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वाल्मीकि रामायण -भाग 53

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वाल्मीकि रामायण -भाग 53

सारी लंका चारों ओर से शत्रुओं से घिरी हुई थी। यह देखकर रावण ने सेनापति प्रहस्त से कहा, “वीर प्रहस्त! शत्रुओं ने नगर के अत्यंत निकट छावनी डाल रखी है, जिससे सारा नगर व्यथित हो उठा है। अब तो केवल मैं, कुम्भकर्ण, तुम, इन्द्रजीत या निकुम्भ ही ऐसे भीषण युद्ध का भार संभाल सकते हैं। अतः शीघ्र ही सेना लेकर तुम युद्धभूमि में जाओ और वानरों को समाप्त कर डालो। ये वानर बड़े चंचल, ढीठ और डरपोक होते हैं। तुम्हें देखते ही वे सब घबराकर भाग खड़े होंगे। जब वानर-सेना ही भाग जाएगी, तो कोई सहारा न रहने पर राम और लक्ष्मण बिना लड़े ही तुम्हारे अधीन हो जाएँगे।”

यह सुनकर प्रहस्त बोला, “राजन्! मैंने तो पहले ही कहा था कि हमें सीता को लौटा देना चाहिए, अन्यथा युद्ध अवश्य होगा। मेरा वह अनुमान सही निकला और आज हमें इस युद्ध का सामना करना पड़ रहा है। आपने सदा मुझे धन और मान-सम्मान दिया है, इसलिए मैं भी आज आपकी इच्छा पूरी करने के लिए इस युद्ध में अपने जीवन की आहुति दूँगा।

इतना कहकर प्रहस्त वहाँ से चला गया और उसने अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार किया। कुछ ही समय में अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हाथों में लेकर राक्षस सैनिक वहाँ एकत्र हो गए। उनमें से अनेकों राक्षस घी की आहुति देकर अग्निदेव को प्रसन्न करने लगे और ब्राह्मणों को नमस्कार करके आशीर्वाद लेने लगे। घी की गन्ध चारों ओर फैल गई।

युद्ध के लिए तैयार होकर प्रहस्त सोने की जाली से सजे हुए अपने रथ पर आरूढ़ हुआ। उसमें बड़े वेगशाली घोड़े जुते हुए थे और सारथी भी बड़ा कुशल था। उस रथ पर सर्प के चिह्न वाली ध्वजा लगी हुई थी और सूर्य व चन्द्रमा समान प्रकाशमान वह रथ चलने पर मेघों जैसी गर्जना करता था। प्रहस्त के चार सचिव, नरान्तक, कुम्भहनु, महानाद और समुन्नत भी उसे चारों ओर से घेरकर निकले। राक्षस सेना के निकलते ही धौंसे, शंख और अन्य रणवाद्यों का निनाद लंका में गूँज उठा। भयानक रूप वाले विशालकाय राक्षस भी भयंकर स्वर में गंभीर गर्जना करते हुए चल रहे थे।

इस भीषण नाद को सुनकर सब पशु-पक्षी घबराकर चीत्कार करने लगे। उसी समय आकाश से उल्कापात भी होने लगा और भयंकर आंधी चल पड़ी। ग्रहों का प्रकाश मन्द पड़ गया, बादल रक्त की वर्षा करने लगे और एक गीध दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके उसके रथ की ध्वजा पर आकर बैठ गया। रथ के घोड़ों का चाबुक उसके कुशल सारथी के हाथों से कई बार नीचे गिर पड़ा। उसके घोड़े समतल भूमि में भी लड़खड़ाने लगे।

ऐसे अपशकुनों के बीच प्रहस्त युद्ध-भूमि पर पहुँचा और फिर एक बार दोनों सेनाओं के बीच युद्ध छिड़ गया। राक्षस अपने खड्ग, शक्ति, ऋष्टि, शूल, बाण, मूसल, गदा, परिघ, प्रास, फरसे और धनुष आदि से लड़ रहे थे, तो वानर भी बड़े-बड़े वृक्षों, शिलाओं एवं पत्थरों से उनका सामना कर रहे थे।

जब वानरों का पलड़ा बहुत भारी होने लगा, तो प्रहस्त के चारों सचिव आगे बढ़कर वानरों पर आक्रमण करने लगे। तब द्विविद ने नरान्तक का, दुर्मुख ने समुन्नत का, जाम्बवान ने महानाद का और तार ने राक्षस कुम्भहनु का वध कर डाला।

