वाल्मीकि रामायण -भाग 59
ऐसा कहकर उसने तलवार हाथ में उठा ली और पत्नी व मन्त्रियों से घिरा हुआ रावण उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ सीता जी को रखा गया था। सीता जी को देखते ही वह उनका वध करने के लिए दौड़ पड़ा। उसके सुहृद राक्षस उसे रोकने के लिए भागे।
यह देखकर सीता जी के मन में अनेक विचार आने लगे कि ‘यह दुर्बुद्धि राक्षस जिस प्रकार कुपित होकर मेरी दौड़ रहा है, उससे लगता है कि यह अवश्य ही आज मुझे मार डालेगा। मैं अपने पति से प्रेम करती हूँ, फिर भी इसने कई बार मुझ पर दबाव डाला कि ‘तुम मेरी भार्या बन जाओ’, किन्तु मैंने सदा ही इसे ठुकराया। संभवतः उससे निराश होकर ही अब यह मुझे मार डालने आया है।’
‘कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे ही कारण इसने युद्धभूमि में आज श्रीराम व लक्ष्मण को मार डाला हो? यदि मेरे कारण उनके जीवन का नाश हुआ है, तो मेरे जीवन को धिक्कार है। मैंने हनुमान की बात नहीं मानी। मैं उसी समय उसकी पीठ पर बैठकर अपने पति के पास चली गई होती, तो आज इस प्रकार शोक न करना पड़ता। अब पुत्र शोक का समाचार सुनकर मेरी सास पर क्या बीतेगी? उस कुबड़ी मन्थरा को धिक्कार है, जिसके कारण कौसल्या माता को अपने पुत्र की मृत्यु का शोक सहना पड़ेगा।’
यह सोचकर सीता जी दुःख से विलाप करने लगीं।
उसी समय रावण के मन्त्री सुपार्श्व ने आगे बढ़कर उसे रोका। वह रावण से बोला, “राक्षसराज! तुम कुबेर के भाई होकर भी क्रोध के कारण धर्म को तिलांजलि देकर सीता के वध की इच्छा कैसे कर रहे हो? विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेदविद्या का अध्ययन करके तुम गुरुकुल से स्नातक बनकर निकले थे। तबसे तुम सदा अपने कर्तव्य का पालन करते हो, फिर तुम आज अपने हाथ से एक स्त्री का वध करना कैसे उचित समझ रहे हो? तुम युद्ध में चलकर अपना क्रोध राम पर उतारो।”
“आज कृष्णपक्ष की चतुर्दशी है। अतः आज युद्ध की तैयारी करके तुम कल अमावस्या के दिन तुम सेना के साथ विजय के लिए प्रस्थान करो। अपने श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ होकर खड्ग हाथ में लेकर युद्ध करो। राम का वध करके तुम सीता को अवश्य पा लोगे।”
अपने मित्र सुपार्श्व की बाण मानकर रावण रुक गया और अपने महल में वापस लौट गया। फिर अपने सुहृदों के साथ उसने राजसभा में प्रवेश किया।
राजसभा में आकर रावण अपने सिंहासन पर बैठ गया। वह पुत्रशोक में अत्यंत दुःखी एवं दीन दिखाई दे रहा था। अपनी सेना के प्रमुख योद्धाओं से कहा, “वीरों! तुम लोग समस्त हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदल सैनिकों को साथ लेकर युद्धभूमि में जाओ और राम को चारों ओर से घेरकर मार डालो।”
