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वाल्मीकि रामायण -भाग 55

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वाल्मीकि रामायण -भाग 55
देवान्तक के मारे जाने से त्रिशिरा को बड़ा क्रोध हुआ और उसने नील पर अपने पैने बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। महोदर भी एक हाथी पर सवार होकर आ गया और उसने भी नील पर बाणों की विकट वर्षा कर दी। इन आक्रमणों से नील के सारे अंग क्षत-विक्षत हो गए और वह मूर्च्छित हो गया। कुछ समय बाद होश आने पर उसने एक बहुत बड़ी चट्टान उठाकर महोदर के सिर पर दे मारी। इससे महोदर और उसका हाथी, दोनों के ही प्राण निकल गए।
यह देखकर त्रिशिरा का क्रोध और बढ़ गया। अब उसने अपने बाणों को हनुमान जी की दिशा में मोड़ दिया। हनुमान जी ने कुपित होकर उस पर पर्वत की शिला से आक्रमण किया, किन्तु अपने तीखे सायकों से त्रिशिरा ने उस शिलाखण्ड के टुकड़े-टुकड़े कर डाले।
हनुमान जी ने जब देखा कि यह प्रहार व्यर्थ हो गया, तो उन्होंने अब त्रिशिरा पर वृक्षों की वर्षा आरम्भ कर दी। त्रिशिरा ने उन वृक्षों को भी अपने बाणों से छिन्न-भिन्न कर दिया। अब क्रोधित होकर हनुमान जी एक छलांग में ही त्रिशिरा के पास जा पहुँचे और रोष में भरकर उन्होंने अपने नखों से ही उसके घोड़े को चीर डाला। इससे क्रोधित त्रिशिरा ने हनुमान जी पर शक्ति चला दी। लेकिन हनुमान जी ने उसे अपने शरीर में लगने से पहले ही पकड़ लिया और तोड़ डाला।
अब त्रिशिरा ने तलवार उठाई और हनुमान जी की छाती पर एक भरपूर वार कर दिया। उससे घायल होते हुए भी हनुमान जी ने त्रिशिरा की छाती पर एक तमाचा जड़ दिया। उनका वह थप्पड़ लगते ही त्रिशिरा अपनी चेतना खो बैठा। उसके हाथों से तलवार छूट गई और वह स्वयं भी पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब हनुमान जी ने ऐसी भयंकर गर्जना की, जिससे सब राक्षस भयभीत हो उठे।
निशाचर त्रिशिरा उस भीषण गर्जना को सह नहीं पाया और सहसा उछलकर खड़ा हो गया। उठते ही उसने फिर एक मुक्का हनुमान जी को मारा। अब हनुमान जी का क्रोध अत्यधिक बढ़ गया। उन्होंने एक झटके में ही उसकी गरदन पकड़ ली और तलवार के एक ही वार से उसके तीनों सिरों को धड़ से अलग कर दिया। उसे मरा हुआ देखकर सारे राक्षस भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे।
देवान्तक, नरान्तक, महोदर और अब त्रिशिरा के भी मारे जाने से महापार्श्व अत्यंत क्रोधित हो गया। उसने लोहे की बनी हुई एक विशाल गदा उठा ली, जिस पर सोने का पतरा जड़ा हुआ था। वह लाल रंग के फूलों से सजाई गई थी। उसे हाथ में लेकर वह प्रलय के समान वानर-सेना पर टूट पड़ा।
तब ऋषभ उछलकर उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसे देखते ही महापार्श्व ने अपनी गदा से उसकी छाती पर एक भीषण प्रहार कर दिया। इससे ऋषभ काँप उठा। उसका सीना क्षत-विक्षत हो गया और खून की धारा बहने लगी।
