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वाल्मीकि रामायण -भाग 57

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वाल्मीकि रामायण -भाग 57

यह सुनकर श्रीराम जोर-जोर से हँसते हुए बोले, “निशाचर! क्यों व्यर्थ डींग हाँकता है? दण्डकारण्य में जब मैंने तेरे पिता खर के साथ ही त्रिशिरा, दूषण व अन्य चौदह हजार राक्षसों का वध किया था, तो तीखी चोंच और अंकुश जैसे पंजों वाले अनेक गिद्ध, गीदड़ कर कौए भी उनके मांस को खाकर भली-भाँति तृप्त हो गए थे। अब वे तेरे मांस को खाकर वैसे ही तृप्त होंगे।”

यह सुनते ही मकराक्ष ने श्रीराम पर बाणों की झड़ी लगा दी। श्रीराम ने भी उस पर बाणों की बौछार करके उसके सब बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। तत्पश्चात श्रीराम ने क्रोध में भरकर उस राक्षस के धनुष को काट डाला और आठ नाराचों से उसके सारथी को भी मार दिया। फिर बाणों से उन्होंने उसके घोड़ों को भी मार गिराया।

अपना रथ नष्ट हो जाने पर मकराक्ष उतरकर भूमि पर खड़ा हो गया। अब उसने एक भयंकर शूल अपने हाथों में ले लिया, जो कि स्वयं शिवजी का दिया हुआ था। उस शूल को बड़े क्रोध से घुमाकर उसने श्रीराम के ऊपर चला दिया। लेकिन चार बाण मारकर श्रीराम ने वह शूल आकाश में ही काट डाला। कई टुकड़ों में टूटकर वह भूमि पर बिखर गया।

अब मकराक्ष घूँसा तानकर श्रीराम की ओर बढ़ने लगा। उसे आगे बढ़ता हुआ देख श्रीराम ने अपने धनुष पर आग्नेयास्त्र का संधान किया। उस अस्त्र के प्रहार से मकराक्ष का हृदय विदीर्ण हो गया तथा एक ही क्षण में वह निशाचर मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

उसके धराशायी होते ही सब राक्षस-सैनिक घबराकर पुनः लंका में भाग गए।

मकराक्ष की मृत्यु के बारे में सुनकर रावण बड़ा चिंतित हुआ। उसने अत्यंत क्रोधित होकर अब अपने पुत्र इन्द्रजीत को युद्ध के लिए जाने की आज्ञा दी। यह आज्ञा सुनकर इन्द्रजीत ने पिता को प्रणाम किया और युद्ध की तैयारी के लिए निकल पड़ा।

सबसे पहले उसने यज्ञ-भूमि में आकर हवन किया, अपना यज्ञ पूर्ण करके वह अपना धनुष-बाण लेकर चार घोड़ों वाले अपने रथ पर आरूढ़ हो गया और अदृश्य होकर युद्ध-भूमि में जा पहुँचा।

श्रीराम और लक्ष्मण को देखते ही उसने अपना रथ आकाश में रोका और स्वयं अदृश्य रहकर वह उन पर अपने पैने बाणों की वर्षा करने लगा। तब श्रीराम और लक्ष्मण ने भी अपने-अपने धनुषों पर बाण चढ़ाए और दिव्य अस्त्रों का उपयोग किया।

इन्द्रजीत ने अपने बाणों के प्रभाव से आकाश में कोहरा फैला दिया था, जिससे उसे देख पाना संभव नहीं था। आकाश में उसके घोड़ों की टापों या रथ की घरघराहट का स्वर भी सुनाई नहीं पड़ता था। इस प्रकार छिपकर वह दोनों भाइयों पर अपने पैने नाराचों की वर्षा करने लगा। उसके बाणों से श्रीराम के पूरे शरीर में घाव हो गए।