प्रहस्त इस बात को सह नहीं सका। उसने धनुष हाथ में लेकर वानरों का संहार आरंभ कर दिया। उनके शवों के ढेर लग गए। तब नील भी आगे बढ़कर राक्षस-सेना का संहार करने लगा। इससे क्रोधित होकर प्रहस्त ने नील पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। उसके पैने बाणों से नील का शरीर घायल हो गया। तब कुपित नील ने साल के एक विशाल वृक्ष के प्रहार से प्रहस्त के घोड़ों को मार डाला। फिर रोष में भरे नील ने उसका धनुष भी तोड़ दिया। तब प्रहस्त ने मूसल से नील के माथे पर वार किया और रक्त की धारा बहा दी। अंततः नील ने एक विशाल शिला उठाकर प्रहस्त के माथे पर चला दी। उस शिला ने प्रहस्त के सिर को कुचलकर रख दिया। एक क्षण में ही उसके प्राण निकल गए। यह देखते ही राक्षसों की बची-खुची सेना भी लंका की ओर भाग गई।

 प्रहस्त के मरने का समाचार सुनकर रावण क्रोध से तमतमा उठा। शोक से उसका चित्त व्याकुल हो गया। वह बोला, “शत्रुओं को बलहीन समझकर कभी उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। जिन शत्रुओं को मैं बहुत छोटा समझता था, उन्होंने मेरे वीर सेनापति को मार गिराया। अब मैं स्वयं ही युद्ध के लिए जाऊँगा।”

ऐसा कहकर रावण स्वयं ही रथ पर आरूढ़ हो गया और युद्ध-भूमि में पहुँचा। अपने साथ आए हुए राक्षसों से उसने कहा, “तुम सबको मेरे साथ यहाँ देखकर वानर इसे लंका में घुसने का अच्छा अवसर मानेंगे और मेरी उस सूनी नगरी को चौपट कर डालेंगे। इसलिए तुम लोग नगर के द्वारों और राजमार्गों की रक्षा के लिए चले जाओ।

ऐसा कहकर उसने अपने मंत्रियों को विदा कर दिया और अपने भीषण बाणों से वह वानर-सेना का संहार करने लगा। यह देखकर सुग्रीव ने एक बड़ा पर्वत शिखर उखाड़ लिया और रावण पर आक्रमण कर दिया। रावण ने बहुत सारे बाण मारकर उस शिला के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। फिर उसने सुग्रीव का वध करने के लिए भयंकर बाण का संधान किया।

रावण के हाथ से छूटे उस सायक ने सुग्रीव को घायल कर डाला। यह देखकर राक्षस बड़े हर्ष से गर्जना करने लगे।

तब गवाक्ष, गवय, सुषेण, ऋषभ, ज्योतिर्मुख और नल आदि विशालकाय वानर अनेक शिलाओं को उठाकर रावण पर टूट पड़े। रावण ने अपने बाणों से उन सबके प्रहारों को व्यर्थ कर दिया। फिर सोने के विचित्र पंखों वाले बाणों से उसने उन सब वानरवीरों को घायल कर डाला।

यह देखकर स्वयं हनुमान जी आगे बढ़े। रावण को भयभीत करते हुए उन्होंने कहा, “निशाचर! तुमने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष एवं राक्षसों से न मरने का वरदान पाया है, पर वानरों से नहीं। आज मैं तुम्हारे प्राणों को शरीर से अलग कर दूँगा।

इस पर रावण ने बोला, “वानर! तुम निःशंक होकर मुझ पर प्रहार कर लो। तुम्हारे पराक्रम को जान लेने के बाद ही मैं तुम्हारा नाश करूँगा।”

तब हनुमान जी ने उत्तर दिया, “मेरे पराक्रम को जानने के लिए तुम केवल इतना याद कर लो कि तुम्हारे पुत्र अक्ष को मैंने ही मारा था।

यह सुनते ही रावण ने हनुमान जी की छाती पर एक तमाचा जड़ दिया। उसकी चोट से आहत होकर वे इधर-उधर चक्कर काटने लगे, पर शीघ्र ही संभलकर खड़े हो गए। तब उन्होंने भी कुपित होकर उसे थप्पड़ मार दिया। उससे रावण बुरी तरह काँप उठा। उसने क्रोधित होकर हनुमान जी की छाती पर एक और मुक्का मारा। उसकी चोट से हनुमान जी विचलित हो उठे। उन्हें विह्वल देखकर अब रावण नील की ओर बढ़ा और अपने भयंकर बाणों से उसे घायल करने लगा।