कुछ देर बाद होश में आने पर क्रोधित ऋषभ ने वेगपूर्वक उस राक्षस की छाती पर अपने मुक्के से एक जोरदार प्रहार किया। इससे महापार्श्व सहसा भूमि पर गिर पड़ा और रक्त से नहा उठा। उसकी भयंकर गदा को उठाकर ऋषभ जोर-जोर से गर्जना करने लगा।
दो घड़ी तक महापार्श्व मृतप्राय पड़ा रहा। फिर होश में आने पर वह सहसा उछलकर खड़ा हो गया। उसने एक और प्रहार से फिर एक बार ऋषभ को मूर्च्छित कर डाला।
इस प्रकार बहुत देर तक उन दोनों का युद्ध चलता रहा। अंततः ऋषभ ने महापार्श्व की ही गदा से उस पर एक जोरदार प्रहार किया। उसके प्रहार से महापार्श्व के दाँत टूट गए, आँखें फूट गई और एक ही क्षण में वह धराशायी हो गया। यह देखकर सब राक्षस घबराकर युद्ध-स्थल से भागने लगे।
जब अतिकाय ने देखा कि सब प्रमुख राक्षस मारे गए हैं, तो अब वह अपने धनुष को टंकार देता हुआ आगे बढ़ा। बड़े जोर से गर्जना करके उसने अपना नाम सुनाया और अपने धनुष की टंकार से वानरों को भयभीत करने लगा। उसके विशाल शरीर को देखकर वानरों को कुम्भकर्ण याद आ गया और वे भय से पीड़ित होकर श्रीराम की शरण में भागे।
श्रीराम ने भी विशाल शरीर वाले अतिकाय को देखा और विस्मित होकर विभीषण से पूछा, “विभीषण! हजार घोड़ों से जुते हुए विशाल रथ पर बैठा हुआ वह पर्वताकार निशाचर कौन है? उसके रथ को चार सारथी नियंत्रित कर रहे हैं, रथ में बीस तरकस, दस भयंकर धनुष और आठ सुनहरी प्रत्यञ्चाएँ रखी हुई हैं। दोनों ओर दस-दस हाथ लंबाई वाली चमकीली तलवारे हैं। इस राक्षस का परिचय दो।”
तब विभीषण ने उत्तर दिया, “भगवन्! यह रावण की दूसरी पत्नी धान्यमालिनी का पुत्र अतिकाय है। यह बड़ा पराक्रमी है और बल में रावण के ही समान है। यह समस्त वेद-शास्त्रों का ज्ञाता, समस्त अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ, हाथी-घोड़े की सवारी करने, तलवार, धनुष-बाण आदि का उपयोग करने तथा उचित मन्त्रणा देने में भी निपुण है। अतिकाय ने दीर्घकाल तक ब्रह्माजी की आराधना करके अनेक दिव्यास्त्र प्राप्त किए हैं। ये दिव्य कवच एवं सूर्य जैसा तेजस्वी रथ भी उन्होंने ही इसे दिया था। इसे देवताओं और असुरों से न मारे जाने का वरदान भी ब्रह्माजी से मिला है। इसने देवताओं और दानवों को सैकड़ों बार पराजित किया है और यक्षों को भी मार भगाया है। इससे पहले कि यह वानर-सेना का संहार कर डाले, आप ही इसे परास्त करने का प्रयत्न कीजिए।”
उन दोनों में यह बातें चल ही रही थीं कि तब तक अतिकाय वानर-सेना में घुस गया। उसे देखकर कुमुद, द्विविद, मैन्द, नील और शरभ आदि मुख्य वानर बड़े-बड़े वृक्ष एवं पर्वतों की शिलाएँ उठाकर उस पर टूट पड़े, परन्तु अतिकाय ने उन सबको अपने बाणों से काट डाला। उन समस्त वानरों को भी उसने लोहे के बाणों से बींध डाला। इस बाण-वर्षा से उन सबके शरीर क्षत-विक्षत हो गए और उन्होंने हार मान ली।
उन्हें परास्त करके अतिकाय आगे बढ़ा और श्रीराम के पास जा पहुँचा। बड़े गर्व से उसने कहा, “मैं धनुष-बाण लेकर रथ पर बैठा हूँ, किन्तु किसी साधारण प्राणी से युद्ध करने का मेरा कोई विचार नहीं है। जिसमें शक्ति, साहस व उत्साह हो, वह आगे आकर मुझसे युद्ध करे।”