ऐसी अवस्था में भी दोनों भाई सोने के पंखों से सुशोभित अपने तीखे बाण इन्द्रजीत पर छोड़ते रहे। इन्द्रजीत को घायल करके वे बाण भूमि पर गिर पड़ते थे। उसके तीखे सायकों को दोनों भाई अनेक भल्ल मारकर काट डालते थे। इन्द्रजीत अपने रथ को आकाश में तेजी से इधर-उधर घुमाता हुआ बड़ी फुर्ती से उन पर अस्त्र चला रहा था। उसकी गति, रूप, धनुष और बाणों को कोई नहीं देख पा रहा था। कितने ही वानर उसके आक्रमण से घायल होकर गिर पड़े या आहत होकर मारे गए।

यह देखकर लक्ष्मण को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने श्रीराम से कहा, “भैया! मैं अब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके समस्त राक्षसों का संहार कर दूँगा।

यह सुनकर श्रीराम बोले, “भाई! केवल एक राक्षस के कारण भूमण्डल के सारे राक्षसों का वध करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। जो युद्ध न कर रहा हो, छिपा हो, हाथ जोड़कर शरण में आया हो, युद्ध से भाग रहा हो अथवा पागल हो गया हो, ऐसे व्यक्ति को तुम्हें मारना नहीं चाहिए। यह मायावी राक्षस बड़ा नीच है। इसने अन्तर्धान होकर आपने रथ को छिपा लिया है। अब मैं ही इसके वध का प्रयत्न करता हूँ। यह अब पृथ्वी में समा जाए, स्वर्ग को चला जाए, रसातल में छिप जाए या आकाश में ही रहे, किन्तु अब मेरे अस्त्रों से यह अवश्य मारा जाएगा।”

यह कहकर श्रीराम उस राक्षस को ढूँढने के लिए इधर-उधर दृष्टिपात करने लगे। उनके मनोभावों को समझकर इन्द्रजीत तत्काल ही युद्धभूमि को छोड़कर लंका में लौट गया, किन्तु वहाँ पहुँचने पर उसे युद्ध में मारे गए राक्षसों की मृत्यु याद आ गई। तब क्रोध से भरकर वह पुनः युद्धभूमि में लौट गया।

इस बार वह राक्षसों की एक बड़ी सेना लेकर पश्चिमी द्वार से बाहर आया। श्रीराम और लक्ष्मण को देखकर उस दुष्ट ने एक नया छल किया। माया से एक नई सीता का निर्माण करके उसने उसे अपने रथ पर बिठा लिया और सबको भ्रमित करने के लिए अपने साथ उसे युद्धभूमि में ले आया।

इन्द्रजीत को वापस आता हुआ देख सब वानर हाथों में बड़ी-बड़ी शिलाएँ उठाकर पुनः युद्ध के लिए आगे बढ़े। महाबली हनुमान जी सबसे आगे थे। थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्होंने उसके रथ में उदास बैठी सीता जी को देखा। उनके शरीर पर एक ही मलिन वस्त्र था, सारा शरीर धूल और मैल से भरा हुआ था, वे बड़ी दुःखी और दुर्बल दिखाई दे रही थीं। हनुमान जी ने कुछ ही दिनों पहले उन्हें लंका में देखा था, अतः वे शीघ्र ही उन्हें पहचान गए। तब वे विचार करने लगे कि इस राक्षस का अभिप्राय क्या है? फिर वे प्रमुख वानरों को लेकर इन्द्रजीत की ओर दौड़े।

उन लोगों को अपनी ओर आता देख इन्द्रजीत के क्रोध की सीमा न रही। उसने तलवार म्यान से बाहर निकाली और सीताजी के केश पकड़कर उन्हें घसीटने और पीटने लगा। रथ पर बैठी हुई वह स्त्री भी हा राम, हा रामचिल्लाने लगी। यह दृश्य देखकर हनुमान जी को बड़ा क्रोध आया और वे स्त्री का इस प्रकार अपमान करने के लिए उस नीच राक्षस को धिक्कारने लगे। अन्य वानरों के साथ मिलकर उन्होंने इन्द्रजीत पर आक्रमण कर दिया।