जब नील ने रावण पर शिलाओं से प्रहार किया, तो उसने अपने तीखे बाणों से उन शिलाओं को चकनाचूर कर डाला। तब क्रोधित नील ने अश्वकर्ण, साल, आम आदि वृक्षों को उखाड़कर रावण पर फेंकना आरंभ कर दिया। उन सबको भी रावण ने अपने बाणों से काट दिया और नील पर भारी बाण-वर्षा कर दी। तब नील बहुत छोटा-सा रूप बनाकर रावण के रथ की ध्वजा पर जा बैठा। वहाँ से वह रावण के धनुष पर और फिर उसके मुकुट पर कूद गया।

यह देखकर रावण घबरा गया और उसने अद्भुत तेजस्वी आग्नेयास्त्र उठा लिया। तब तक नील पुनः रथ की ध्वजा पर जा बैठा था। रावण के आग्नेयास्त्र से नील की छाती पर गहरी चोट लगी और वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।

रावण उसे अचेत देखकर अब लक्ष्मण की ओर बढ़ा। उसने सुन्दर पंखों वाले सात बाण लक्ष्मण की ओर छोड़े। लक्ष्मण ने सोने के बने हुए विचित्र पंखों वाले तेज बाणों से उन सबको काट डाला। क्षुर, अर्धचन्द्र, उत्तम कर्णी, भल्ल आदि विविध प्रकार के बाणों से लक्ष्मण ने एक के बाद एक रावण के हर बाण को निष्फल कर दिया।

लक्ष्मण की फुर्ती देखकर रावण चकित रह गया। अब उसने ब्रह्माजी के दिए हुए कालाग्नि के समान तेजस्वी बाण से लक्ष्मण के माथे पर चोट की। उससे विचलित होकर भी लक्ष्मण ने तुरंत स्वयं को संभाल लिया और फिर अपने बाणों से रावण के धनुष को ही काट दिया। इसके बाद लक्ष्मण ने तीन और बाण चलाकर रावण को घायल कर दिया। रावण का सारा शरीर रक्त से भीग गया।

अब रावण ने ब्रह्माजी की दी हुई शक्ति उठा ली और बड़े वेग से उसे लक्ष्मण पर चला दिया। उससे आहत होकर लक्ष्मण भूमि पर गिर पड़े। उन्हें विह्वल देखकर रावण उनके पास पहुँचा और अपने दोनों हाथों से उन्हें उठाने लगा, किन्तु वह उन्हें हिला भी नहीं पाया।

उसी समय क्रोध से भरे हुए हनुमान जी रावण की ओर दौड़े व अपने वज्र जैसे मुक्के से उन्होंने रावण की छाती पर प्रहार किया। उस मुक्के की भीषण मार से रावण ने घुटने टेक दिए। वह काँपने लगा और भूमि पर गिर पड़ा। उसके मुँह, आँख और कान से रक्त की धाराएँ बहने लगीं। उसका सिर चकराने लगा। किसी प्रकार लड़खड़ाता हुआ वह अपने रथ तक पहुँचा और पिछले भाग में जाकर बैठ गया। वह अपनी सुध-बुध खो बैठा और तड़पता, छटपटाता हुआ अंततः मूर्च्छित हो गया। उतने में हनुमान जी लक्ष्मण को उठाकर सुरक्षित स्थान पर ले गए। लक्ष्मण को छोड़कर वह शक्ति पुनः रावण के रथ पर लौट आई।

कुछ देर बाद होश में आने पर रावण ने अब अपना दूसरा धनुष उठा लिया और अपने पैने बाणों से पुनः वानर-सेना का संहार करने लगा। यह देखकर श्रीराम ने स्वयं ही अब रावण पर धावा बोल दिया।

तब आगे बढ़कर हनुमान जी ने श्रीराम से कहा, “प्रभु! जिस प्रकार भगवान विष्णु गरुड़ पर बैठकर दैत्यों का संहार करते हैं, उसी प्रकार आप मेरी पीठ पर चढ़कर इस राक्षस को दण्ड दीजिए।”

यह सुनकर श्रीराम तुरंत ही हनुमान जी की पीठ पर चढ़ गए।

समर-भूमि में श्रीराम ने अपने धनुष की तीव्र टंकार प्रकट की, जो वज्र की गड़गड़ाहट से भी अधिक कठोर थी। उन्होंने रावण को ललकारते हुए कहा, “रावण! मेरा अपराधी होकर तू अब अपने प्राण नहीं बचा सकेगा। इन्द्र, यम, ब्रह्मा, सूर्य, अग्नि या शंकर भी अब तुझे बचा नहीं सकते। दसों दिशाओं में भागकर भी तू अब मेरे हाथों से नहीं बच सकेगा। मैंने ही अपने बाणों से जनस्थान के तेरे चौदह हजार राक्षसों का संहार कर डाला था। अब मैं तेरा और तेरे पुत्र-पौत्रों का भी काल बनकर यहाँ आया हूँ।”