उसकी अहंकारपूर्ण बातें सुनकर लक्ष्मण को बड़ा क्रोध आया। वे उछलकर आगे बढ़े और अपने तरकस से बाण खींचकर अतिकाय के सामने अपने विशाल धनुष को खींचने लगे। उनके धनुष की भयंकर टंकार सुनकर अतिकाय को बड़ा विस्मय हुआ। उसने क्रोध में भरकर लक्ष्मण से कहा, “तुम अभी बालक हो। मुझसे जूझने की इच्छा मत करो। मैं तुम्हारे लिए काल के समान हो। मेरे बाणों के वेग को पृथ्वी, आकाश और हिमालय भी नहीं सह सकते। तुम अपना धनुष छोड़कर वापस लौट जाओ। मुझसे भिड़कर अपनी मृत्यु को न बुलाओ।”
यह सुनकर लक्ष्मण ने क्रोध से कहा, “राक्षस! तू केवल बातों से बड़ा नहीं हो सकता। मैं धनुष-बाण लेकर तेरे सामने खड़ा हूँ। यदि तू वीर है, तो अब अपना पराक्रम दिखा।”
यह ललकार सुनकर अतिकाय ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाया और उसे लक्ष्मण पर छोड़ दिया। लक्ष्मण ने एक अर्धचन्द्राकार बाण के द्वारा उसके तीखे बाण को काट डाला। अब क्रोधित होकर अतिकाय ने पाँच बाण एक साथ चला दिए। लक्ष्मण ने भी अपने तीखे सायकों से उन सबके टुकड़े कर डाले। फिर लक्ष्मण ने एक तेजस्वी बाण अपने हाथों में लिया और बड़े वेग से वह सायक उन्होंने अतिकाय पर छोड़ दिया। वह बाण सीधा जाकर अतिकाय के ललाट में धँस गया और वहाँ से खून का फव्वारा फूटने लगा।
अब अतिकाय ने क्रमशः एक, तीन, पाँच और सात बाण एक साथ छोड़े। लक्ष्मण ने उन सबको काट डाला। इससे क्रोधित होकर अतिकाय ने अब एक महातेजस्वी बाण लक्ष्मण की ओर छोड़ा, जिसने सीधे जाकर लक्ष्मण की छाती पर आघात किया। वीर लक्ष्मण ने तुरंत ही वह बाण अपनी छाती से निकाल फेंका और एक सायक हाथ में लेकर उसे आग्नेयास्त्र से अभिमन्त्रित किया। अभिमन्त्रित होते ही वह बाण तत्काल प्रज्वलित हो उठा। उस भयंकर बाण को अपनी ओर आता देख अतिकाय ने भी सूर्यास्त्र को अभिमन्त्रित करके एक बाण चला दिया। दोनों के ही बाण आकाश में एक-दूसरे से टकराकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
अब कुपित होकर अतिकाय ने सींक का एक बाण अभिमन्त्रित करके लक्ष्मण पर चलाया। उसे भी लक्ष्मण ने ऐन्द्रास्त्र से काट डाला। फिर उस निशाचर ने याम्यास्त्र से अभिमन्त्रित बाण छोड़ा, तो उसे लक्ष्मण ने वायव्यास्त्र से नष्ट कर दिया। इसके बाद लक्ष्मण ने अतिकाय पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। परन्तु उसका कवच अभेद्य था, इसलिए कोई भी बाण उसे क्षति नहीं पहुँचा सका। उसके कवच से टकराकर सारे बाण टूटकर गिर जाते थे।
लक्ष्मण ने अनेक भयंकर बाण छोड़े, पर उस निशाचर का बाल भी बाँका नहीं हुआ। तब वायुदेवता ने पास आकर लक्ष्मण से कहा, “ब्रह्माजी के वरदान के कारण यह राक्षस अभेद्य कवच से ढका हुआ है। इसको ब्रह्मास्त्र से विदीर्ण कर डालो, अन्यथा यह राक्षस नहीं मरेगा।”
