वाल्मीकि रामायण -भाग 60
अब तक श्रीराम ने भी युद्ध का रोष त्याग दिया था और वे शान्त भाव से खड़े थे। उन्होंने मातलि को विदा किया और फिर प्रसन्नता से उन्होंने सुग्रीव को गले लगाया और सबके साथ वे वानर-सेना की छावनी में लौटे।
तब उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “अब तुम लंका में जाकर विभीषण का राज्याभिषेक करो।”
लक्ष्मण के आदेश पर तुरंत ही वानर एक सोने के घड़े में समुद्र का जल ले आए। उस जल के द्वारा लक्ष्मण ने वेदोक्त विधि से विभीषण का राज्याभिषेक किया। फिर श्रीराम ने हनुमान जी से कहा, “हनुमान! अब तुम महाराज विभीषण की आज्ञा लेकर लंका में प्रवेश करो व सीता से मिलकर उनका कुशल-क्षेम जानो। उन्हें यह प्रिय समाचार सुनाना कि युद्ध में रावण मारा गया।
तब हनुमान जी लंका में गए और विभीषण से आज्ञा लेकर अशोकवाटिका में पहुँचे। सीता जी को प्रणाम करके उन्होंने कहा, “विदेहनन्दिनी! श्रीराम सकुशल हैं व उन्होंने आपका कुशल समाचार पूछा है। श्रीराम ने युद्ध में रावण को मार डाला है। अतः अब आप चिन्ता छोड़कर प्रसन्न हो जाइये। श्रीराम ने आपके लिए सन्देश भिजवाया है कि ‘अब तुम इसे रावण का घर समझकर भयभीत न होना। लंका का राज्य अब विभीषण को दे दिया गया है। अब तुम अपने ही घर में हो, ऐसा समझकर निश्चिन्त रहो।’”
यह सुनकर सीता जी को अपार हर्ष हुआ। उन्होंने कहा, “इस प्रिय समाचार के लिए मैं तुम्हें पुरस्कार देना चाहती हूँ, किन्तु सोना, चाँदी, रत्न अथवा तीनों लोकों का राज्य भी इस शुभ समाचार की बराबरी नहीं कर सकता।”
इस पर हनुमान जी बोले, “देवी! श्रीराम की विजय से ही मेरे सब प्रयोजन सिद्ध हो गए हैं। मुझे कुछ नहीं चाहिए। अब आप श्रीराम के लिए कोई सन्देश मुझे दीजिए।”
तब सीता जी बोलीं, “मैं उनका दर्शन करना चाहती हूँ।”
यह सुनकर हनुमान जी ने उन्हें प्रणाम किया और लौटकर श्रीराम से बोले, “प्रभु! सीता देवी ने नेत्रों में आँसू भरकर मुझसे कहा है कि ‘मैं श्रीराम का दर्शन करना चाहती हूँ।’”
यह सुनकर श्रीराम की आँखें डबडबा गईं। लम्बी साँस खींचकर उन्होंने आँखें बंद कर लीं और भूमि की ओर देखते हुए उन्होंने विभीषण से कहा, “तुम सीता को सिर से स्नान करवाकर, दिव्य वस्त्र एवं आभूषणों से विभूषित करके शीघ्र मेरे पास ले आओ।”
यह सुनकर विभीषण तुरंत अपने अन्तःपुर में गया और अपनी स्त्रियों को सीता के पास भेजकर उसने अपने आगमन की सूचना दी। फिर सीता को प्रणाम करके उसने श्रीराम का संदेश सुनाया। इस पर सीता जी ने कहा, “मैं बिना स्नान किए अभी तुरंत ही श्रीराम का दर्शन करना चाहती हूँ।”
लेकिन विभीषण के समझाने पर उन्होंने श्रीराम की इच्छा के अनुसार स्नान किया तथा सुन्दर श्रृंगार करके बहुमूल्य वस्त्र एवं आभूषण पहने। तब एक पालकी में बिठाकर उन्हें श्रीराम के पास लाया गया। सीता के आगमन की सूचना मिलने पर श्रीराम का मन भर आया।
सीता के आगमन का मार्ग बनाने के लिए राक्षस सिपाही हाथों में छड़ी लेकर वानरों को हटाने लगे। इससे बड़ा कोलाहल मच गया। तब श्रीराम ने क्रोधित होकर विभीषण से कहा, “तुम क्यों इन सबको कष्ट देकर मेरा अनादर कर रहे हो? ये सब वानर भी मेरे आत्मीय जन हैं। अतः जानकी पालकी को छोड़कर पैदल ही मेरे पास आएँ और ये सब वानर भी उनका दर्शन करें।”
तब पालकी से उतरकर लज्जा से सकुचाती हुई सीता जी धीरे-धीरे चलती हुई श्रीराम के सामने पहुँचीं। अपनी लज्जा के होते हुए भी उन्होंने जी भरकर अपने पति को निहारा और अपने मन की पीड़ा दूर की।
