वाल्मीकि रामायण -भाग 56
तत्पश्चात उन्होंने श्रेष्ठ कैलास पर्वत, शिवजी के वाहन वृषभ तथा श्रेष्ठ ऋषभ पर्वत को भी देखा। इसके बाद उनकी दृष्टि उस उत्तम पर्वत पर पड़ी, जो सब प्रकार की औषधियों से चमक रहा था। वहाँ पहुँचकर वे उस शैल-शिखर पर विचरण करने लगे। लेकिन उनके पहुँचते ही सब औषधियाँ वहाँ से तत्काल अदृश्य हो गईं।
सहस्त्रों योजन लाँघकर वहाँ तक पहुँचने पर भी उन औषधियों को न देख पाने से हनुमान जी कुपित हो उठे और रोष के कारण जोर-जोर से गर्जना करने लगे। उनकी आँखें अग्नि के समान लाल हो गईं और क्रोधित होकर उन्हें बड़े वेग से उसे पर्वत-शिखर को ही उखाड़ लिया। उसे उखाड़कर वे पुनः गरुड़ की भाँति आकाश में उड़ चले और शीघ्र ही लंका में लौट आए।
उन्हें देखते ही सब वानर गर्जना करने लगे। तब हनुमान जी ने भी बड़े हर्ष से सिंहनाद किया। उसे सुनकर पुनः लंकावासी निशाचर भयाक्रांत हो गए और घबराकर चीत्कार करने लगे। कुछ ही देर में हनुमान जी त्रिकूट पर्वत पर उतर गए और फिर वानर-सेना के बीच पहुँचकर उन्होंने सबको प्रणाम किया।
हनुमान जी की लाई हुई उन दिव्य औषधियों की सुगंध से श्रीराम और लक्ष्मण दोनों स्वस्थ हो गए। उनके शरीर के सारे बाण निकल गए और उनके घाव भी भर गए। अन्य प्रमुख वानर भी एक-एक करके उन औषधियों की सुगन्ध से ठीक होकर उठ खड़े हुए। वे सब निरोग हो गए और उनकी सारी पीड़ा समाप्त हो गई।
तत्पश्चात प्रचण्ड वेग से पुनः हिमालय पर जाकर हनुमान जी ने उस पर्वत को वापस वहीं रख दिया और फिर वे लौटकर श्रीराम से आ मिले।
अब सुग्रीव ने आगे के युद्ध की योजना बनाकर हनुमान जी से कहा, “कुम्भकर्ण मारा गया और रावण के अनेक पुत्रों का भी संहार हो गया। अब लंका की रक्षा का प्रबन्ध कोई नहीं कर सकता। अतः अपनी सेना के सब महाबली और शीघ्रगामी वानर मशालें लेकर शीघ्र ही लंका पर धावा बोल दें।”
सुग्रीव की इस आज्ञा के अनुसार सूर्यास्त होने पर प्रदोषकाल में वे सब वानर मशाल हाथ में लेकर लंका की ओर चले। उनका आक्रमण होते ही लंका के प्रवेश-द्वारों की रक्षा में नियुक्त सभी राक्षस-सैनिक भाग खड़े हुए। तब आगे बढ़कर उन वानरों ने लंका के गोपुरों, अट्टालिकाओं, सड़कों, गलियों और महलों में सब ओर आग लगा दी।
इस आग से सहस्त्रों घर जलने लगे, प्रासाद धराशायी होने लगे। अगर, चन्दन, मोती, मणि, हीरे, मूँगे, रेशमी वस्त्र, क्षौम (अलसी या सन के रेशों से बने वस्त्र), भेड़ के रोएँ से बने कम्बल, ऊनी वस्त्र, उत्तम आसन, सोने के आभूषण, अस्त्र-शस्त्र, घोड़ों के गहने और जीन, हाथी को कसने के रस्से, उसके गले के आभूषण, रथों के उपकरण, योद्धाओं के कवच, बख्तर, खड्ग, धनुष, प्रत्यंचा, बाण, तोमर, अंकुश, शक्ति आदि सब आग की लपटों में जल गए। लाखों लंकावासियों को भी उस भीषण अग्नि ने जलाकर भस्म कर डाला। जो राक्षस आग से बचने के लिए लंका से बाहर भागते थे, उन पर नगर के बाहर खड़े वानर टूट पड़ते थे।