रावण की आज्ञा सुनते ही वे निशाचर अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर लंका से निकले और वानर सेना पर टूट पड़े। उनके आक्रमण से जब वानरों का पक्ष दुर्बल होने लगा, तो उन्होंने सहायता के लिए श्रीराम को पुकारा। तब बलशाली, पराक्रमी, महातेजस्वी श्रीराम ने धनुष लेकर राक्षसों पर बाण-वर्षा आरम्भ कर दी और कुछ ही समय में श्रीराम ने हजारों रथियों, हाथियों, घोड़ों, सवारों और पैदल सैनिकों का संहार कर डाला। बचे-खुचे राक्षस घबराकर लंका में भाग गए। उस युद्ध में जिनके पति, पुत्र और भाई-बन्धु मारे गए थे, वे सब राक्षसियाँ अब दुःख से भीषण विलाप करने लगी और शूर्पणखा को तथा रावण को कोसने लगीं।
लंका के घर-घर से उठते उस चीत्कार को रावण ने भी सुना। वह लंबी साँस खींचकर चिंता में डूब गया। अपने पास खड़े राक्षसों से उसने लड़खड़ाते स्वर में कहा, “निशाचरों! महोदर, महापार्श्व तथा विरुपाक्ष को तुरंत ही सेना के साथ कूच करने का आदेश दो।”
यह आज्ञा मिलते ही उन सब राक्षसों ने उठकर रावण को प्रणाम किया। उन्हें देखकर रावण ने कहा, “आज अपने बाणों से मैं राम और लक्ष्मण को यमलोक पहुँचा दूँगा। मेरा रथ तैयार करवाओ और सब मेरे पीछे चलो।”
रावण की यह आज्ञा मिलते ही लंका के सब राक्षस अपने अस्त्र लेकर वहाँ आ पहुँचे। तुरंत ही रावण ने अपने भयंकर रथ पर आरूढ़ होकर युद्ध के लिए प्रस्थान किया। महापार्श्व, महोदर तथा विरुपाक्ष भी अपने रथों पर आरूढ़ होकर रावण के पीछे-पीछे चले।
रावण जब युद्ध के लिए निकला, तो उसकी मृत्यु का संकेत देने वाले अनेक अपशकुन दिखाई पड़े। आकाश से उल्कापात हुआ। अमंगलसूचक पक्षी अपनी अशुभ बोली बोलने लगे। सूर्य की चमक फीकी पड़ गई। सब दिशाओं में अन्धकार छा गया और धरती डोलने लगी। बादलों से रक्त की वर्षा होने लगी और घोड़े लड़खड़ाकर गिर पड़े। रावण की बाँयीं आँख फड़कने लगी, बाँयीं भुजा काँप उठी, चेहरे का रंग उड़ गया और उसकी आवाज भी कुछ बदल गई। रावण ने इन सब अपशकुनों की कोई चिंता नहीं की और वह वानरों के संहार के लिए युद्धभूमि में आ पहुँचा।
युद्धभूमि में पहुँचकर रावण अपने बाणों से भारी मार-काट करने लगा। वानर उसके बाणों को सह न सके। सब वानर चीखते-चिल्लाते हुए इधर-उधर भागे। बड़े वेग से वानरों का भीषण संहार करके अब वह राक्षस श्रीराम से जूझने के लिए उनके सामने आ पहुँचा।
उधर सुग्रीव ने देखा कि वानर-सैनिक घबराकर युद्ध से भाग रहे हैं, तो एक को वृक्ष उठाकर वह राक्षसों से लड़ने के लिए आगे बढ़ा। युद्धभूमि में भारी गर्जना करके सुग्रीव ने अपने पराक्रम से राक्षसों का भीषण संहार आरंभ कर दिया। यह देखकर विरुपाक्ष सुग्रीव से लड़ने लगा। उन दोनों के बीच बहुत देर तक युद्ध चला। अंत में सुग्रीव ने एक के बाद मुक्कों की मार से उसका मुँह तोड़ डाला और उसके प्राण ले लिए। रावण ने अब महोदर को युद्ध के लिए आगे भेजा। महोदर व उसके सैनिक वानरों का संहार करने लगे। तब सुग्रीव ने महोदर पर आक्रमण कर दिया और उसके भी प्राण ले लिए।
