वाल्मीकि रामायण -भाग 51
लंका जिस त्रिकूट पर्वत पर बसी हुई थी, उसे रीछों और वानरों की विशाल सेना ने चारों ओर से घेर लिया। उनकी संख्या देखकर ऐसा आभास होता था, मानो पूरी पृथ्वी ही वानरों से भर गई है। उनका कोलाहल सुनकर सारी लंका नगरी में हलचल मच गई।
अब श्रीराम ने अंगद से कहा, “सौम्य! तुम निर्भय होकर लंकापुरी में जाओ और रावण को मेरा यह सन्देश सुनाना कि ‘निशाचर! तुमने अहंकारवश ऋषि, देवता, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष आदि सबको आज तक कष्ट दिया है। ब्रह्माजी के वरदान से तुम्हें जो शक्ति मिली थी, अब अवश्य ही उसके नष्ट होने का समय आ गया है। तुमने मेरी भार्या के अपहरण का भी अपराध किया। तुम्हारे सब अपराधों का दण्ड देने के लिए अब मैं लंका के द्वार तक आ पहुँचा हूँ। जिस बल के अहंकार में तुमने छल से मेरी पत्नी का हरण किया था, अब अपना वह बल तुम मुझे युद्ध के मैदान में दिखाओ। अपने तीखे बाणों से मैं समस्त राक्षसों का संहार करूँगा। इस युद्ध में तुम भी मारे जाओगे और लंका का राज्य विभीषण को मिलेगा। इसमें कोई संशय नहीं है कि तुम्हारे जीवन की अवधि अब पूर्ण हो चुकी है। अतः अब तुम स्वयं ही अपना श्राद्ध कर डालो, दान-पुण्य कर लो और लंका को जी भरकर अंतिम बार देख लो क्योंकि तुम्हारा जीवन अब शीघ्र ही समाप्त होने वाला है।’”
यह सन्देश लेकर अंगद तुरंत ही आकाश-मार्ग से निकला और एक ही मुहूर्त में रावण के राजभवन में जा पहुँचा। रावण को अपना परिचय देकर अंगद ने उसे श्रीराम का सन्देश सुना दिया। उन कठोर वचनों को सुनकर रावण क्रोध से चिल्लाया, “इस दुर्बुद्धि वानर को पकड़कर मार डालो।”
यह सुनते ही चार भयंकर राक्षसों ने अंगद को दोनों भुजाओं से पकड़ लिया। तत्काल ही अंगद ने उन सबको साथ लेकर ही जोर से छलांग लगा दी और वह रावण के महल की छत पर चढ़ गया। उस छलांग के झटके से वे सब राक्षस भूमि पर गिर पड़े। क्रोधित अंगद उस छत पर पैर पटकता हुआ इधर से उधर घूमने लगा। उसके पैरों के प्रहार से रावण के देखते ही देखते उसके महल की वह छत टूटकर बिखर गई।
तब अंगद ने रावण को अपना नाम याद दिलाते हुए बड़े जोर से गर्जना की और पुनः आकाश-मार्ग से वह अपनी सेना के पास वापस लौट आया। यह वृतांत सुनकर वानरों का उत्साह और भी बढ़ गया। इच्छानुसार रूप धारण कर सकने वाले अनेक वानरों ने सुषेण के नेतृत्व में आगे बढ़कर लंका के सभी प्रवेश-द्वारों पर अपना अधिकार कर लिया और बारी-बारी पहरा देते हुए वे लंका की चारदीवारी पर घूमने लगे।
लंका को इस प्रकार घेर लेने वाले वानरों की सौ अक्षौहिणी सेना को देखकर राक्षसों को बड़ा विस्मय हुआ। उनमें से कुछ तो युद्ध के उत्साह से भर गए, किन्तु बहुत-से निशाचर भयभीत होकर अपने प्राणों की चिंता करने लगे। उन राक्षसों ने रावण के महल में जाकर उसे सूचित किया कि वानरों के साथ श्रीराम ने लंका को चारों ओर से घेर लिया है।
यह सुनकर रावण को बड़ा क्रोध आया। नगर की रक्षा के लिए पहले से भी दोगुना प्रबंध करके वह अपने महल की अटारी पर चढ़कर वानर-सेना का अवलोकन करने लगा। उसने देखा कि लंका चारों ओर से असंख्य वानरों से घिर गई है। यह सोचकर वह चिंतित हो उठा कि अब इन सबका विनाश कैसे होगा?