तब श्रीराम ने सीता जी से कहा, “भद्रे! युद्ध-भूमि में शत्रु को परास्त करके मैंने तुम्हें छुड़ा लिया। मुझ पर जो कलंक लगा था, आज मैंने उसे धो लिया। अब मैं अपनी प्रतिज्ञा के भार से मुक्त हो गया। तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि मैंने यह युद्ध तुम्हें पाने के लिए नहीं किया।
अपवाद (बदनामी) का निवारण करने व अपने सुविख्यात वंश पर लगे कलंक को मिटाने के लिए ही मैंने यह सब किया है। यह तुम्हारे चरित्र पर संदेह का अवसर है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो। जैसे आँखों के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती है, उसी प्रकार तुम भी आज मुझे अत्यंत अप्रिय लग रही हो।”
“ऐसा कौन सामर्थ्यवान पुरुष होगा, जो दूसरे के घर में रह चुकी स्त्री को मन से स्वीकार कर लेगा? रावण तुम्हें उठाकर ले गया था और तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है। तुम जैसी सुन्दर स्त्री को अपने घर में देखकर वह बहुत समय तक तुमसे दूर नहीं रह सका होगा। ऐसी दशा में मैं तुम्हें कैसे स्वीकार कर सकता हूँ?”
“अब मेरा तुमसे कोई संबंध नहीं है। अतः तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, तुम वहाँ जाने को स्वतंत्र हो। तुम चाहो तो भरत या लक्ष्मण के साथ रह सकती हो, अथवा शत्रुघ्न, सुग्रीव या विभीषण के पास भी रह सकती हो। जहाँ तुम्हें सुख मिले, तुम वहीं अपना मन लगाओ।”
इतने दुःखों, कष्टों और चिरकाल की प्रतीक्षा के बाद मिले अपने पति के मुख से ऐसी कड़वी बातें सुनकर सीताजी का मन आहत हो गया। उन्होंने कठोर शब्दों में श्रीराम से कहा, “जिस प्रकार कोई निम्नकोटि का पुरुष न कहने योग्य ओछी बातें भी किसी स्त्री से कह डालता है, उस प्रकार आप मुझसे ऐसी अनुचित बातें क्यों कर रहे हैं? मेरे शील-स्वभाव को भूलकर आप किसी ओछे मनुष्य की भाँति मुझ पर आरोप लगा रहे हैं। मैंने रावण को स्वेच्छा से नहीं छुआ था।
मेरी विवशता के कारण उसने मेरा अपहरण कर लिया था। हम दोनों इतने वर्षों तक साथ रहे, फिर भी यदि आपने मुझे नहीं समझा है, तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है। लक्ष्मण! तुम मेरे लिए चिता तैयार कर दो। मैं इस मिथ्या कलंक के साथ नहीं जी सकती।
सीता जी का यह अपमान देखकर लक्ष्मण को बहुत क्रोध आया किन्तु श्रीराम ने संकेत में उन्हें कुछ समझाया और तब लक्ष्मण ने सीता के लिए के लिए चिता तैयार कर दी। श्रीराम वहीं सिर झुकाए खड़े थे। उनकी परिक्रमा करके सीताजी प्रज्वलित अग्नि के पास गईं और हाथ जोड़कर उन्होंने अग्निदेव से कहा, “मेरा चरित्र शुद्ध है, फिर भी श्रीराम मुझ पर संदेह कर रहे हैं। यदि मैं निष्कलंक हूँ तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें।”
ऐसा कहकर उन्होंने अग्नि की परिक्रमा की और वे उस जलती आग में कूद पड़ीं। यह देखकर सब लोग हाहाकार करने लगे। श्रीराम की आँखों में भी आँसू आ गए। उसी समय अनेक देवताओं के साथ स्वयं ब्रह्माजी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने श्रीराम को समझाया, “आप तो स्वयं नारायण हैं और सीता साक्षात लक्ष्मी हैं। रावण का वध करने के लिए ही आपने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था। इन सब बातों को भूलकर आप सीता पर संदेह कैसे कर रहे हैं?”