अब सुग्रीव ने सब प्रमुख वानरों को आज्ञा दी कि “तुम सब जाकर अपने-अपने निकटवर्ती द्वारों पर युद्ध करो। जो भी मेरे आदेश का पालन न करे अथवा युद्धभूमि से भाग जाए, उसे पकड़कर तुम लोग मार डालना क्योंकि वह राजाज्ञा का उल्लंघन होगा।”
इस आज्ञा ने अनुसार सब प्रमुख वानर लंका के सभी नगर-द्वारों पर युद्ध के लिए डट गए।
इससे रावण को बड़ा क्रोध आया। उसने तुरंत कुम्भकर्ण के दो पुत्रों, कुम्भ और निकुम्भ को अनेक राक्षसों के साथ युद्ध के लिए भेजा। यूपाक्ष, शोणिताक्ष, प्रजंघ और कम्पन भी उनके साथ युद्ध के लिए निकले। उन सबके हाथों में चमकीले खड्ग, फरसे, शूल, गदा, तलवारें, भाले, तोमर, धनुष आदि चमक रहे थे।
राक्षसों की उस सेना को देखकर वानरों की सेना भी उच्च स्वर में गर्जना करती हुई आगे बढ़ी। जैसे आग पर पतंगे टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार राक्षसों पर वानर-सेना टूट पड़ी। वृक्षों, पत्थरों, मुक्कों, दाँतों और नखों की मार से वानरों से राक्षसों पर आक्रमण कर दिया। राक्षस भी अपने पैने शस्त्रों से वानरों को घायल करने लगे। इस प्रकार उनका भीषण युद्ध होने लगा।
इस घमासान युद्ध के बीच अंगद ने आगे बढ़कर कम्पन को ललकारा, पर उसने अपनी गदा के तेज प्रहार से अंगद को मूर्च्छित कर दिया। सचेत होने पर अंगद ने एक बड़ी पर्वत-शिला से उस राक्षस पर प्रहार किया। उस एक ही प्रहार से उसके प्राण निकल गए।
कम्पन को मारा गया देखकर शोणिताक्ष ने अपना रथ अंगद की ओर मोड़ दिया। उसके चलाए हुए तीखे बाणों से अंगद का सारा शरीर घायल हो गया। फिर भी अंगद ने बड़े वेग से आगे बढ़कर उस राक्षस के धनुष, रथ और बाणों को नष्ट कर डाला। इससे कुपित होकर शोणिताक्ष ढाल और तलवार उठाकर रथ से नीचे कूद गया।
बलवान अंगद ने फुर्ती से उछलकर उसे पकड़ लिया और उसकी तलवार छीन ली। फिर उसी तलवार से अंगद ने उसके कंधे पर एक जोरदार वार कर दिया। यह देखकर प्रजंघ और यूपाक्ष भी अंगद की ओर बढ़े। थोड़ा संभलने का अवसर मिलते ही शोणिताक्ष ने भी अंगद पर प्रहार करने के लिए लोहे की गदा उठा ली। उन तीनों ने अंगद को घेर लिया।
उसी समय मैन्द और द्विविद भी अंगद की रक्षा के लिए वहाँ आ गए। अब उन तीनों ने मिलकर बड़े-बड़े वृक्ष उन निशाचरों पर चलाए, किन्तु प्रजंघ ने अपनी तलवार से उन सबको काट डाला। फिर वह अंगद पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा। उसे निकट देखकर अंगद ने अश्वकर्ण (साल) के वृक्ष से उस पर प्रहार किया। उसके जिस हाथ में तलवार थी, उस पर भी अंगद ने एक शक्तिशाली घूँसा मारा। उसके आघात से वह तलवार छूटकर नीचे गिर गई।
अब अंगद ने प्रजंघ पर मुक्कों की वर्षा कर दी। इससे कुपित होकर प्रजंघ ने भी अंगद के माथे पर एक ऐसा जोरदार घूँसा लगाया कि उससे अंगद को चक्कर आने लगा। लेकिन थोड़ा संभलते ही अंगद ने राक्षस प्रजंघ को इतना शक्तिशाली घूँसा मारा कि एक ही प्रहार में उस राक्षस का सिर धड़ से अलग हो गया।