इधर श्रीराम ने अपने वानर-सैनिकों को तत्काल लंका पर आक्रमण करके अपने राक्षस शत्रुओं का वध करने की आज्ञा दी। उनकी आज्ञा मिलते ही सब वानर लंका पर टूट पड़े और उनमें एक-दूसरे से आगे बढ़कर अधिक से अधिक राक्षसों को यमलोक पहुँचाने की होड़-सी मच गई। वे सब वानर बड़े-बड़े वृक्षों, चट्टानों और अपने मुक्कों से लंका के भवनों, गोपुरों और सोने के दरवाजों को तोड़ने लगे। ‘श्रीराम की जय हो’, ‘महाबली लक्ष्मण की जय हो’, ‘सुग्रीव की जय हो’ के नारों से लंका गूँज उठी।
अत्यंत क्रोधित रावण ने भी उसी समय अपनी सारी सेना को तुरंत बाहर निकलने की आज्ञा दी। उसकी आज्ञा मिलते ही राक्षस-सेना भी भयंकर गर्जना करती हुई बाहर निकली। सोने के डंडों से बहुत-से धौंसे एक साथ बजाए जाने लगे। बहुत-से राक्षस शंख बजाने लगे। उस युद्ध-घोष को सुनकर राक्षस-सैनिक बड़े उत्साह से आगे बढ़े। तब वानरों ने भी क्रोध में भरकर भीषण गर्जना की। इस प्रकार हाथियों की चिंघाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, रथों के पहियों की घरघराहट, शंख, दुन्दुभी आदि के नाद तथा राक्षसों एवं वानरों की गर्जनाओं से पृथ्वी, आकाश व समुद्र सब गूँज उठे।
राक्षस अपनी गदाओं, शक्ति, शूल, फरसों आदि से वानरों पर प्रहार करने लगे। वानरों ने भी बड़े-बड़े वृक्षों, चट्टानों, नखों व दाँतों से प्रहार करके राक्षसों को अपनी शक्ति का परिचय दे दिया। ‘राक्षसराज रावण की जय हो’ तथा ‘वानरराज सुग्रीव की जय हो’ के नारे दोनों सेनाओं में सुनाई पड़ने लगे। परकोटे पर चढ़े हुए राक्षस अपने भिन्दिपालों (लोहे का एक प्राचीन अस्त्र) तथा शूलों से वानरों को विदीर्ण करने लगे। कुपित वानर भी आकाश में उछलकर राक्षसों को परकोटे से खींचकर नीचे गिराने लगे।
इस प्रकार राक्षसों और वानरों में घमासान युद्ध हुआ, जिससे वहाँ रक्त और मांस का कीचड़ जम गया।
एक-दूसरे पर धावा बोलते हुए राक्षसों और वानरों के बीच अब द्वंद्व-युद्ध भी छिड़ गया। अंगद और इन्द्रजीत, हनुमान जी और जम्बुमाली, सम्पाती और प्रजंघ, विभीषण और शत्रुघ्न, गज और तपन, नील और निकुम्भ, सुग्रीव और प्रघस, मैन्द और वज्रमुष्टि, द्विविद और अशनिप्रभ, नल और प्रतपन, सुषेण और विद्युन्माली, तथा लक्ष्मण और विरुपाक्ष आपस में युद्ध करने लगे। अग्निकेतु, रश्मिकेतु, सुप्तघ्न तथा यज्ञकोप, ये चारों राक्षस एक साथ श्रीराम से लड़ने लगे।
मेघनाद ने अगंद पर गदा से प्रहार किया, तो अंगद ने उसकी गदा पकड़ ली और उसी के प्रहार से इन्द्रजीत के स्वर्णजटित रथ को उसके सारथी व घोड़ों सहित चूर-चूर कर डाला। अपने रथ पर बैठे जम्बुमाली ने हनुमान जी की छाती पर वार किया, किन्तु हनुमान जी उछलकर उसके रथ पर चढ़ गए और एक ही थप्पड़ के तीव्र प्रहार से उन्होंने उस राक्षस के साथ-साथ ही उसके रथ को भी नष्ट कर दिया।