यह सुनकर लक्ष्मण ने सहसा एक भयंकर बाण को अभिमन्त्रित करके धनुष पर रखा और अतिकाय को लक्ष्य बनाकर उन्होंने वह बाण चला दिया। अतिकाय ने अपने पैने बाणों से उसे नष्ट करने का प्रयास किया, किन्तु वह वेगशाली बाण निर्बाध आगे बढ़ता रहा। उसे अपने बहुत निकट देखकर अतिकाय ने शक्ति, ऋष्टि, गदा, कुठार, शूल आदि से भी उसे नष्ट करने का विफल प्रयास किया। अंततः उस तेजस्वी बाण ने अतिकाय के सब अस्त्रों को विफल करके उसके सिर को धड़ से अलग कर डाला।
अतिकाय की यह दुर्दशा देखकर बचे-खुचे सारे राक्षस भय से काँपने लगे और अगले ही क्षण युद्धभूमि को छोड़कर लंका की ओर भाग गए।
अतिकाय के मरने का समाचार सुनकर रावण उद्विग्न हो उठा। वह बड़बड़ाता हुआ बोला, “धूम्राक्ष, अकम्पन, प्रहस्त और कुम्भकर्ण जैसे महाबली राक्षस कभी किसी शत्रु से पराजित नहीं होते थे, किन्तु राम ने उन सबका संहार कर डाला। मेरे पुत्र इन्द्रजीत ने उन दोनों भाइयों को नागस्वरूप बाणों से बाँध दिया था, जिनके बन्धन को वरदान के कारण देवता, असुर, यक्ष, गन्धर्व और नाग, कोई भी नहीं खोल सकते थे। फिर भी न जाने किस प्रकार वे दोनों भाई राम और लक्ष्मण उस बन्धन से भी छूट गए। मेरे द्वारा जो भी शूरवीर राक्षस-योद्धा भेजे गए थे, उन सबको युद्ध में वानरों ने मार डाला। अब मुझे ऐसा कोई वीर दिखाई नहीं देता, जो युद्ध में राम-लक्ष्मण, सुग्रीव एवं विभीषण सहित वानर-सेना को नष्ट कर सके।”
राक्षसों! तुम लोग हर समय लंका की रक्षा में सावधान रहो। सीता को जहाँ रखा गया है, उस अशोक वाटिका की विशेष रूप से रक्षा करो। वहाँ कब कौन प्रवेश करता है और कब वहाँ से बाहर निकलता है, इसकी पूरी जानकारी रखो। सैनिकों के शिविर जहाँ-जहाँ हैं, उनकी बराबर देखभाल करो और पहरा दो। वानरों की प्रत्येक गतिविधि पर सदा-सर्वदा दृष्टि रखना।”
रावण का यह आदेश सुनकर सब राक्षस उसका पालन करने चले गए।
उन सबके जाने पर रावण अपने दुःख और क्रोध के कारण भयंकर शोक करने लगा। अपने पुत्र की मृत्यु का स्मरण करके वह अत्यंत व्याकुल हो गया। उसकी आँखों से आँसुओं की बाढ़ आ गई।
अपने पिता की यह अवस्था देखकर उसके पुत्र इन्द्रजीत ने कहा, “तात! जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक आप चिन्ता और मोह में न पड़िये। मैं प्रतिज्ञा कर रहा हूँ कि आज ही मैं राम और लक्ष्मण दोनों का वध कर डालूँगा।”
ऐसा कहकर इन्द्रजीत ने रावण से विदा ली और अपने रथ पर सब युद्ध-सामग्री रखकर वह युद्ध-स्थल की ओर बढ़ा। उसे देखकर अनेक महाबली राक्षस भी हाथों में धनुष-बाण लेकर उसके पीछे-पीछे चल पड़े। उन सबने प्रास, पट्टिश, खड्ग, फरसे, गदा, भुशुण्डि, मुद्गर, डंडे, शतघ्नी और परिघ आदि आयुध धारण कर रखे थे।
शंखों की ध्वनि और भेरियों की भयानक आवाज चारों ओर गूँज उठी। सोने के आभूषणों से सजा इन्द्रजीत उस तुमुलनाद के बीच युद्ध-भूमि की ओर चला। उसके सिर पर श्वेत छत्र तना हुआ था और उसके दोनों ओर सुवर्णनिर्मित चँवर डुलाए जा रहे थे। इन्द्रजीत को प्रस्थान करता हुआ देखकर रावण ने उसे विजय का आशीर्वाद दिया। सिर झुकाकर इन्द्रजीत ने अपने पिता को प्रणाम किया और फिर वह रथ से उतर गया।