तब वे घोड़ों, ऊँटों, गधों और हाथियों को डंडों, कोड़ों और अंकुशों से मार-मारकर उसकी ओर धकेलने लगे। पहले से भी अधिक ऊँचे स्वर में सहस्त्रों भेरी, मृदंग और शंख पुनः बजाने लगे एवं पूरा बल लगाकर उसे लकड़ी के लट्ठों, मुद्गरों और मूसलों से मारने भी लगे। इस भीषण कोलाहल से सारी लंका गूँज उठी, किन्तु कुम्भकर्ण फिर भी नहीं जागा।

अब वे राक्षस बहुत क्रोधित हो गए। तब वे उसके उसके बाल नोचने लगे और उसे दाँतों से काटने लगे। उसके दोनों कानों में उन्होंने सौ घड़े पानी डाल दिया। फिर भी वह टस से मस नहीं हुआ। काँटेदार मुद्गरों से उन्होंने उसके माथे, सीने और अन्य अंगों पर प्रहार किया, रस्सियों से बँधी हुई शतघ्नियों से भी उस पर चोट की। फिर भी उस महानिद्रालु की नींद नहीं टूटी।

अंत में थककर उन्होंने हजारों हाथी उसके शरीर पर दौड़ा दिए। तब जाकर वह जागा और अँगड़ाई लेता हुआ उठ खड़ा हुआ। अपनी दोनों भुजाओं और मुँह को फैलाकर जब उसने जम्हाई ली, तो उसका मुँह बड़वानल (समुद्र की चट्टानों में जलने वाली आग) के समान दिखाई दिया। उसकी बड़ी-बड़ी भयंकर आँखें भी अग्नि से जलते दो ग्रहों जैसी दिखाई पड़ती थीं।

तब उन राक्षसों ने संकेत करके उसे अपनी लाई हुई खाद्य-सामग्री दिखाई। उसे देखते ही वह निशाचर उन भैसों और सूअरों पर टूट पड़ा और उन सबको उसने खाकर चट कर दिया। भरपेट मांस खा लेने के बाद उसने कई घड़े रक्त और कई घड़े मदिरा भी पी ली। तब उसे तृप्त देखकर वे राक्षस धीरे से उसके सामने आए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए।

आधी नींद से जगाए जाने के कारण वह अप्रसन्न था और उसके नेत्र भी कुछ खुले, कुछ बंद दिखाई दे रहे थे। इधर-उधर दृष्टि डालकर उसने उन सब भयभीत राक्षसों को देखा और उन्हें सांत्वना देकर उसने विस्मय से पूछा, “तुम लोगों ने मुझे क्यों जगाया है? राक्षसराज रावण कुशल तो हैं? लंका पर कोई संकट तो नहीं आ गया?”

तब रावण का सचिव यूपाक्ष आगे आया और हाथ जोड़कर उसने कहा, “महाराज! एक मनुष्य के कारण हम लोगों पर एक भारी संकट आ गया है। सीताहरण से क्रोधित होकर राम ने अपनी विशाल वानर-सेना के साथ लंका को चारों ओर से घेर लिया है। पहले एक वानर ने अकेले ही यहाँ आकर लंकापुरी को जला दिया था और अनेक हाथियों व राक्षसों सहित अक्षकुमार को भी मार डाला था। अब तो साक्षात राक्षसराज रावण को भी राम ने युद्ध में हराकर भी जीवित छोड़ दिया। बड़ी कठिनाई से उनके प्राण बचे। महाराज की ऐसी अपमानित दशा तो देवों, दानवों और दैत्यों ने भी नहीं की थी, जो उस एक मनुष्य ने कर डाली है।

यह सुनकर कुम्भकर्ण की आँखे आश्चर्य से खुली की खुली रह गईं। वह यूपाक्ष को देखता हुआ बोला, “यूपाक्ष! मैं अभी सारी वानर-सेना को और राम-लक्ष्मण को भी युद्ध में परास्त कर दूँगा, फिर आकर रावण से मिलूँगा। वानरों के रक्त और मांस से आज मैं राक्षसों को तृप्त करूँगा और स्वयं भी राम-लक्ष्मण का रक्त पीऊँगा।”

कुम्भकर्ण की यह अहंकारपूर्ण बात सुनकर महोदर ने कहा, “महाबली! पहले आप चलकर महाराज रावण की बात सुन लीजिए। फिर आपको जैसा उचित लगे, कीजिए।”