तब इन्द्रजीत ने अनेक बाण मारकर उन सबको रोक दिया। फिर वह हनुमान जी से बोला, “वानर! जिस सीता के लिए तुम सब यहाँ तक आए हो, मैं अभी तुम लोगों के सामने ही उसे मार डालूँगा। उसके बाद मैं राम-लक्ष्मण, सुग्रीव और उस अनार्य विभीषण का भी वध करूँगा। तुम कह रहे थे कि स्त्रियों को मारना नहीं चाहिए, लेकिन मैं कहता हूँ कि जिस कार्य से शत्रु को सबसे अधिक कष्ट पहुँचे, वही कार्य पहले करना चाहिए। अतः ले, मैं अभी सीता को नष्ट कर डालूँगा।”

ऐसा कहकर इन्द्रजीत ने अपनी तेज धार वाली तलवार से एक ही झटके में उस मायामयी सीता के दो टुकड़े कर डाले। फिर रथ पर बैठकर वह जोर-जोर से अट्टहास करता हुआ बोला, “देख ले वानर! मैंने तेरे राम की प्रिय पत्नी को इस तलवार से काट डाला। अब तुम लोगों का युद्ध करना व्यर्थ है।”

यह सब देखकर सब वानरों में विषाद छा गया और युद्ध लड़ने का सब उत्साह नष्ट हो गया। वे सब भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे।

उन सबको इस प्रकार भागता हुआ देखकर हनुमान जी ने कहा, “वानरों! तुम क्यों इस प्रकार विषादग्रस्त और भयभीत होकर भाग रहे हो? तुम्हारा शौर्य कहाँ चला गया? इस प्रकार पीठ दिखाकर भागना वीरों को शोभा नहीं देता। आओ, मैं युद्ध में सबसे आगे चलता हूँ, तुम सब मेरे पीछे आ जाओ।”

हनुमान जी की बातें सुनकर सब वानरों का धैर्य लौटा और वे पुनः हाथों में शिलाएँ तथा वृक्ष लेकर राक्षसों पर टूट पड़े। सीता के वध से हनुमान जी के मन में भी बड़ा शोक हो रहा था और उनका क्रोध अत्यंत बढ़ गया था। प्रलयंकारी यमराज के समान वे भयंकर क्रोधित होकर राक्षसों का संहार करने लगे। एक बहुत बड़ी शिला उठाकर उन्होंने इन्द्रजीत के रथ पर फेंकी। यह देखकर सारथी ने तत्काल रथ को बहुत दूर हटा लिया। वह शिला रथ से तो नहीं टकराई, किन्तु नीचे राक्षस सेना पर जा गिरी और उसने कई राक्षसों को कुचल डाला।

हनुमान जी का यह पराक्रम देखकर वानरों का जोश भी बढ़ गया और भारी गर्जना करते हुए वे भी राक्षसों पर झपटे। अनेक निशाचरों को उन्होंने मार गिराया और इन्द्रजीत की ओर भी वे बड़े-बड़े वृक्षों व शिलाओं को फेंकने लगे।

अपनी सेना को पीड़ित देखकर इन्द्रजीत आगे बढ़ा और बाणों की भीषण वर्षा करते हुए उसने अपने शूल, वज्र, तलवार, पट्टिश तथा मुद्गरों की मार से बहुत-से वानरों को हताहत कर दिया। तब हनुमान जी ने भी कुपित होकर उसके अनेक अनुचर राक्षसों का संहार कर डाला।

इस प्रकार राक्षस-सेना को भारी क्षति पहुँचाकर हनुमान जी ने वानरों से कहा, “बन्धुओं! अब लौट चलो। जिन सीता जी के लिए हम युद्ध कर रहे थे, वे तो मारी गईं। अब हमें इसकी सूचना श्रीराम एवं राजा सुग्रीव को देनी चाहिए। फिर वे दोनों जैसा कहेंगे, हम सब वैसा ही करेंगे।”

ऐसा कहकर हनुमान जी सब वानरों को लेकर श्रीराम की ओर लौट पड़े। उन्हें पीछे लौटता देखकर इन्द्रजीत भी युद्धभूमि से निकलकर निकुम्भिला देवी के मंदिर में चला गया।