पृथ्वी पर अग्नि की स्थापना करके उसने चन्दन, फूल, लावा आदि के द्वारा अग्निदेव का पूजन किया। फिर विधिपूर्वक श्रेष्ठ मन्त्रों का उच्चारण करते हुए उस अग्नि में हविष्य की आहुति दी। उस समय शस्त्रों को ही अग्निवेदी के चारों ओर बिछे हुए कुश मान लिया गया और समिधा का काम बहेड़े की लकड़ी से पूरा हुआ।
उस आहुति से अग्नि प्रज्वलित हो उठी। उसमें धुआँ नहीं दिखाई दे रहा था और आग की लपटें उठ रही थीं। अग्नि की लपटें दक्षिण दिशा की ओर मुड़ी हुई दिख रही थीं और उनका रंग तपे हुए सोने के समान दिखाई दे रहा था। उस समय अग्नि में उसे विजय के सारे संकेत दिखाई दिए। फिर उसने ब्रह्मास्त्र का आवाहन किया और अपने धनुष तथा रथ आदि सबको ब्रह्मास्त्र से अभिमन्त्रित कर लिया।
इसके पश्चात उसने धनुष, बाण, रथ, खड्ग, घोड़े और सारथी सहित स्वयं को आकाश में अदृश्य कर लिया और वह युद्धभूमि में राक्षस-सेना के बीच पहुँचा। वे राक्षस अपने अपने हथियारों से वानरों पर प्रहार कर रहे थे। उनका उत्साह बढ़ाते हुए इन्द्रजीत ने भी नालीक, नाराच, गदा, मूसल आदि अस्त्र-शस्त्रों से वानरों का संहार आरंभ कर लिया। अनेक वानरों का शरीर उसने छिन्न-भिन्न कर डाला। एक-एक बाण से वह पाँच-पाँच, सात-सात और नौ-नौ वानरों को विदीर्ण कर डालता था।
इस भीषण आक्रमण से व्यथित होकर वानरों ने विजय की आशा छोड़ दी, पर वे युद्ध से पीछे नहीं हटे। घायल होते हुए भी वृक्षों और शिलाओं से वे मेघनाद पर आक्रमण करते रहे। लेकिन उसने अपने बाणों से उनके सब प्रहार निष्फल कर दिए।
अब उसने विषधर सर्पों के समान भयंकर और अग्नि जैसे तेजस्वी बाणों से वानरों को मारना आरंभ किया। अठारह बाणों से उसने गन्धमादन को घायल कर दिया और नल पर भी नौ बाण चलाए। इसके बाद सात मर्मभेदी सायकों से उसने मैन्द को तथा पाँच बाणों से गज नामक वानर को भी बींध डाला। फिर उसने दस बाणों से जाम्बवान को तथा तीस सायकों से नील को घायल किया। वरदान में मिले असंख्य भयानक सायकों से उसने सुग्रीव, ऋषभ, अंगद और द्विविद को भी मरणासन्न कर डाला।
वानर-सेना की यह दुर्गति देखकर राक्षसों का उत्साह कई गुना बढ़ गया। अब वे और अधिक आक्रोश से वानरों को रौंदने लगे। माया के कारण इन्द्रजीत छिपा हुआ था। अतः वानरों को केवल पैनी धार वाले तीर ही आकाश से गिरते हुए दिखाई दे रहे थे, किन्तु उन्हें चलाने वाले इन्द्रजीत को वे नहीं देख पा रहे थे।
अनेक श्रेष्ठ वानरों को इस प्रकार घायल कर देने के बाद इन्द्रजीत ने श्रीराम और लक्ष्मण पर भी बाण-वर्षा आरंभ कर दी। निर्भय श्रीराम ने यह देखकर लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! ब्रह्मास्त्र का सहारा लेकर इस इन्द्रद्रोही राक्षस ने हमारी सेना को धराशायी कर दिया है और अब तीखें बाणों से हम दोनों को भी पीड़ित कर रहा है। वह अदृश्य है, इसलिए हम उसे देख भी नहीं सकते। ऐसी दशा में किस प्रकार उसे मारा जाए?”