यह देखकर क्रोधित महापार्श्व आगे आया और उसने अंगद की सैन्य टुकड़ी पर आक्रमण कर दिया। तब सुग्रीव, अंगद, जाम्बवान, गवाक्ष आदि ने उसकी सेना को घेर लिया। बहुत देर तक चले युद्ध के बाद सुग्रीव ने महापार्श्व की छाती में एक बलशाली मुक्का मारा, जिससे उसका हृदय फट गया और उसके प्राण निकल गए। अब रावण ने क्रोधित होकर अपने सारथी को अपना रथ आगे बढ़ाने की आज्ञा दी और तामस नामक भयंकर अस्त्र से वह वानरों को मारने लगा।
यह देखकर स्वयं श्रीराम और लक्ष्मण युद्ध के लिए आगे बढ़े। लक्ष्मण ने अपने पैने बाणों से रावण पर आक्रमण कर दिया। रावण ने उन सबको हवा में ही काट डाला। फिर वह श्रीराम पर बाणवृष्टि करने लगा। श्रीराम ने अपने तीखे भल्लों से रावण के सब बाण काट डाले। इस प्रकार उन दोनों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। वे दोनों ही अस्त्रवेत्ता थे एवं युद्ध-कला में निपुण थे। अतः उन दोनों में ऐसा अद्भुत युद्ध होने लगा, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया था। रौद्रास्त्र, आसुरास्त्र, आग्नेयास्त्र, गान्धर्वास्त्र, सूर्यास्त्र चलाया आदि के प्रयोग से दोनों एक-दूसरे को घायल करने लगे।
इसी बीच लक्ष्मण ने अपने बाणों की मार से रावण की ध्वजा के टुकड़े कर डाले। उस ध्वजा पर मनुष्य की खोपड़ी का चिह्न बना हुआ था। उन्होंने रावण के सारथी को भी मार डाला तथा उसके धनुष को भी काट डाला। तभी विभीषण भी उछलकर आगे बढ़ा और उसने रावण के घोड़ों को मार डाला।
इससे क्रोधित होकर रावण ने वज्र के समान प्रज्वलित शक्ति विभीषण पर चला दी। लक्ष्मण ने तीन बाण मारकर उसे बीच में ही काट दिया। तब रावण ने विभीषण पर एक और शक्ति चलाई, किन्तु लक्ष्मण ने उसे भी रोक दिया। अब क्रोधित होकर रावण ने लक्ष्मण पर ही अपनी शक्ति उन्हीं पर चला दी।
वज्र और अशनि के समान गड़गड़ाहट करने वाली वह शक्ति इतने वेग से मारी गई थी कि लक्ष्मण को संभलने का अवसर ही नहीं मिला। वह शक्ति उनके सीने पर लगी और भीतर तक धँस गई। उससे विदीर्ण होकर लक्ष्मण भूमि पर गिर पड़े। लक्ष्मण को भूमि पर रक्त से लथपथ पड़ा देखकर श्रीराम व्यथित हो गए। लेकिन यह विषाद का समय नहीं था, अतः वे रावण के वध का निश्चय करके उससे युद्ध करने लगे।
बहुत प्रयास करके भी वानरगण उस शक्ति को लक्ष्मण के शरीर से निकाल नहीं पाए। तब श्रीराम ने अपने दोनों हाथों से पकड़कर उसे लक्ष्मण के शरीर से निकाला और कुपित होकर उसे तोड़ डाला। उस समय रावण उन पर अनवरत बाण-वर्षा करता रहा।