उसकी बात मानकर कुम्भकर्ण रावण से मिलने के लिए अपने बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। उसने मुँह धोकर स्नान किया और बलवर्धक पेय लाने की आज्ञा दी। तब वे राक्षस तुरंत उसके लिए मद्य एवं अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ ले आए।

दो हजार घड़े मद्य गटकने के बाद कुम्भकर्ण का मन प्रसन्न हो गया और वह राक्षसों की सेना के साथ अपने भाई के महल की ओर चला। उसके पैरों की धमक से सारी पृथ्वी काँप उठी। नगर के बाहर खड़े वानर सहसा उस विशालकाय राक्षस को देखकर घबरा गए और भय के कारण इधर-उधर भागने लगे।

उस कोलाहल के कारण श्रीराम का ध्यान उस ओर गया और उन्होंने भी कुम्भकर्ण को देखा। उसके विशाल आकार को देखकर उन्हें बड़ा अचंभा हुआ और तब उन्होंने विभीषण से पूछा कि “यह भूरे नेत्रों वाला विशालकाय राक्षस कौन है? मैंने आज तक इतने बड़े डील डौल वाला कोई प्राणी नहीं देखा। यह कोई राक्षस है या असुर?”

तब विभीषण ने बताया, “भगवन्! यह कुम्भकर्ण है। इसने देवता, दानव, नाग, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, विद्याधर और किन्नरों को हजारों बार युद्ध में हराया है। बचपन में भूख के कारण इसने सहस्त्रों प्रजाजनों को खा डाला था। जब उनकी याचना सुनकर इन्द्र ने इस पर वज्र से प्रहार किया, तो इसने भी कुपित होकर इन्द्र के ऐरावत हाथी का एक दाँत तोड़ डाला और उसी से इन्द्र पर प्रहार कर दिया। तब व्यथित होकर इन्द्र सहित सब देवता ब्रह्माजी के पास गए। इसके द्वारा प्रजा के भक्षण, देवताओं के तिरस्कार, ऋषियों के आश्रमों के विनाश तथा परायी स्त्रियों के अपहरण की बात सुनकर ब्रह्माजी ने इसे शाप दिया कि तू सदा मुर्दों के समान सोता रहेगा।’”

“इस शाप से कुम्भकर्ण वहीं गिर पड़ा। यह देखकर घबराए हुए रावण ने ब्रह्माजी से दया की याचना की। इस पर उन्होंने क्षमा करते हुए कहा, “ठीक है! यह छः मास तक सोता रहेगा और एक दिन जागेगा। उस दिन यह भूख के कारण बहुत-से लोगों को खा जाया करेगा।”

“इस समय आपके पराक्रम से भयभीत होकर रावण ने इसे जगाया है। अब यह कुपित होकर वानरों को खा जाने के लिए उनके पीछे इधर-उधर दौड़ रहा है। इससे घबराकर सब वानर भाग गए, तो हम युद्ध में इसे कैसे रोकेंगे? अतः हमें सब वानरों से कह देना चाहिए कि यह कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि काया के आकार वाला एक यन्त्र है। तब वे घबराना छोड़कर निर्भय हो जाएँगे।”

यह सुझाव मानकर श्रीराम ने वानरों को समझाने के लिए नील को भेजा। उसके आदेश के अनुसार गवाक्ष, शरभ, हनुमान जी, अंगद आदि के नेतृत्व में वानर बड़े-बड़े वृक्ष और पत्थर लेकर लंका के द्वारों व राजमार्गों पर युद्ध के लिए डट गए।

उधर रावण के पास पहुँचकर कुम्भकर्ण ने उसके चरणों में प्रणाम किया और नींद से जाए जाने का कारण पूछा। रावण ने बड़ी प्रसन्नता से उसे गले से लगा लिया। फिर उसे एक सुन्दर सिंहासन पर बिठाने के बाद रावण बोला, “महाबली वीर! तुम नहीं जानते कि जब तुम गाढ़ी निद्रा में मग्न थे, तब राम के साथ सुग्रीव की सेना समुद्र पर सेतु बनाकर इस पार आ गई और उन वानरों ने लंका को संकट में डाल दिया है। हमारे सब प्रमुख राक्षस वीरों को उन वानरों ने मार डाला। वानरों के इस संकट से तुम ही हमारी रक्षा कर सकते हो। अब तुम ही मुझ पर अनुग्रह करके इस लंका को बचाओ।”

यह सुनकर कुम्भकर्ण ठहाका मारकर हँसने लगा। वह बोला, “भाई! पहले तो तुमने विभीषण जैसे हितैषियों की बातों पर ध्यान नहीं दिया।