हनुमान जी शीघ्र ही अपनी सेना के साथ श्रीराम के पास आए और दुःखी मन से उन्होंने कहा, “प्रभु! हम लोग युद्ध में लगे हुए थे कि तभी इन्द्रजीत ने हमारे सामने ही सीता जी का वध कर डाला। वह दृश्य देखकर मैं विषाद में डूब गया हूँ। इसीलिए मैं आपको यह समाचार देने आया हूँ।”

यह सुनते ही श्रीराम शोक से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। यह देखकर सब प्रमुख वानर तुरंत ही वहाँ आ पहुँचे और श्रीराम को जगाने के लिए उन पर जल छिड़कने लगे।

अपने भाई की यह अवस्था देखकर लक्ष्मण जी को बड़ा दुःख हुआ। वे भूमि पर बैठ गए और उन्होंने श्रीराम को अपनी दोनों भुजाओं में भर लिया। बहुत दुःखी होकर वे बोले, “आर्य! यह कैसा दुर्भाग्य है कि आज धर्म और अधर्म का अंतर समझ नहीं आ रहा है। आप सदा धर्म का पालन करते हैं, किन्तु फिर भी आपको इतने संकटों से जूझना पड़ रहा है और वह अधर्मी रावण अभी तक सुरक्षित है।”

 “अब तो ऐसा लगता है कि धर्म का पालन करना निरर्थक है। धर्म से कभी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। अन्यथा धर्म का पालन करते हुए भी आपको इतने कष्ट क्यों मिलते? सुख तो पशु-पक्षियों को भी मिलता है, किन्तु उसका कारण धर्म नहीं है। जो लोग अधर्म में लगे हुए हैं, उनका धन बढ़ रहा है, वे सुख पा रहे हैं और जो धर्म पर चलते हैं, वे कष्ट भोग रहे हैं।”

श्रीराम! आप ज्येष्ठ पुत्र हैं, इसलिए पिताजी ने आपको युवराज बनाने की बात कही थी। परन्तु बाद में अधर्म करते हुए वे उस सत्य से पलट गए। इसी असत्य के कारण उनका आपसे वियोग हुआ और वे मर गए। इसलिए आपको उस पहले सत्य का पालन करते हुए अपना ही राज्याभिषेक करवाना चाहिए था। फिर न पिता की मृत्यु होती और न सीता हरण आदि अनर्थ हुए होते। धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति पुरुषार्थ से ही होती है।

“जिसके पास अधिक धन है, उसी के अधिक मित्र होते हैं। उसी को सब अपना भाई-बन्धु बनाते हैं। धनवान व्यक्ति ही श्रेष्ठ कहलाता है और वही विद्वान भी समझा जाता है। उसी को लोग पराक्रमी कहते हैं और उसी को बुद्धिमान मानते हैं। जिसके पास धन है, वही गुणवान समझा जाता है। अतः मैं नहीं समझ पाता हूँ कि आपने क्या सोचकर अपनी सारी संपत्ति और राज्य त्याग दिया था। आप पूज्य पिताजी की आज्ञा का पालन करने के लिए राज्य छोड़कर वन में चले आए और सत्य के पालन पर डटे रहे, किन्तु तब उस नीच राक्षस ने आपकी पत्नी का हरण कर लिया।”

“अब आप इस प्रकार शोक मत कीजिए। मैंने आपका ध्यान शोक से हटाकर पुरुषार्थ की ओर आकृष्ट करने के लिए ही यह सब कहा है। जानकी जी की मृत्यु का समाचार सुनकर मेरा रोष अत्यधिक बढ़ गया है। अतः मैं अपने बाणों से आज ही रावण सहित इस सारी लंका को धूल में मिला दूँगा।”

जब लक्ष्मण इस प्रकार श्रीराम को सांत्वना दे रहे थे, उसी समय विभीषण भी वानर-सेना का निरीक्षण पूरा करके वहाँ आ पहुँचा। अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए चार निशाचर मंत्री उसके अंगरक्षक बनकर साथ चल रहे थे। वहाँ पहुँचकर विभीषण ने भूमि पर शोकमग्न बैठे हुए लक्ष्मण को तथा उनकी गोद में सिर रखकर मूर्च्छित लेटे हुए श्रीराम को देखा।