अपने चाचा को मरा हुआ देखकर यूपाक्ष की आँखों में आँसू आ गए। उसके बाण भी समाप्त हो गए थे, इसलिए उसने भी रथ से उतरकर तलवार हाथ में ले ली। यह देखते ही वीर द्विविद ने बड़ी फुर्ती से उसके सीने पर प्रहार किया और झपटकर उसे पकड़ लिया।
भाई को इस प्रकार फंसा हुआ देखकर शोणिताक्ष ने द्विविद की छाती पर गदा से प्रहार किया। इस प्रहार से द्विविद विचलित हो उठा, पर शोणिताक्ष ने जब पुनः गदा उठाई, तो द्विविद ने झपटकर उसे छीन लिया। तब तक मैन्द भी द्विविद की सहायता के लिए आ गया था। उसने यूपाक्ष की छाती पर एक थप्पड़ से जोरदार प्रहार किया।
अब मैन्द, द्विविद, यूपाक्ष और शोणिताक्ष चारों आपस में भिड़ गए। वे एक-दूसरे को भूमि पर पटकने लगे, और छीना-झपटी करने लगे। द्विविद ने अपने नखों से शोणिताक्ष का मुँह नोच लिया और उसे पृथ्वी पर पटककर पीस डाला। मैन्द ने भी यूपाक्ष को अपनी भुजाओं में कसकर ऐसा दबाया कि उसे भी प्राण निकल गए। उन दोनों के मारे जाने पर अन्य राक्षस-सैनिक घबराकर कुम्भ के पास भाग गए।
राक्षसों को इस प्रकार पीड़ित देखकर कुम्भ ने अपना धनुष उठाया और बाणों की भीषण वर्षा करने लगा। वह बड़ा श्रेष्ठ धनुर्धर था । सोने के पंखों वाले बाणों से उसने द्विविद को घायल कर दिया।
अपने भाई को घायल होकर भूमि पर गिरता हुआ देखकर मैन्द ने एक बहुत बड़ी शिला उठाकर उस राक्षस की ओर फेंक दी। लेकिन कुम्भ ने अपने चमकीले बाणों से उस शिला के टुकड़े कर डाले। फिर उसने एक भयंकर बाण अपने धनुष पर रखकर मैन्द पर चला दिया। वह बाण सीधा मैन्द के मर्मस्थल पर लगा और वह भी मूर्च्छित होकर गिर पड़ा।
अपने दोनों मामाओं की यह दशा देखकर अंगद अब कुम्भ पर टूट पड़ा। उसे देखते ही कुम्भ ने एक के बाद एक आठ बाण मारकर अंगद को बींध डाला। फिर भी अंगद ने शिलाओं और वृक्षों की मार से उस राक्षस पर आक्रमण जारी रखा। तब क्रोधित होकर कुम्भ ने अपने दो बाणों से अंगद की भौहों पर प्रहार कर दिया। इससे अंगद की भौहों से रक्त बहने लगा और उसकी दोनों आँखें इस कारण बंद हो गईं।
तब अंगद ने खून से भीगी हुई अपनी दोनों आँखों को एक हाथ से ढक लिया और दूसरे हाथ से पास ही खड़े एक साल के वृक्ष को पकड़ा। फिर अपनी छाती से दबाकर उस वृक्ष को तने सहित झुका दिया और एक हाथ से ही उसे एक झटके में उखाड़ डाला। उस ऊँचे वृक्ष को अंगद ने बड़े वेग से कुम्भ पर दे मारा। लेकिन कुम्भ ने लगातार सात बाण मारकर उस वृक्ष के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले। यह देखकर अंगद को बड़ी व्यथा हुई। वह बहुत घायल भी हो चुका था। अगले ही क्षण वह भूमि पर गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया।
वानरों ने जब अंगद को मूर्च्छित होकर भूमि पर गिरते हुए देखा, तो उन्होंने तुरंत इसकी सूचना श्रीराम को दी। यह समाचार मिलने पर श्रीराम ने जाम्बवान, सुषेण और वेगदर्शी आदि को युद्ध के लिए जाने का आदेश दिया। आज्ञा मिलते ही वे सब क्रोधित वानर चारों ओर से कुम्भ पर टूट पड़े। अंगद की रक्षा के लिए उन्होंने वृक्षों और शिलाओं से उस राक्षस पर आक्रमण कर दिया। लेकिन कुम्भ ने अपने बाणों से उनके सब प्रहार निष्फल कर दिए।