तभी वृद्ध अग्निदेव स्वयं सीता को लेकर चिता से बाहर निकले और उन्होंने कहा, “श्रीराम! आपकी धर्मपत्नी सीता ने मन, वचन, बुद्धि से सदा केवल आपका ही विचार किया है। रावण की कैद में अनेक कष्ट सहकर भी यह केवल आपकी आशा में जीवित रही। इसका चरित्र सर्वथा शुद्ध है। अतः मैं आपको आज्ञा देता हूँ कि आप इसे सादर स्वीकार करें तथा कभी भी इससे कोई कठोर बात न कहें।”
यह सुनकर श्रीराम के आँसू छलक आए। वे अग्निदेव से बोले, “भगवन्! सीता के प्रति मेरे मन में तनिक भी संदेह नहीं था। जिस प्रकार सूर्य से उसकी प्रभा अलग नहीं हो सकती, उसी प्रकार मुझसे भी सीता कभी अलग नहीं हो सकती। मेरा और उसका हृदय एक ही है। परन्तु अन्य लोग यह सब नहीं समझ सकते। यदि मैं सीता को देखते ही प्रसन्न होकर उसे अपना लेता, तो यही लोग कहते कि दशरथ का पुत्र राम बड़ा मूर्ख और कामी है। लोगों को सीता की पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिए ही मुझे ऐसा करना पड़ा।”
यह कहकर श्रीराम बड़े प्रेम से सीता जी से मिले।
फिर महादेव ने उन्हें बताया कि “आपके पिता दशरथ भी इन्द्रलोक से यहाँ आए हुए हैं।” तब श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने दशरथ जी को भी प्रणाम किया। वे अत्यंत प्रसन्न हुए और सबको आशीर्वाद देकर लौट गए।
फिर देवराज इन्द्र के पूछने पर श्रीराम ने उस युद्ध में हताहत हुए सब वानरों को पुनः जीवित एवं स्वस्थ कर देने का वरदान माँगा। इसके बाद सब देवता अपने लोक को लौट गए।
अगले दिन श्रीराम विभीषण से बोले, “मित्र! यहाँ का मेरा कार्य अब पूर्ण हो गया है। अतः यहाँ ठहरना मेरे लिए अब उचित नहीं है। मेरा मन भरत से मिलने को व्याकुल है। तुम उसका कुछ उपाय करो क्योंकि अयोध्या तक पैदल पहुँचने में तो बहुत समय लगेगा।”
यह सुनकर विभीषण ने तुरंत ही पुष्पक विमान बुलवाया। उसे देखकर श्रीराम व लक्ष्मण को बड़ा विस्मय हुआ। फिर श्रीराम ने विभीषण से विदा लेते हुए कहा, “मित्र! इन सब वानरों ने युद्ध में बड़ा परिश्रम किया है। अतः तुम रत्न और धन आदि देकर इन सबका भी सत्कार करना।”
फिर उन्होंने सुग्रीव को भी किष्किन्धा लौट जाने की आज्ञा दी। तब विभीषण ने कहा, “श्रीराम! हम सब भी आपके राज्याभिषेक के लिए अयोध्या चलना चाहते हैं।”
श्रीराम ने सहर्ष इसकी अनुमति दे दी। तब उन सबको लेकर वह विमान आकाश में उड़ चला। आकाश-मार्ग से जाते समय श्रीराम ने सीता जी से कहा, “विदेहनन्दिनी! त्रिकूट पर्वत के शिखर पर विश्वकर्मा की बनाई हुई इस सुन्दर लंकापुरी को देखो। उस युद्धभूमि को देखो, जहाँ रक्त और मांस का कीचड़ जमा हुआ है। वह देखो, उधर रावण राख का ढेर बनकर सोया हुआ है। तुम्हारे लिए ही मैंने इसका वध कर डाला। वह समुद्र के ऊपर नल वानर का बनाया हुआ सेतु दिख रहा है। वह कठिन सेतु भी मैंने तुम्हारे लिए ही बनवाया था।”
इस प्रकार सब स्थानों को देखते हुए वे लोग आगे बढ़ते रहे। मार्ग में सीता के कहने पर उन्होंने किष्किन्धा में रुककर सुग्रीव की पत्नियों और अन्य वानर स्त्रियों को भी साथ ले लिया। फिर आगे बढ़ते हुए वे लोग प्रयाग में संगम तट पर भरद्वाज मुनि के आश्रम में आ पहुँचे। श्रीराम ने उनसे अयोध्या का और भरत का कुशल-क्षेम पूछा।
नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
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सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा
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