इसका कारण जानने पर उसने तुरंत ही कहा, “श्रीराम! हनुमान जी ने जो समाचार सुनाया है, मैं उसे असम्भव मानता हूँ। सीता के प्रति रावण के मन में जो लालसा है, उसके कारण वह कभी भी सीता का वध नहीं होने देगा। मैंने तो स्वयं ही उसे कितनी बार समझाया था कि वह सीता को छोड़ दे, पर उसने मेरी बात नहीं मानी। आप निश्चित समझिये कि इन्द्रजीत ने जिसका वध किया, वह मायामयी सीता थी, वास्तविक नहीं।”

“वह इस समय निकुम्भिला मंदिर में जाकर होम कर रहा होगा। यदि उसका होम सफल हो गया, तो युद्ध में उसे परास्त करना देवताओं के लिए भी कठिन हो जाएगा। उसने सोचा होगा कि ‘वानरों का पराक्रम चलता रहा तो मेरे हवन में विघ्न पड़ेगा।’ इसी कारण उसने वानरों को भ्रमित करने के लिए माया से बनी सीता का वध किया, जिससे वानर-सेना शोक में पड़ जाए और युद्ध बंद कर दे।”

प्रभु! आप तो धैर्य में सबसे बढ़कर हैं। आपको शोक संतप्त देखकर सारी सेना शोकग्रस्त हो गई है। अतः आप शोक त्याग दीजिए और इन्द्रजीत का वध करने के लिए लक्ष्मण को जाने की आज्ञा दीजिए। उनके पैने बाणों से इन्द्रजीत अवश्य मारा जाएगा। अब आप इसमें विलंब न कीजिए क्योंकि यदि इन्द्रजीत अपना अनुष्ठान पूर्ण कर लेगा, तो समरभूमि में देवता और असुर कोई भी उसे परास्त नहीं कर पाएँगे।

अब तक श्रीराम की मूर्च्छा टूट गई थी और वे धीरे-धीरे उठ बैठे थे। विभीषण की बात सुनकर उन्होंने कहा, “राक्षसराज! तुम क्या कहना चाहते हो?”

इस पर विभीषण ने उत्तर दिया, “श्रीराम! इन्द्रजीत अवश्य ही इस समय निकुम्भिला मन्दिर की ओर गया है। ब्रह्मा जी ने उसे वरदान देते हुए कहा था, ‘निकुम्भिला नामक वटवृक्ष के पास तेरा हवन पूर्ण होने से पहले यदि कोई शत्रु तुझ पर आक्रमण करेगा, तो उसी के हाथों तेरा वध होगा।’ इन्द्रजीत ब्रह्मास्त्र का ज्ञाता, धूर्त, मायावी और बड़ा बलवान है। वह युद्ध में देवताओं को भी हरा सकता है। अतः लक्ष्मण को भी इसी समय सेना लेकर निकुम्भिला के मंदिर में जाना चाहिए और वहीं उसका वध कर देना चाहिए।”

यह सब सुनकर श्रीराम ने कहा, “इन्द्रजीत जब अपने रथ पर आकाश में विचरने लगता है, तब उसकी गति का कुछ पता ही नहीं चलता। लक्ष्मण! तुम वानरराज सुग्रीव की सेना तथा हनुमान, जाम्बवान आदि वीरों को साथ लेकर जाओ और इन्द्रजीत का वध कर दो। राक्षसराज विभीषण उसकी मायाओं से भली-भाँति परिचित हैं, अतः अपने मंत्रियों के साथ ये भी तुम्हारे पीछे-पीछे जाएँगे।”