प्रजंघ ने तीन बाणों से सम्पाती को घायल कर दिया, तो सम्पाती ने भी अश्वकर्ण के वृक्ष से वार करके उसे मार डाला। अपने तीखे बाणों से नल के शरीर को क्षत-विक्षत करने वाले प्रतपन की दोनों आँखें नल ने फोड़ डालीं। सप्तपर्ण नामक वृक्ष के प्रहास से सुग्रीव ने प्रघस को मार गिराया। मैन्द ने अपने मुक्कों के प्रहार से वज्रमुष्टि को उसके रथ और घोड़ों सहित यमलोक में पहुँचा दिया। निकुम्भ ने अपने सौ पैने बाणों से नील को छिन्न-भिन्न कर दिया था। तब नील ने निकुम्भ के ही रथ के पहिये से उसकी व उसके सारथी की गरदन काट डाली। अपने वज्र जैसे शक्तिशाली बाणों से अशनिप्रभ ने द्विविद को घायल कर दिया, तब द्विविद ने भी क्रोधित होकर एक साल के वृक्ष से अशनिप्रभ को मार गिराया तथा उसके रथ व घोड़ों को भी नष्ट कर दिया।
लक्ष्मण ने बाणों की वर्षा करके विरुपाक्ष को पहले बहुत पीड़ा दी तथा उसके बाद एक बाण मारकर उसका जीवन समाप्त कर दिया। अग्निकेतु, रश्मिकेतु, सुप्तघ्न एवं यज्ञकोप नामक राक्षसों ने श्रीराम को अपने बाणों से घायल कर दिया। तब कुपित होकर श्रीराम ने अग्निशिखा के समान भयंकर बाणों के द्वारा उन चारों के सिर काट दिए।
उधर सुषेण एवं विद्युन्माली के बीच भी भारी घमासान हो रहा था। अपने स्वर्णभूषित बाणों से सुषेण को घायल करके विद्युन्माली जोर-जोर से गर्जना करना लगा। तब सुषेण ने बड़ी-बड़ी चट्टानों से प्रहार करके उसके रथ को चूर-चूर कर डाला। विद्युन्माली गदा लेकर रथ से कूद पड़ा और उसने सुषेण की छाती पर प्रहार कर दिया। तब सुषेण ने भी एक विशाल चट्टान को उठाकर विद्युन्माली की छाती पर दे मारा और उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले।
इस प्रकार उन सब वानर-वीरों ने द्वंद्व-युद्ध में राक्षसों को कुचल दिया। भालों, बाणों, गदाओं, शक्तियों, तोमरों, सायकों, टूटे हुए रथों, बिखरे हुए पहियों, मरे हुए हाथी-घोड़ों, वानरों, राक्षसों आदि से पटी हुई वह युद्धभूमि अत्यंत भयानक दिखाई देने लगी। वहाँ चारों ओर गीदड़ विचरने लगे। हारते हुए राक्षस बड़ी व्यग्रता (बेचैनी) से सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे क्योंकि रात्रि के समय राक्षसों का बल अत्यधिक बढ़ जाता है।
इस प्रकार वह युद्ध चल ही रहा था कि सूर्यास्त हो गया और रात्रि का अन्धकार छा गया। अब उन लोगों में रात्रि-युद्ध होने लगा। अन्धकार में एक-दूसरे को देखना असंभव हो गया था। ‘क्या तुम राक्षस हो?’, ‘क्या तुम वानर हो?’ इस प्रकार पूछ-पूछकर दोनों पक्षों के सैनिक एक-दूसरे से लड़ने लगे। ‘ठहरो’, ‘भागो, ‘मारो-काटो’ के स्वर चारों ओर सुनाई दे रहे थे। उस भीषण युद्ध से वहाँ रक्त की नदी बहने लगी। घायल होकर भूमि पर पड़े राक्षसों तथा वानरों का आर्तनाद बड़ा भयंकर लग रहा था।