यह देखकर अब स्वयं सुग्रीव ने मोर्चा संभाला और अश्वकर्ण (साल) के बड़े-बड़े वृक्ष उखाड़कर उस राक्षस पर धावा बोल दिया। लेकिन कुम्भ बहुत कुशल धनुर्धर था। उसने उन सब वृक्षों को अपने बाणों से काट डाला। तब क्रोधित होकर सुग्रीव ने सहसा छलांग लगा दी और कुम्भ का धनुष छीनकर तोड़ डाला।
अब कुम्भ ने भी अपने रथ से नीचे उतरकर सुग्रीव को पकड़ लिया। उन्मत्त हाथियों के समान अब वे एक-दूसरे से भिड़ गए। सुग्रीव ने कुम्भ को उठाकर बड़े वेग से सागर में फेंक दिया। वह समुद्र के तल में जा गिरा, किन्तु शीघ्र ही उछलकर बाहर आ गया। अब उसने भी क्रोध में भरकर सुग्रीव को पटक दिया और उसकी छाती पर मुक्के का भीषण प्रहार किया। इससे सुग्रीव का कवच टूट गया और रक्त बहने लगा। तब सुग्रीव ने भी क्रोधित होकर एक जोरदार मुक्का उसकी छाती पर दे मारा। उस भीषण प्रहार की चोट से वह राक्षस एक ही क्षण में धराशायी हो गया। उसके मारे जाने से सब राक्षसों का हृदय भय से काँप उठा।
अपने भाई को मरता हुआ देखकर निकुम्भ को असीम क्रोध आया। उसने जलती हुई आँखों से सुग्रीव को देखा। फिर उसने एक विशाल परिघ अपने हाथ में ले लिया। वह फूलों की लड़ियों से अलंकृत था और उसमें सोने व लोहे के पतरे जड़े हुए थे। उसे हीरे और मूँगे से सजाया गया था।
उस परिघ को घुमाते हुए निकुम्भ जोर-जोर से गर्जना करने लगा। उसने सोने का पदक पहना हुआ था। उसकी भुजाओं में बाजूबंद सजे हुए थे, कानों में कुण्डल झिलमिला रहे थे और गले में अद्भुत माला जगमगा रही थी। उसके परिघ से टकराने के कारण प्रवह-आवह आदि सात महावायुओं को सन्धि टूट गई भारी गड़गड़ाहट के साथ वह प्रज्वलित हो उठा। यह देखकर सब राक्षस और वानर भय से जड़ हो गए। कोई अपने स्थान से हिलने तक का साहस न कर पाया।
ऐसे में परमवीर हनुमान जी निर्भय होकर आगे बढ़े और उसके सामने सीना तानकर खड़े हो गए। उस राक्षस ने अपना परिघ फेंककर उनकी छाती पर मारा। लेकिन उनकी छाती बड़ी मजबूत और विशाल थी। हनुमान जी से टकराते ही उस परिघ के टुकड़े-टुकड़े हो गए। अब हनुमान जी ने बलपूर्वक अपनी मुट्ठी बाँधी और बड़े वेग से एक मुक्का निकुम्भ की छाती पर मार दिया। उनके इस प्रहार से निकुम्भ का कवच फट गया और उसके सीने से रक्त बहने लगा। शीघ्र ही संभलते हुए उसने लपककर हनुमान जी को पकड़ लिया। यह देखकर राक्षस प्रसन्न होकर विजयसूचक गर्जना करने लगे।
लेकिन अगले ही क्षण हनुमान जी ने अपने मुक्के से उस पर एक और प्रहार किया और उसके चंगुल से छूट गए। फिर उन्होंने उस निशाचर को उठाकर भूमि पर पटक दिया। अब वे कूदकर उसकी छाती पर चढ़ बैठे और दोनों हाथों से उसका गला मरोड़कर उन्होंने निकुम्भ का सिर धड़ से उखाड़ डाला। भयंकर आर्तनाद करता हुआ वह राक्षस तत्क्षण मारा गया। उसके मरते ही सब वानर हर्ष से गर्जना करने लगे और सब राक्षस पुनः भयभीत हो गए।