तब श्रीराम ने सुग्रीव और हनुमान जी से कहा, “कपिवरों! तुम लोग चारों ओर से लक्ष्मण को घेरकर खड़े रहो। जिस पराक्रम की मुझे चिरकाल से अभिलाषा थी, अब उसका समय आ गया है। जिसके कारण मैं यह विशाल वानर-सेना लाया हूँ, जिसके कारण मैंने वाली का वध करके सुग्रीव को सिंहासन पर बिठाया, जिसके कारण समुद्र पर सेतु बनाया, वह रावण आज युद्ध में मेरे सामने उपस्थित है। अब यह जीवित नहीं बच सकता।”
“मेरे राज्य के नाश, वन के निवास, दण्डकारण्य के कष्ट, सीता के अपहरण तथा राक्षसों से संग्राम के कारण मुझे घनघोर दुःख सहना पड़ा है। रणभूमि में आज रावण का वध करके मैं सारे दुःखों से छुटकारा पा लूँगा। आज संग्राम में देवता, गन्धर्व, सिद्ध, ऋषि और चारणों सहित तीनों लोकों के प्राणी राम का रामत्व देखें। आज मैं ऐसा पराक्रम प्रकट करूँगा, जिसकी चर्चा जब तक यह पृथ्वी कायम रहेगी तब तक चराचर जगत के जीव और देवता सदा करते रहेंगे और एक-दूसरे को बताएँगे कि यह भीषण युद्ध किस प्रकार हुआ था।”
ऐसा कहकर श्रीराम अपने स्वर्णभूषित बाणों से रावण को घायल करने लगे। रावण भी श्रीराम पर चमकीले नाराचों और मूसलों की वर्षा करने लगा। उन दोनों के बाण छिन्न-भिन्न होकर आकाश से भूमि पर गिर पड़ते थे। अंततः श्रीराम के बाणों से आहत होकर रावण भय के कारण युद्धभूमि से भाग खड़ा हुआ।
तब श्रीराम ने लक्ष्मण की चिकित्सा के लिए सुषेण को बुलवाया। लक्ष्मण को देखने के बाद सुषेण ने कहा, “प्रभु! लक्ष्मण अभी जीवित हैं। इनकी साँसें चल रही हैं और इनका हृदय भी कम्पित हो रहा है।”
फिर सुषेण ने हनुमान जी से कहा, “सौम्य! जाम्बवान ने पहले तुम्हें जिस महोदय पर्वत के बारे में बताया था, तुम शीघ्र ही वहाँ जाओ और उसके दक्षिणी शिखर पर मिलने वाली विशल्यकरणी, सावर्ण्यकरणी, संजीवकरणी तथा संधानी नामक प्रसिद्ध औषधियों को शीघ्र ले आओ। उन्हीं से लक्ष्मण के जीवन की रक्षा होगी।”
यह सुनते ही हनुमान जी वहाँ गए किन्तु औषधियों को पहचान नहीं पाए। अधिक सोचने का समय नहीं था, अतः तीन बार हिलाकर उन्होंने उस पूरे पर्वत शिखर को ही उखाड़ लिया और सुषेण के पास ले आए। सुषेण ने तुरंत वे औषधियाँ निकालीं और उन्हें कूट-पीसकर लक्ष्मण को सुँघाया। उस औषधि को सूँघते ही लक्ष्मण के घाव भर गए वे पूर्णतः स्वस्थ हो गए। इससे श्रीराम को अत्यंत प्रसन्नता हुई व उन्होंने लक्ष्मण को गले से लगा लिया।
तब तक रावण भी एक नए रथ पर बैठकर युद्ध-भूमि में वापस लौट आया था। रावण अपने रथ पर था, किन्तु श्रीराम भूमि पर ही खड़े होकर युद्ध कर रहे थे। यह देखकर देवराज इन्द्र ने अपने सारथी मातलि को बुलाया और अपना रथ लेकर युद्धभूमि में श्रीराम की सहायता के लिए उसे भेजा। तब देवराज इन्द्र के रथ को लेकर मातलि तुरन्त युद्धभूमि में आ पहुँचा और उसने श्रीराम से रथ पर बैठने की प्रार्थना की। यह सुनकर श्रीराम ने रथ की परिक्रमा करके उसे प्रणाम किया तथा वे उस रथ पर आरूढ़ हो गए।