उस दारुण अन्धकार में लड़ना वानरों के लिए बहुत कठिन था। हर्ष और उत्साह में भरकर अनेक राक्षसों ने अब श्रीराम पर भी बाणों की वर्षा कर दी। वे बड़े-बड़े राक्षस कभी सामने आकर युद्ध करते थे, तो कभी अन्धकार में अदृश्य हो जाते थे। लेकिन श्रीराम और लक्ष्मण ने अपने तीखे बाणों से उन सब राक्षसों का संहार कर डाला। यज्ञशत्रु, महापार्श्व, महोदर, महाकाय, वज्रदंष्ट्र तथा शुक व सारण श्रीराम के बाणों से घायल हो गए और अपने प्राण बचाने के लिए घबराकर युद्ध-भूमि से भाग खड़े हुए।
उधर अंगद ने जब घोड़ों व सारथी सहित इन्द्रजीत के रथ को नष्ट कर दिया, तो इन्द्रजीत अपने टूटे हुए रथ को वहीं छोड़कर तुरंत अंतर्धान हो गया। ब्रह्माजी के वरदान के कारण अदृश्य रहकर भी उसने वज्र के समान तीखे और तेजस्वी बाणों की झड़ी लगा दी। श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयों को अपने सर्पमय बाणों से घायल करके इन्द्रजीत ने उन्हें नागपाश में बाँध लिया। दोनों भाइयों के शरीर का अंग-प्रत्यंग इन्द्रजीत के तीखे बाणों से घायल हो गया। उनके घावों से रक्त बहने लगा।
तब अदृश्य अवस्था में ही इन्द्रजीत उन दोनों भाइयों से बोला, “युद्ध के समय अदृश्य हो जाने पर तो मुझे देवराज इन्द्र भी नहीं देख सकता, फिर तुम दोनों मानवों की तो बिसात ही क्या है! मैं तुम दोनों को अभी यमलोक भेज दूँगा।”
ऐसा कहकर उसने अपने विशाल धनुष को खींचा व पुनः उन दोनों पर बाण-वृष्टि आरंभ कर दी। इन बाणों के भीषण प्रहार से घायल होकर दोनों भाई अत्यंत पीड़ित और व्यथित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उनके घावों से रक्त की धारा बहने लगी। इन्द्रजीत ने अपने नाराच (सीधी और गोल नोक वाला बाण), अर्धनाराच (आधे भाग में नाराच जैसी रचना वाला बाण), भल्ल (फरसे जैसी नोक वाला बाण), अंजलिक (दोनों हाथों की अंजलि जैसी नोक वाला बाण), वत्सदन्त (बछड़े के दाँतों जैसी नोक वाला बाण), सिंहदंष्ट्र (सिंह की दाढ़ जैसी नोक वाला बाण) और क्षुर (छुरे जैसी नोक वाला बाण) बाणों के द्वारा उन दोनों को घायल कर दिया।
उन बाणों से आहत होकर सबसे पहले श्रीराम धराशायी हुए। अपने भाई को इस प्रकार पृथ्वी पर पड़ा देखकर लक्ष्मण को भारी शोक हुआ। वे भी अपने जीवन से निराश होकर आँसू बहाते हुए आर्तनाद करने लगे। हनुमान जी आदि मुख्य वानर उन दोनों भाइयों को चारों ओर से घेरकर खड़े हो गए और उनकी अवस्था से व्यथित होकर सब वानर बड़े विषाद में पड़ गए।
