की आज्ञा पाकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के साथ जनकपुर भ्रमण के लिए निकल पड़े। श्री राम लक्ष्मण के अभिभावक की भूमिका में भी हैं।  ऐसा भ्रातृ-प्रेम हर घर में देखने को मिले – प्रभु से ऐसी प्रार्थना है।

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जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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