अब राम और रावण का रोमांचक युद्ध आरंभ हो गया। गान्धर्वास्त्र, दैवास्त्र, राक्षसास्त्र, सर्पास्त्र, गारुड़ास्त्र आदि अनेक अस्त्रों का प्रयोग होने लगा। एक के बाद एक अस्त्र नष्ट हो जाने से रावण अत्यंत कुपित हो गया और बाणों की वर्षा से उसने श्रीराम को घायल कर दिया। उनके रथ की ध्वजा को भी उसने काट डाला और घोड़ों को भी क्षत-विक्षत कर दिया। श्रीराम को पीड़ित देखकर देवता, गन्धर्व, चारण, दानव, वानर, विभीषण आदि सब व्यथित हो गए।
इस समय बुध नामक ग्रह रोहिणी नक्षत्र में था और इक्ष्वाकुवंशियों के विशाखा नक्षत्र पर मंगल जा बैठा था। अनेक उत्पातसूचक संकेत दिखाई पड़ रहे थे। समुद्र प्रज्वलित-सा होने लगा, उसकी लहरों से धुआँ-सा उठने लगा और वह ऊपर की बढ़ने लगा। धूमकेतु के उत्पात से सूर्य की किरणें मंद हो गईं।
रावण के बाणों से बार-बार आहत होने के कारण श्रीराम अपने सायकों का सन्धान नहीं कर पा रहे थे। अब श्रीराम को मारने की इच्छा से रावण ने वज्र के समान शक्तिशाली एक बहुत बड़ा शूल हाथों में उठाया और भीषण गर्जना करके श्रीराम पर चला दिया। श्रीराम ने उसे लक्ष्य बनाकर अपने भयंकर बाण मारे, किन्तु उस शूल को स्पर्श करते ही वे सब जलकर नष्ट हो गए। इससे श्रीराम को बड़ा क्रोध हुआ। तब उन्होंने इन्द्र की भेजी हुई शक्ति को हाथ में उठाया, जिसे मातलि अपने साथ लाया था। वह शक्ति उल्का के समान प्रकाशमान थी। उसके प्रहार से रावण का शूल टुकड़े-टुकड़े होकर भूमि पर गिर पड़ा।
फिर श्रीराम ने अपने तीखे बाणों से रावण के सीने को छलनी कर दिया और उसके माथे पर भी चोट पहुँचाई। उन बाणों की मार से रावण का शरीर क्षत-विक्षत हो गया और रक्त की धाराएँ बहने लगीं। उनके तीव्र बाणों की मार से रावण अचेत हो गया। यह देखकर उसका सारथी उसे लेकर पुनः युद्धभूमि से भाग गया।
कुछ समय बाद होश आने पर रावण को अत्यधिक क्रोध आया। उसने सारथी से कहा, “दुर्बुद्धे! मुझसे पूछे बिना तूने रथ को युद्धभूमि से क्यों हटाया? मेरे यश और पराक्रम पर आज तूने पानी फेर दिया है। अब तू शीघ्र इस रथ को युद्धभूमि पर वापस ले चल, अन्यथा मैं यही समझूँगा कि तू भी शत्रु से मिल गया है।” यह सुनते ही सकपकाया हुआ सारथी रावण के रथ को पुनः युद्धभूमि में ले आया।
रावण को युद्धभूमि में आता देख श्रीराम ने मातलि से कहा, “मातले! देखो रावण का रथ बड़े वेग से आ रहा है। तुम भी सावधानी से उसके रथ की ओर आगे बढ़ो। आज मैं रावण का वध कर दूँगा।” यह कहकर श्रीराम ने इन्द्र का भेजा हुआ शक्तिशाली धनुष हाथ में उठा लिया।
उस समय रोंगटे खड़े कर देने वाले भयंकर संकेत रावण को दिखाई दिए। बादलों से रक्त की वर्षा होने लगी। उसके रथ पर गिद्ध मँडराने लगे। असमय ही संध्या हो गई। गीदड़ अमंगल बोली बोलने लगे और रावण के सामने बड़ी-बड़ी उल्काएँ गिरने लगीं। सूर्य की किरणों का रंग बदल गया। बादलों के बिना ही उसकी सेना पर भयानक बिजलियाँ गिरने लगीं और अन्धकार छा गया। भारी धूल से आकाश व्याप्त हो गया।