यह सुनते ही लक्ष्मण ने युद्ध की अन्य सामग्री एकत्र कर ली। फिर उन्होंने कवच धारण किया, तलवार बाँध ली और धनुष-बाण हाथ में उठा लिए। अपने भाई को प्रणाम करके उन्होंने उनकी परिक्रमा की तथा श्रीराम ने उनकी विजय के लिए स्वस्तिवाचन किया। तब तुरंत ही लक्ष्मण निकुम्भिला मंदिर की ओर चल पड़े। विभीषण, हनुमान जी तथा बड़ी संख्या में वानर सैनिक भी उनके पीछे चले।

बहुत बड़ी दूरी तय कर लेने पर उन लोगों को दिखाई दिया कि सामने राक्षस-सेना मोर्चा बाँधे खड़ी है। तब वीर लक्ष्मण भी आगे बढ़कर निकुम्भिला नामक स्थान पर पहुँच गए। इस समय उनके साथ विभीषण, अंगद व हनुमान जी भी थे।

राक्षस-सेना को देखकर विभीषण ने कहा, “सुमित्रानन्दन! शिलाओं से आक्रमण करने वाले वानरों को इस राक्षस सेना पर टूट पड़ना चाहिए और आप भी इसके व्यूह को भेदने का प्रयास करें। यह मोर्चा टूटने पर ही हमें इन्द्रजीत दिखाई देगा। अतः उसका हवन समाप्त होने से पहले ही आप शत्रु पर धावा बोल दीजिए।”

यह सुनकर लक्ष्मण ने तत्काल ही राक्षसों पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। वानर सैनिक भी बड़े-बड़े वृक्ष और शिलाएँ लेकर राक्षसों पर टूट पड़े। उधर से राक्षसों ने भी अपने पैने बाणों, तलवारों, शक्तियों व तोमरों का प्रहार कर दिया। इस प्रकार दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध होने लगा।”

जब इन्द्रजीत ने सुना कि शत्रुओं के आक्रमण से मेरी सेना पीड़ित हो रही है, तो उसे भयंकर क्रोध आ गया और अपना अनुष्ठान पूर्ण होने से पहले ही वह युद्ध के लिए उठ खड़ा हुआ। घने पेड़ों के बीच से निकलकर वह एक रथ पर आरूढ़ हो गया। उसके हाथ में भयंकर धनुष और बाण थे। वह कोयले के ढेर जैसा काला था और उसका मुँह एवं आँखें क्रोध से लाल हो रही थीं।

इन्द्रजीत जैसे ही अपने रथ पर बैठा, उसकी राक्षस-सेना भी उसके आसपास एकत्र हो गई। तब हनुमान जी ने भी एक विशाल वृक्ष को उखाड़ लिया और राक्षसों पर प्रहार करने लगे। यह देखकर राक्षस भी अपने शूलों, तलवारों, शक्तियों, पट्टिशों, गदाओं, भालों, शतघ्नियों, मुद्गरों, फरसों, भिन्दिपालों तथा मुक्कों व थप्पड़ों से हनुमान जी से लड़ने लगे।

जब इन्द्रजीत ने यह देखा, तो उसने अपने सारथी से कहा, “यदि इस वानर को नहीं रोका गया, तो यह हम सब राक्षसों का विनाश कर डालेगा। अतः शीघ्र ही रथ को उसके पास ले चलो।”

हनुमान जी के निकट पहुँचकर इन्द्रजीत ने उन पर बाणों, तलवारों, पट्टिशों और फरसों से आक्रमण कर दिया। तब हनुमान जी कुपित होकर उससे बोले, “दुर्बुद्धि राक्षस! तू बड़ा शूरवीर है, तो आ मेरे साथ मल्लयुद्ध कर। यदि उसमें तू मेरे प्रहार सह गया, तो मैं तुझे वीर समझूँगा।

लेकिन इन्द्रजीत ने हनुमान जी को मारने के लिए धनुष उठा लिया। यह देखते ही विभीषण ने लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! उस रथ पर बैठा हुआ इन्द्रजीत हनुमान जी का वध करना चाहता है। अतः आप अपने प्राणान्तकारी बाणों से उसे अभी मार डालिये।”