अब अपने पापकर्म का फल देखकर तुम्हें भय हो रहा है। अपने अहंकार से तुमने आज तक जो अनुचित कर्म किए हैं, उन संस्कारहीन कर्मों के कारण ही आज तुम इस संकट में आ घिरे हो।”

“जो राजा अपने सचिवों के साथ विचार-विमर्श करके साम, दान और दण्ड का उचित प्रकार से उपयोग करता है, वही उत्तम राजा है। जो नीतिशास्त्र का पालन करता है और अपनी बुद्धि से अपने हितैषियों को पहचान सकता है, वही राजा अपने कर्तव्य और अकर्तव्य को समझ पाता है। धर्म, अर्थ और काम का सेवन उचित समय पर ही करना चाहिए। इन तीनों में भी धर्म ही सबसे श्रेष्ठ है, अतः आवश्यकता पड़ने पर धर्म के लिए अर्थ व काम को भी त्याग देना चाहिए। जो राजा इस बात को नहीं समझता या समझकर भी नहीं मानता, उसका सब अध्ययन व्यर्थ है।”

“राजा को केवल उत्तम बुद्धि वाले मंत्रियों को नियुक्त करके उनके परामर्श से कार्य करना चाहिए। जो राजा पशु के समान बुद्धि वाले किसी भी प्रकार के मंत्रियों को अपने आस-पास जुटा लेता है, उसके कार्य सदा बिगड़ते हैं क्योंकि शास्त्र के अर्थ को न जानने के कारण वे मंत्री उचित सलाह कभी नहीं दे सकते। उनमें से कुछ तो शत्रुओं के साथ भी मिल जाते हैं और अपने ही स्वामी का विनाश कर डालते हैं।”

“जो राजा अपने चंचल मन के कारण केवल रमणीय वचनों को सुनकर ही संतुष्ट होता है और बिना सोचे-समझे कोई भी कार्य करता है, उसे अपनी मूर्खता का परिणाम भी शीघ्र भुगतना पड़ता है। विभीषण और मंदोदरी की हितकर बात न मानने के कारण ही तुम अब संकट में पड़ गए हो।”

यह सब सुनकर रावण क्रोधित हो गया। भौहें टेढ़ी करके उसने क्रोधित स्वर में कहा, “तुम किसी आचार्य की भाँति मुझे उपदेश क्यों दे रहे हो? मैंने जिस किसी भी कारण से तुम लोगों की बात नहीं मानी थी, अब उसकी चर्चा करना व्यर्थ है। बीती हुई बात के लिए बुद्धिमान लोग बार-बार शोक नहीं करते हैं। तुम अब इसका विचार करो कि आगे हमें क्या करना चाहिए।”

रावण का यह क्रोध देखकर कुम्भकर्ण ने धीमी वाणी में उसे सांत्वना देते हुए कहा, “शत्रुदमन! संताप व्यर्थ है। तुम अब शांत होकर मेरी बात सुनो। मुझे सदा तुम्हारे हित की ही बात करनी चाहिए, इसी कारण मैंने यह सब कहा। एक भाई के लिए जो करना उचित है, मैं भी तुम्हारे लिए वही करूँगा। अब तुम युद्धभूमि में मेरे द्वारा शत्रु का संहार देखो। आज तुम देखोगे कि राम और उसके भाई के मारे जाने पर किस प्रकार वानर-सेना इधर-उधर भागेगी। मैं आज समरभूमि से राम का शीश काटकर लाऊँगा। उसे देखकर सीता दुःख में डूब जाएगी और तुम सुखी हो जाओगे। जिन राक्षसों के सगे-संबंधी वानरों के हाथों मारे गए हैं, वे सब भी आज राम की मृत्यु देखेंगे।”

राक्षसराज! मुझे राम से कोई भय नहीं है। अब तुम मुझे युद्ध की आज्ञा दो। मेरे इस तीखे त्रिशूल से देवता भी डरते हैं, किन्तु आज न तो मैं शक्ति से, न गदा से, न तलवार से और न पैने बाणों से युद्ध करूँगा। अपने दोनों हाथों से ही मैं राम का वध कर डालूँगा। जिस हनुमान ने लंका जलाई थी, उसे भी आज मैं जीवित नहीं छोड़ूँगा। लक्ष्मण और सुग्रीव को भी मार डालूँगा और वानरों को खा जाऊँगा। अतः तुम अब अपना भय त्याग दो।

यह सुनकर महोदर बोला, “कुम्भकर्ण! तुम उत्तम कुल में जन्मे हो, किन्तु तुम्हारी बुद्धि नीच ही है। तुम ढीठ और घमंडी हो, इसीलिए उचित-अनुचित को नहीं जानते।