शुभ और अशुभ शकुनों के ज्ञाता श्रीराम इन लक्षणों को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। रावण के वध को निश्चित जानकर उन्होंने युद्ध में अब अत्यधिक पराक्रम प्रकट किया। उन अपशकुनों से रावण को भी अपनी मृत्यु की आहट मिल गई, अतः उसने भी जीवन का मोह छोड़कर स्वयं को युद्ध में झोंक दिया।
बहुत देर तक उन दोनों का भयंकर युद्ध चलता रहा, किन्तु कोई भी दूसरे को परास्त नहीं कर पा रहा था। क्रोधित होकर श्रीराम ने एक भयंकर बाण से रावण का सिर काट डाला, किन्तु तत्क्षण ही दूसरा सिर वहाँ उत्पन्न हो गया। इस प्रकार श्रीराम अनेक बार उसका सिर काटते रहे, किन्तु हर बार नया सिर उग आता था। इससे वे चिंतित हो गए कि जिन अस्त्रों ने बड़े-बड़े राक्षसों का संहार कर डाला था, वे सब अस्त्र आज रावण पर निष्फल क्यों हो रहे हैं?
तब मातलि ने श्रीराम से कहा, “प्रभु! आप केवल इस राक्षस का अनुसरण क्यों कर रहे हैं? यह जो अस्त्र चलाता है, आप केवल उसे रोकने वाले अस्त्र का ही प्रयोग करते हैं। आप इसका वध करने के लिए ब्रह्माजी के अस्त्र का प्रयोग कीजिए। अब इसके विनाश का समय आ चुका है।”
यह सुनते ही श्रीराम को उस अस्त्र का स्मरण हो गया। तब उन्होंने महर्षि अगस्त्य का दिया हुआ एक अमोघ बाण हाथों में लिया, जो ब्रह्मा जी से मिला था। उस बाण में वायु का वेग, सूर्य का तेज तथा मन्दराचल का भार था। वह स्वर्ण से भूषित, सुन्दर पंखों से युक्त, अग्नि के समान भयंकर तथा वज्र के समान कठोर था। वह बाण कभी निष्फल नहीं होता था। लक्ष्य पर एकाग्र होकर श्रीराम ने अपने धनुष को पूरी तरह खींचा और सहसा वह बाण रावण पर चला दिया।
वज्र के समान भयंकर वह बाण सीधा जाकर रावण की छाती में लगा और उसने दुरात्मा रावण के हृदय को फाड़ डाला(अमृत सुखा दिया नभी का)। उस भीषण प्रहार से रावण का धनुष उसके हाथों से छूटकर गिर गया और वह दुष्ट निशाचर निष्प्राण होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।
रावण की मृत्यु से भयभीत होकर सब राक्षस लंका में भाग गए। वानर सेना हर्ष से गर्जना करने लगी। अंतरिक्ष से देवताओं ने श्रीराम के रथ पर फूलों की वर्षा की और सब लोग श्रीराम की जय-जयकार करने लगे। सबने मिलकर श्रीराम की विधिवत पूजा की।
इस प्रकार श्रीराम ने रावण का वध करने की अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण कर ली।
अपने पराजित भाई को रणभूमि में मृत पड़ा देख विभीषण शोक से विलाप करने लगा। श्रीराम ने उसे सांत्वना दी। रावण-वध का समाचार सुनकर शोकाकुल राक्षसियाँ भी अन्तःपुर से निकल पड़ीं और युद्धभूमि में आ पहुँची। वहाँ अपने मृत पति को भूमि पर पड़ा देख वे सब करुण क्रन्दन करने लगीं।