यह स्वयं भगवान ब्रह्मा का ही अस्त्र है। अतः तुम किसी भी प्रकार का भय मन में लाए बिना चुपचाप मेरे साथ यहाँ खड़े रहकर इन बाणों की मार सहते रहो। जब हम दोनों अचेत होकर गिर जाएँगे, तो इससे हर्षित होकर वह राक्षस अवश्य ही लंका को लौट जाएगा।”
यह तय करके वे दोनों भाई उसी प्रकार खड़े रहे और इन्द्रजीत के बाणों से घायल होकर अंततः मूर्च्छित हो गए। यह देखकर इन्द्रजीत अत्यधिक प्रसन्न होता हुआ लंका को वापस लौट गया और उसने जाकर रावण को अपनी विजय का समाचार बताया।
श्रीराम और लक्ष्मण को मूर्च्छित देखकर वानर-सेना में विषाद छा गया। तब विभीषण ने उन सबको समझाते हुए कहा, “वानर वीरों! आप लोग भयभीत न हों। ये दोनों भाई केवल मूर्च्छित हुए हैं। इनके प्राणों पर कोई संकट नहीं आया है।”
यह सुनकर हनुमान जी विभीषण से बोले, “राक्षसराज! इस ब्रह्मास्त्र से घायल होकर जो-जो वानर-सैनिक रणभूमि में पड़े हुए हैं, हम दोनों को उनके पास चलकर उन्हें भी आश्वासन देना चाहिए।”
उस समय रात हो चुकी थी, इसलिए हनुमान जी और विभीषण अपने हाथों में मशाल लेकर एक साथ रणभूमि का निरीक्षण करने लगे। युद्ध में घायल होकर इधर-उधर गिरे हुए वानर सैनिकों से वह युद्ध भूमि भरी हुई थी। उनके हाथ-पैर कट गए थे, शरीर से खून बह रहा था और उनके अस्त्र-शस्त्र भी इधर-उधर बिखरे हुए पड़े थे। सुग्रीव, अंगद, नील, शरभ, गन्धमादन, जाम्बवान, सुषेण, वेगदर्शी, मैन्द, नल, ज्योतिर्मुख, द्विविद आदि अनेक प्रमुख वानर भी घायल पड़े हुए थे।
घायल जाम्बवान को देखते ही विभीषण ने उन्हें पुकारा। तब भूमि पर पड़े हुए जाम्बवान ने उत्तर दिया, “राक्षसराज! मैं केवल स्वर से ही तुम्हें पहचान पा रहा हूँ। पैने बाणों से मेरे सारे अंग बिंधे हुए हैं, अतः मैं आँख खोलकर तुम्हें देख नहीं सकता। तुम मुझे केवल इतना बता दो कि हनुमान जीवित है या नहीं?”
इस प्रश्न से चकित होकर विभीषण ने पूछा, “आर्य! आपने न राजा सुग्रीव के बारे में, न युवराज अंगद के बारे में और न ही स्वयं श्रीराम के बारे में कुछ पूछा, किन्तु आप केवल हनुमान जी के बारे में ही क्यों पूछ रहे हैं?”