कुम्भ और निकुम्भ के वध का समाचार पाकर रावण क्रोध से जल उठा। अब उसने खर के पुत्र मकराक्ष से कहा, “बेटा! तुम एक विशाल सेना लेकर जाओ और उन बंदरों सहित राम व लक्ष्मण दोनों को मार डालो।”
स्वयं को शूरवीर समझने वाले मकराक्ष ने तुरंत ही आज्ञा का पालन किया। उसने महल से बाहर निकलकर सेनाध्यक्ष से कहा, “सेनापते! शीघ्र रथ ले आओ और सेना को भी बुलवाओ।”
उसकी आज्ञा पाकर शीघ्र ही राक्षसों की एक बड़ा सेना वहाँ एकत्र हो गई। वे सब राक्षस इच्छानुसार रूप धारण करने वाले तथा क्रूर स्वभाव के थे। उनकी दाढ़ें बड़ी-बड़ी और आँखें भूरी थी। उनके बाल बिखरे हुए थे, जिससे वे और अधिक भयानक दिखाई देते थे। हाथी के समान चिंघाड़ते हुए वे सब मकराक्ष को चारों ओर से घेरकर बड़े हर्ष से युद्धभूमि की ओर बढ़े। उस समय चारों ओर शंखों की ध्वनि हो रही थी। हजारों डंके पीटे जा रहे थे। योद्धाओं के गरजने और ताल ठोंकने की ध्वनि भी उसमें मिल गई थी और इस प्रकार वहाँ भीषण कोलाहल हो रहा था।
तभी अचानक मकराक्ष के सारथी का चाबुक हाथ से छूट गया और सहसा उसके रथ का ध्वज भी नीचे गिर पड़ा। रथ के घोड़े भी चलते-चलते लड़खड़ाने लगे और आँखों से आँसू बहाने लगे। इन सब अपशकुनों को देखकर भी वे राक्षस युद्ध के लिए आगे बढ़ते रहे। उन सबके शरीर बादलों, भैसों और हाथियों जैसे काले थे। पिछले अनेक युद्धों में मिले घावों के निशान उनके शरीरों पर दिखाई दे रहे थे, किन्तु फिर भी वे युद्ध के लिए बहुत उतावले हो रहे थे।
जब वानरों ने मकराक्ष को नगर से बाहर निकलते हुए देखा, तो वे भी तुरंत ही उछलकर युद्ध के लिए खड़े हो गए। अब दोनों सेनाओं के बीच भीषण संग्राम छिड़ गया। वृक्ष, शूल, गदा, परिघ, शक्ति, खड्ग, भाले, तोमर, पट्टिश, भिन्दिपाल, बाणप्रहार, पाश, मुद्गर, दण्ड आदि अनेकों अस्त्र चलने लगे।
मकराक्ष ने अपने बाणों की वर्षा से वानरों को अत्यंत घायल कर दिया। यह देखकर भयभीत वानर इधर-उधर भागने लगे। उन्हें भागता देख सब राक्षस अहंकार से गर्जना करते हुए आगे बढ़ने लगे।
राक्षसों को आगे बढ़ता देख श्रीराम ने धनुष उठाया और अपने बाणों की वर्षा से उन राक्षसों का मार्ग रोक दिया। यह देखकर मकराक्ष क्रोधित हो उठा। उसने श्रीराम को ललकारते हुए कहा, “ठहरो दुरात्मा राम! आज तुम्हारे साथ मेरा द्वंद्वयुद्ध होगा। जबसे तुमने दण्डकारण्य में मेरे पिता का वध किया, तब से तुम राक्षसों के संहार में ही लगे हुए हो। इस कारण तुम पर मेरा भी रोष भी बढ़ता आ रहा है। दण्डकारण्य में तो तुम मुझे दिखाई नहीं दिए, किन्तु बड़े सौभाग्य की बात है कि आज तुम स्वयं ही चलकर मेरे हाथों मरने के लिए आ गए हो।”
नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
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जय श्री राम
लंका काण्ड में युद्ध की विस्तृत जानकारी जानकर विस्मयकारी है।।। भीषण युद्ध हुआ।।।श्री राम जी की सेना के प्रमुख नायकों भी बहुत ही अधिक घायल हुए।।।
नित्य नयी जानकारी मिल रही है।।।
जय सियाराम।।।