विलाप करती हुई मन्दोदरी बोली, “राक्षसराज! आपके क्रोध से तो इन्द्र को भी भय लगता था, फिर आप एक मानव से कैसे परास्त हो गए? यह असंभव है कि कोई साधारण मनुष्य आप जैसे महापराक्रमी का वध कर सके। अवश्य ही भगवान विष्णु ने स्वयं ही श्रीराम के रूप में प्रकट होकर आपका वध किया है क्योंकि आप समस्त देवताओं के शत्रु बन गए थे। आपने छल से एक परायी स्त्री का अपहरण किया और शक्ति के मद में बन्धु-बान्धवों सहित अपना विनाश कर डाला। आपकी मृत्यु से मेरा जीवन भी नष्ट हो गया है।”
यह कहती हुई मन्दोदरी रोने लगी व रावण को धिक्कारने लगी। इसी बीच श्रीराम ने विभीषण से कहा, “मरने के बाद वैर समाप्त हो जाता है। अतः सब भूलकर अब तुम अपने भाई के दाह संस्कार का प्रबंध करो।”
तब विभीषण ने लंका में प्रवेश करके दाह संस्कार के लिए शकट, अग्नि, चंदन की लकड़ियाँ, मणि, मोती, मूँगा, अगर एवं अन्य सुगन्धित पदार्थ एकत्र करवाए। रावण के शव को रेशमी वस्त्र से ढककर सोने की शिबिका में रखा गया। सभी लंकावासी दुःख से आँसू बहाते हुए हुए वहाँ खड़े हो गए। विभीषण आदि राक्षस फूलों व पताकाओं से सजी उस शिबिका को अपने कन्धों पर उठाकर श्मशान भूमि की ओर चले। यजुर्वेदीय याजकों द्वारा त्रिविध अग्नियाँ प्रज्वलित की गईं। उन सबको कुण्डों में रखकर पुरोहितगण शव के आगे चले। अन्तःपुर की सारी स्त्रियाँ रोती हुई शव के पीछे-पीछे चल पड़ीं।
श्मशान में पहुँचकर राक्षसों ने मलय एवं चन्दन की लकड़ियों, पद्मक, उशीर (खस) आदि से चिता बनाई और उस पर रंकु नामक मृग का चर्म बिछाया। उस पर रावण के शव को लिटाकर उन्होंने चिता के दक्षिण-पूर्व में वेदी बनाई और वहाँ अग्नि को स्थापित किया। फिर दही मिश्रित घी से भरी हुई स्रुवा (यज्ञ में आहुति डालने की करछी) रावण के कंधे पर रखी। फिर पैरों पर शकट (छकड़ा/गाड़ी) और जाँघों पर उलूखल (ओखली) रखा गया। अरणि, उत्तरारणि, मूसल आदि को भी यथास्थान रखा गया।
वेदोक्त विधि से तथा कल्पसूत्रों में बताई गई प्रणाली से सारा कार्य संपन्न हुआ। राक्षसों ने एक पशु की बलि दी और चिता पर बिछे मृगचर्म को घी से तर किया। फिर रावण के शव को चन्दन व पुष्पों सजाकर चिता पर अनेक प्रकार के वस्त्र एवं लावा बिखेरा गया। अब विभीषण ने विधि के अनुसार चिता में आग लगाई। फिर स्नान करके उसने भीगे वस्त्र पहने हुए ही तिल, कुश और जल के द्वारा रावण को जलांजलि दी। इसके बाद रावण की स्त्रियों को सांत्वना देकर उन्हें घर जाने के लिए अनुनय-विनय की। उन सबके चले जाने पर विभीषण श्रीराम के पास आकर विनीत भाव से खड़ा हो गया।
नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
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