इतना कहकर विभीषण लक्ष्मण को साथ लेकर तेजी से आगे बढ़े। एक गहन वन में ले जाकर उन्होंने लक्ष्मण को इन्द्रजीत के अनुष्ठान का स्थान दिखाया। वहाँ बरगद का एक सघन वृक्ष था। लक्ष्मण को वहाँ की सब वस्तुएँ दिखाने के बाद विभीषण ने कहा, “युद्ध से पहले यहीं आकर इन्द्रजीत प्रतिदिन बलि देता है। यहाँ उसके पहुँचने से पहले ही आप उसका वध कर दीजिए।”

यह सुनकर लक्ष्मण ने अपना धनुष संभाल लिया। उतने में ही अग्नि के समान तेजस्वी रथ पर बैठा हुआ इन्द्रजीत सामने से आता दिखाई दिया। उसे देखते ही लक्ष्मण ने युद्ध के लिए ललकारा।

निकट आने पर विभीषण को देखकर उसे धिक्कारते हुए इन्द्रजीत बोला, “राक्षस! तुम यहीं जन्मे और यहीं पले-बढ़े। तुम मेरे पिता के सगे भाई और मेरे चाचा हो। परन्तु तुम में न अपने परिजनों के प्रति अपनापन है, न आत्मीयजनों के प्रति स्नेह है और न अपने कुल का कोई अभिमान है। तुम तो राक्षसों पर कलंक हो। स्वजनों का त्याग करके तुमने दूसरों की दासता स्वीकार कर ली है। अतः तुम निंदनीय हो।”

“क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि जो अपने पक्ष को छोड़कर दूसरे पक्ष के लोगों से मिल जाता है, वह भी अपने पक्ष का विनाश होने के बाद फिर उन्हीं के द्वारा मार डाला जाता है। तुमने लक्ष्मण को यहाँ तक लाकर मेरा वध करवाने का जो प्रयास किया है, ऐसी निर्दयता केवल तुम्हारे जैसा नीच ही कर सकता था।”

यह सुनकर क्रोधित विभीषण ने उत्तर दिया, “राक्षस! यद्यपि मेरा मन क्रूरकर्मा राक्षसों के कुल में ही हुआ है, किन्तु मेरा स्वभाव वैसा क्रूर नहीं है। अधर्म में मेरी रुचि नहीं है। यदि मेरे बड़े भाई ने स्वयं ही मुझे घर से न निकाला होता, तो मैं दूसरे पक्ष में क्यों जाता?”

“जिसने पाप करने का दृढ़ निश्चय कर लिया हो, उसका त्याग करना ही उचित है। दूसरों का धन लूटना, परायी स्त्री पर हाथ डालना और अपने हितैषियों पर अत्यधिक शंका करना, तीनों ही बड़े विनाशकारी दोष हैं। ये सब दोष तेरे पिता में हैं। महर्षियों का वध, देवताओं से वैर, अहंकार, रोष और धर्म के विरुद्ध चलने के दुर्गुण भी उसमें विद्यमान हैं। इन्हीं दोषों के कारण मैंने तेरे पिता का त्याग किया है।”

“नीच! तू अत्यंत अभिमानी, उद्दंड और मूर्ख है। तू काल के पाश में बँधा हुआ है, इसलिए तेरी जो इच्छा हो, मुझे कह ले, किन्तु अब तू बरगद के नीचे तक नहीं पहुँच सकता। अब लक्ष्मण से युद्ध करके तू यमलोक ही पहुँचेगा।”

नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।

नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।

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जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

1 Comment

  • इंद्रजीत के द्वारा निकुमबिला देवी के अनुष्ठान का प्रकरण रामायण सीरियल में बहुत ही प्रभावशाली तरीके से दर्शाया गया है।
    इंद्रजीत द्वारा मायावी सीता का वध करने पर श्री राम बेहोश हो गए थे यह जानकारी इस प्रकरण में मिली। वाल्मिकी रामायण में युद्ध का चित्रण बहुत ही विस्तृत रूप में सब में किया गया है।।।
    जय सियाराम।।।

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