श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई खून से लथपथ होकर बाणों की शय्या पर पड़े थे। उनकी साँसें बहुत धीमी हो गई थीं। उन्हें इस अवस्था में देखकर सब वानर शोक करने लगे। जब इन्द्रजीत ने बाणों की वर्षा रोक दी, तो सुग्रीव और विभीषण भी वहाँ आ पहुँचे।
मायावी मेघनाद को वानर देख नहीं पा रहे थे। तब विभीषण ने भी माया से देखना आरंभ किया और उसे अपना भतीजा सामने दिखाई दिया। श्रीराम व लक्ष्मण की यह अवस्था देखकर मेघनाद बहुत प्रसन्न था। उसने अपने पराक्रम का वर्णन करते हुए कहा, “सारे देवता और असुर मिलकर भी इन बाणों के बन्धन से दोनों भाइयों को छुड़ा नहीं सकते। लंका पर जो संकट छाया हुआ था, उसे आज मैंने समाप्त कर दिया है।”
इतना कहकर उसने पुनः बाण-वर्षा आरंभ कर दी। नौ बाणों से उसने नील को घायल कर दिया, तीन-तीन बाण मैन्द व द्विविद पर चलाए, एक तीक्ष्ण बाण से जाम्बवान की छाती में गहरी चोट पहुँचाई तथा हनुमान जी को भी उसने दस वेगवान बाण मार दिए। दो-दो बाण मारकर उसने गवाक्ष तथा शरभ को घायल कर दिया और अंगद को भी अपने बाणों से गहरी चोट पहुँचाई। बड़े-बड़े वानर वीरों को अपने बाणों से इस प्रकार घायल करके उसने भीषण अट्टहास किया। उसके इस पराक्रम को देखकर राक्षस-सैनिक चकित रह गए।
श्रीराम-लक्ष्मण को बाणों से घायल और मूर्च्छित देखकर सुग्रीव भयभीत हो उठा। उसके नेत्र शोक से व्याकुल हो गए और वह दुःख से आँसू बहाने लगा। तब विभीषण ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, “सुग्रीव! डरो मत। डरने से कोई लाभ नहीं होगा। युद्ध में विजय कभी निश्चित नहीं होती है। भाग्य ने साथ दिया, तो ये दोनों भाई अवश्य ठीक हो जाएँगे।”
ऐसा कहकर विभीषण ने जल से भीगे हाथों से सुग्रीव के आँसू पोंछ दिये। तब सुग्रीव का मन कुछ शांत हुआ।
विभीषण ने आगे कहा, “वानरराज! यह घबराने का समय नहीं है। घबराहट से सब काम बिगड़ जाते हैं। घबराहट को छोड़कर इस समय हमें सेना को संभालना चाहिए और इन दोनों भाइयों की रक्षा करनी चाहिए। देखो, ये सब वानर घबरा गए हैं और आपस में कानाफूसी कर रहे हैं। मैं जाकर इन्हें समझाता हूँ, तुम इन दोनों भाइयों की रक्षा का ध्यान रखो।”
यह कहकर विभीषण वानर सेना को समझाने चला गया और सब प्रमुख वानर श्रीराम व लक्ष्मण को चारों ओर से घेरकर उनकी रक्षा के लिए पहरा देने लगे। थोड़ी भी आहट होते ही वे चौंक उठते थे कि कहीं इन्द्रजीत तो नहीं आ गया।