महोदर ने आगे कहा, “कुम्भकर्ण! ऐसी बात नहीं है कि महाराज रावण नीति और अनीति को नहीं जानते हैं। धर्म, अर्थ और काम को समझने की बुद्धि तुम्हारे पास नहीं है, इसी कारण तुम ऐसी निरर्थक बातें कर रहे हो। तुम्हारा यह कहना भी मूर्खतापूर्ण है कि जिस राम ने जनस्थान में इतने सारे बलशाली राक्षसों को मार डाला था, उसे तुम अकेले ही परास्त कर दोगे। मुझे तुम्हारी इस मूर्खता पर आश्चर्य होता है।”

कुम्भकर्ण से ऐसा कहकर महोदर अब रावण से बोला, “महाराज! मेरे मन में एक उपाय है। आप नगर में घोषित कर दीजिए कि ‘महोदर, द्विजिह्व, संह्रादी, कुम्भकर्ण और वितर्दन, ये पाँच राक्षस राम का वध करने जा रहे हैं।’ यदि हमने राम पर विजय पा ली, तो आपको सीता मिल जाएगी। यदि वह बचकर निकल गया, तो हम राम नाम वाले बाणों से अपने शरीर को घायल करवा लेंगे और खून से लथपथ होकर युद्ध-भूमि से यह कहते हुए लौटेंगे कि ‘हमने राम और लक्ष्मण को खा लिया है’। तब आप नगर में उनके वध की घोषणा करवा दें और अपने योद्धाओं को हर प्रकार की भोग सामग्री, दास-दासी, रत्न-आभूषण आदि उपहार में दें। इससे सब लोगों में चर्चा फैल जाएगी कि राम को राक्षसों ने खा लिया है।”

“जब सीता तक भी यह समाचार पहुँच जाए, तब आप एकान्त में उसके पास जाएँ और उसे सांत्वना देकर धन-धान्य और सुख-भोग का लोभ दिखाएँ। इससे सीता का शोक और बढ़ जाएगा तथा इच्छा न होने पर भी वह आपके अधीन हो जाएगी। मुझे यही उचित लगता है कि आप युद्ध में राम का सामना न करें क्योंकि उससे आपकी मृत्यु की संभावना है। जो राजा बिना युद्ध के ही शत्रु पर विजय पाता है, उसका जीवन सुरक्षित रहता है और यश व कीर्ति भी बढ़ती है।”

महोदर की यह बातें सुनकर कुम्भकर्ण उसे फटकारता हुआ बोला, “महोदर! तुम जैसे चापलूसों ने ही सदा राजा की हाँ में हाँ मिलाकर सब काम चौपट किया है। उसी का फल है कि लंका में अब केवल राजा रह गए हैं, पर खजाना खाली हो चुका है और सेना मार डाली गई है। अब मैं समरभूमि में जाकर अपने पराक्रम से शत्रु को परास्त करूँगा व तुम लोगों ने अपनी खोटी बुद्धि के कारण जो परिस्थिति बिगाड़ दी है, उसे ठीक करूँगा।”

यह सुनकर रावण ने प्रसन्न होकर कुम्भकर्ण से कहा, “कुम्भकर्ण! यह महोदर निःसंदेह राम से डर गया है, इसी कारण ऐसी कायरता की बातें कर रहा है। तुम्हारे बल के आगे कोई नहीं टिक सकता। तुम युद्धभूमि में जाओ और शत्रुओं का वध कर डालो। तुम्हारा रूप देखकर ही सब वानर भाग जाएँगे और राम-लक्ष्मण के हृदय में भी भय व्याप्त हो जाएगा।”

रावण की यह बात सुनकर कुम्भकर्ण भी बहुत प्रसन्न होता हुआ युद्ध के लिए लंका से बाहर निकला। शत्रु का संहार करने के लिए उसने काले लोहे का बना हुआ एक पैना शूल हाथ में ले लिया। वज्र के समान भारी वह शूल तपे हुए सोने से सजा हुआ और बहुत चमकीला था। उसमें लाल फूलों की एक बड़ी माला लटक रही थी और उससे आग की चिनगारियाँ झड़ रही थीं।

रावण ने कुम्भकर्ण को सोने की एक माला पहनाई। उसे बाजूबंद, अँगूठियाँ, अन्य आभूषण और चन्द्रमा के समान चमकीला एक हार भी पहनाया। उसके विभिन्न अंगों में सुगन्धित फूलों की मालाएँ भी बँधवाई गईं तथा दोनों कानों में कुण्डल पहनाए गए।