यह सुनकर जाम्बवान ने उत्तर दिया, “राक्षसराज! सुनो, मैं हनुमान के बारे में इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि यदि हनुमान जीवित है, तो समझो कि यह मृत वानर-सेना भी पुनः जीवित हो सकती है, किन्तु यदि उसके प्राण निकल गए हों, तो हम सब जीते जी भी मृतकों के ही समान हैं।”
तब तक हनुमान जी
भी इस बातचीत को सुनकर वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने वृद्ध जाम्बवान के दोनों पैर पकड़कर उन्हें विनम्र भाव से प्रणाम किया। तब जाम्बवान ने उनसे कहा, “हनुमान! इस समय जिस पराक्रम की आवश्यकता है, वह केवल तुम ही कर सकते हो, इसलिए आगे बढ़ो और वानर-सेना की रक्षा करो।”
“समुद्र के ऊपर से उड़ते हुए तुम्हें बहुत दूर का रास्ता तय करके पर्वतश्रेष्ठ हिमालय पर जाना होगा। वहाँ पहुँचने पर तुम्हें उत्तम ऋषभ पर्वत तथा कैलास पर्वत दिखाई देंगे। उन दोनों के बीच में औषधियों का एक पर्वत है। उसकी चमक इतनी अधिक है, जिसकी कोई तुलना नहीं है। वह पर्वत अनेक प्रकार की औषधियों से संपन्न है।”
“वानरवीर! उस पर्वत के शिखर पर तुम्हें चार ऐसी औषधियाँ दिखाई देंगी, जो अपनी चमक से दसों दिशाओं को प्रकाशित किए रहती हैं। उनके नाम हैं – मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी और संधानी। तुम उन सब औषधियों को शीघ्र यहाँ ले आओ क्योंकि उन्हीं से सब वानरों के प्राण बचेंगे।”
जाम्बवान की यह बात सुनकर हनुमान जी ने पुनः अपना आकार अत्यधिक बढ़ा लिया और एक पर्वत पर चढ़ने लगे। वह पर्वत उनके शरीर का भार नहीं संभाल सका। उनके भार से उसके वृक्ष टूटकर गिरने लगे और चोटियाँ भी ढहने लगीं। लंका का विशाल द्वार भी हिल गया। मकान और दरवाजे ढह गए। पूरी लंका नगरी भय से व्याकुल हो उठी।
उस पर्वत शिखर से आगे बढ़कर हनुमान जी बहुत ऊँचे मलय पर्वत पर चढ़ गए। वहाँ अनेक ऋषि-मुनि, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व एवं अप्सराएँ निवास करती थीं। उन सबको व्याकुल करते हुए वे मेघ के समान आगे बढ़ते रहे। अपने दोनों पैरों से उस पर्वत को दबाकर और अपने भयंकर मुख को फैलाकर वे निशाचरों को डराते हुए जोर-जोर से गर्जना करने लगे। उससे लंका के सारे राक्षस काँप उठे।
महापराक्रमी हनुमान जी ने अब समुद्र को नमस्कार करके श्रीराम का कार्य पूर्ण करने का संकल्प लिया।
अपनी पूँछ को ऊपर उठाकर उन्होंने अपनी पीठ झुकाई और दोनों कान सिकोड़कर प्रचण्ड वेग से आकाश में उड़ान भरी। उनके तीव्र वेग से अनेकों वृक्ष और शिलाएँ भी आकाश में उछल गईं और फिर जाकर समुद्र में गिर पड़ीं। अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर गरुड़ के समान उड़ते हुए हनुमान जी हिमालय की ओर बढ़ने लगे।
सूर्य के मार्ग का आश्रय लेकर बड़े वेग से बढ़ते हुए वे शीघ्र ही हिमालय पर्वत पर जा पहुँचे। वहाँ अनेक नदियाँ और झरने बह रहे थे। अनेक प्रकार के वृक्ष, कन्दराएँ और श्वेत पर्वत शिखर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। हनुमान जी उस पर्वत के सबसे ऊँचे शिखर पर खड़े हो गए। वहाँ से उन्हें भगवान् ब्रह्मा का स्थान, इन्द्र का भवन, रुद्रदेव द्वारा त्रिपुरासुर पर बाण छोड़े जाने का स्थान, भगवान् हयग्रीव का निवास स्थान आदि अनेक दिव्य स्थान दिखाई दिए। यमराज के सेवक भी उन्हें वहाँ दिखे।
नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
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जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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