श्रीराम और लक्ष्मण को इस प्रकार भूमि पर पड़ा देखकर मेघनाद ने उन्हें मृत मान लिया और वह अपनी सेना के साथ लंका वापस लौट गया। अपने पिता निशाचर रावण के पास जाकर उसने राम-लक्ष्मण के मारे जाने का प्रिय समाचार सुनाया। यह सुनकर रावण हर्ष से उछल पड़ा व उसने अपने इस पराक्रमी पुत्र को गले से लगा लिया। फिर उसने घटना का पूरा वर्णन पूछा। इन्द्रजीत से पूरी घटना सुनने के बाद वह और भी अधिक प्रसन्न हो गया। उसकी सारी व्याकुलता दूर हो गई। उसने अपने इस पुत्र की अत्यंत प्रशंसा करके उसे विदा किया।
उसके जाते ही रावण ने सीताजी की रक्षा करने वाली त्रिजटा व अन्य राक्षसियों को बुलवाकर उनसे कहा, “राक्षसियों! तुम लोग जाकर सीता से बताओ कि इन्द्रजीत ने राम और लक्ष्मण को मार डाला। फिर उसे पुष्पक विमान पर बिठाकर रणभूमि में ले जाओ व उन दोनों मरे हुए भाइयों के शव दिखा दो। जिनके भरोसे सीता आज तक मुझसे दूर थी, अब उनकी मृत्यु के बाद उसकी आशा समाप्त हो जाएगी और वह स्वयं ही चलकर मेरे पास आ जाएगी।”
राक्षसियों ने रावण की आज्ञा का पालन किया और सीता को पुष्पक-विमान पर बिठाकर पूरी लंका दिखाई। त्रिजटा के साथ उस विमान में बैठी हुई सीता ने युद्धभूमि में वानरों की मृत सेना को भी देखा। उन्हें बाणों की शय्या पर सोये हुए दोनों भाई भी दिखाई पड़े। उन दोनों के कवच टूट गए थे, धनुष-बाण इधर-उधर पड़े हुए थे और सायकों से सारा शरीर छलनी हो गया था। सब वानर उनके चारों और अत्यंत दुःखी होकर खड़े थे।
यह भीषण दृश्य देखकर सीता का धैर्य टूट गया और वे फूट-फूटकर रोते हुए कहने लगीं, “सामुद्रिक लक्षणों को जानने वाले विद्वानों ने मुझे पुत्रवती बताया था। लक्षणवेत्ता पुरुषों ने मुझे यज्ञपरायण व राजाधिराज की पत्नी कहा था। ज्योतिष के विद्वानों ने मेरे पति के राज्याभिषेक की भविष्यवाणी की थी। उन सबकी बातें आज झूठी हो गईं। मेरे शरीर में स्त्रियों के सारे शुभ-लक्षण विद्यमान हैं, किन्तु वे सब आज निष्फल हो गए। इन दोनों भाइयों ने मेरे लिए जनस्थान को छान डाला, विशाल समुद्र को भी पार कर लिया, किन्तु हाय! इतने सब कर लेने के बाद भी वे राक्षस-सेना के हाथों मारे गए। ये दोनों तो वरुण, आग्नेय, ऐन्द्र, वायव्य एवं ब्रह्मशिर आदि सब अस्त्रों को जानते थे। उन्होंने मरने से पहले इन अस्त्रों का प्रयोग क्यों नहीं किया? सत्य ही है कि काल के आगे सब विवश होते हैं।”
सीता की ऐसी बातें सुनकर राक्षसी त्रिजटा ने उन्हें समझाते हुए कहा, “देवी! विषाद न करो। सेनापति के मारे जाने पर सारी सेना में घबराहट मच जाती है, किन्तु वानर-सेना में कोई घबराहट या उद्वेग नहीं है। सब वानर एकजुट होकर दोनों राजकुमारों की रक्षा कर रहे हैं। बाणों से अचेत होने पर भी इन दोनों भाइयों के शरीर की कान्ति नष्ट नहीं हुई है। उनके मुख पर भी कोई विकृति नहीं है। इन सब लक्षणों से स्पष्ट है कि तुम्हारे पतिदेव जीवित हैं। तुम्हारे शील-स्वभाव और निर्मल चरित्र के कारण तुम मेरे मन में घर कर गई हो। इसीलिए मैं स्नेहवश तुमसे यह सब कह रही हूँ। तुम अपने शोक और दुःख को त्याग दो। ये दोनों भाई मर नहीं सकते।”