इस प्रकार सज-धज कर कुम्भकर्ण ने अपने भाई को गले से लगाकर उसकी परिक्रमा की और उसे प्रणाम करके वह युद्ध के लिए बाहर निकला। उसकी कमर में काले रंग की एक विशाल करधनी थी और छाती पर सोने का एक कवच बँधा हुआ था। रावण ने उसे आशीवार्द देकर श्रेष्ठ आयुधों से सुसज्जित सेना को उसके साथ भेजा। उन सब राक्षसों ने अपने हाथों में शूल, तलवार, फरसे, भिन्दिपाल, परिघ, गदा, मूसल, ताड़ के वृक्ष और गुलेलें पकड़ ली थीं।

युद्ध के लिए कुम्भकर्ण ने अपना आकार अत्यधिक बढ़ा लिया। फिर उसने सेना की व्यूह रचना की और अट्टहास करता हुआ बोला, “राक्षसों! आज मैं वानरों के एक-एक झुण्ड को भस्म कर डालूँगा। लेकिन सबसे पहले मैं राम और लक्ष्मण को मारूँगा क्योंकि उन्हीं के कारण ये बेचारे वानर वन में विचरना छोड़ कर यहाँ युद्ध के लिए चले आए हैं।”

ऐसा कहकर उसने भीषण गर्जना की और आगे बढ़ा।

कुम्भकर्ण के बढ़ते ही चारों ओर घोर अपशकुन होने लगे। गधों के समान भूरे रंग वाले बादल घिर आए। भीषण उल्कापात हुआ और बिजलियाँ गिरने लगीं। सारी पृथ्वी और समुद्र काँप उठे। गीदड़ियाँ अमंगलसूचक बोली बोलने लगीं। मण्डल (गोल घेरा) बनाकर पक्षी दक्षिण की ओर से उसकी परिक्रमा करने लगे। रास्ते में चलते समय कुम्भकर्ण के शूल पर एक गिद्ध आकर बैठ गया। उसकी बायीं आँख फड़कने लगी और बायीं भुजा काँपने लगी। उस समय बहुत तेज हवा भी चल रही थी और सूर्य का तेज क्षीण हो गया था।

ऐसे उत्पातों पर कोई ध्यान न देता हुआ कुम्भकर्ण आगे बढ़ता रहा।

उस पर्वताकार राक्षस को देखते ही वानर घबराकर चारों दिशाओं में भागने लगे। उन्हें इस प्रकार भागता देख कुम्भकर्ण भी बड़े हर्ष के साथ भीषण गर्जना करने लगा। उन भागते हुए वानरों को देखकर अंगद ने नल, नील, गवाक्ष, कुमुद आदि वानरों को पुकारते हुए कहा, “वानर वीरों! अपने उत्तम कुल और अलौकिक पराक्रम को भुलाकर तुम लोग साधारण बन्दरों की भाँति कहाँ भागे जा रहे हो? यह राक्षस हमसे युद्ध में नहीं जीत सकता। यह तो केवल तुम्हें डराने के लिए माया से रची गई विभीषिका है। इसे हम अपने पराक्रम से नष्ट कर देंगे। तुम लोग घबराओ मत, युद्ध के लिए लौट आओ।”

यह सुनकर बड़ी कठिनाई से वानर माने और इधर-उधर से वृक्ष उखाड़कर पुनः रणभूमि की ओर लौट गए। अब वे पूरी शक्ति से कुम्भकर्ण पर चट्टानों एवं वृक्षों को फेंक-फेंककर प्रहार करने लगे। उनकी इस मार से वह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुआ। चट्टानें उसके शरीर से टकराते ही चूर-चूर हो जाती थीं और वृक्ष भी टूटकर पृथ्वी पर गिर जाते थे। वह आगे बढ़ता अब वानरों की सेना को रौंदने लगा और खून से लथपथ होकर वानर भी धरती पर गिरने लगे। बहुत-से वानर उबड़-खाबड़ भूमि को लाँघते हुए जोर-जोर से भागने लगे। उनमें से कुछ तो समुद्र में भी गिर पड़े और कुछ आकाश में ही उड़ते रह गए। अंगद ने फिर किसी प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें युद्ध के लिए वापस लौटाया।

अब ऋषभ, शरभ, मैन्द, धूम्र, नील, कुमुद, सुषेण, गवाक्ष, रम्भ, तार, द्विविद, पनस और हनुमान जी आदि सभी वीर वानर कुम्भकर्ण का सामना करने के लिए रणभूमि की ओर बढ़े। अन्य वानर भी अब मरने-मारने का संकल्प लेकर भयंकर युद्ध करने लगे।

नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।

नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।

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जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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