त्रिजटा की इन बातों को सुनकर सीता को सांत्वना मिली। फिर पुष्पक विमान उन दोनों को लेकर लंका वापस लौट गया और विमान से उतरने पर राक्षसियों ने पुनः सीता को अशोक वाटिका में पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर सीता उन दोनों का स्मरण करके पुनः शोक में डूब गईं।
उधर युद्ध-भूमि में बहुत देर बाद श्रीराम की मूर्छा टूटी और वे जाग गए। अपने प्रिय भाई को बाणों से घायल होकर भूमि पर खून से लथपथ पड़ा देख वे अत्यंत व्यथित होकर विलाप करने लगे, “हाय! आज मैं अपने पराजित भाई को इस प्रकार युद्ध-स्थल में पड़ा हुआ देख रहा हूँ। अब यदि सीता मुझे मिल भी गई, तो मैं प्रसन्न नहीं हो सकता। लक्ष्मण जैसा भाई मिलना असंभव है। यदि लक्ष्मण जीवित न रहा, तो मैं भी अपने प्राण त्याग दूँगा। मुझे जैसे दुष्कर्मी व अनार्य को धिक्कार है कि मेरे कारण आज लक्ष्मण इस प्रकार बाणों की शय्या पर पड़ा है।”
“जब मैं विषाद में डूब जाता था, तो लक्ष्मण ही मुझे सांत्वना देता था। अत्यंत कुपित होने पर भी इसने कभी मुझसे कोई कठोर या अप्रिय बात नहीं कही। मेरा यह भाई इतना वीर था कि एक ही बार में पाँच सौ बाण चला सकता था। वही आज यहाँ बाणों की शय्या पर लेटा हुआ है। जिस प्रकार लक्ष्मण मेरे पीछे-पीछे वन में चला आया था, उसी प्रकार अब मैं भी उसके पीछे-पीछे यमलोक को चला जाऊँगा।”
“मुझे यह दुःख सदा जलाता रहेगा कि विभीषण को राक्षसों का राजा बनाने की बात मैं पूरी नहीं कर सका। मित्र सुग्रीव! अब तुम अपनी सेना सहित यहाँ से लौट जाओ क्योंकि मेरे बिना तुम्हें असहाय समझकर रावण तुम्हारा तिरस्कार करेगा। नल, नील, अंगद, जाम्बवान, गवाक्ष, मैन्द, द्विविद, शरभ, गज आदि सब वानरों ने मेरे लिए अपना महान पराक्रम दिखाया और प्राणों का मोह त्यागकर घनघोर युद्ध किया। परन्तु भाग्य के लिखे को मिटाना असंभव है। मेरे लिए जो कुछ हो सकता था, वह सब तुम लोगों ने किया है। अब जहाँ इच्छा हो, वहाँ तुम सब चले जाओ। यह मेरी आज्ञा है।”
श्रीराम का ऐसा विलाप सुनकर सब वानर दुःख से आँसू बहाने लगे।
वानर-सेना का निरीक्षण करने गया विभीषण भी तब तक अपना कार्य पूरा करके हाथ में गदा लिए हुए वापस लौट आया। उसे आता देखकर सब वानर उसी को इन्द्रजीत समझकर घबराहट में इधर-उधर भागने लगे।
नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
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जय श्री राम