वाल्मीकि रामायण -भाग 49
तब श्रीराम ने सागर से कहा, “वरुणालय! मेरी बात सुनो। मेरा यह बाण खाली नहीं जा सकता। इसलिए पहले यह बताओ कि इसे कहाँ छोड़ा जाए।”
इस पर सागर ने उत्तर दिया, “श्रीराम! मेरी उत्तर दिशा की ओर द्रुमकुल्य नामक एक देश है, जहाँ आभीर आदि जातियों के मनुष्य निवास करते हैं। उनका रूप और कर्म दोनों ही बड़ा भयानक है। वे सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं, जिससे उन पापियों का स्पर्श मुझे भी सहना पड़ता है। इसलिए आप अपना बाण वहीं छोड़ दीजिए।”
यह सुनकर श्रीराम ने उसी देश की ओर अपना वह प्रज्वलित बाण छोड़ दिया। वह बाण जहाँ जाकर गिरा, वह स्थान एक दुर्गम मरुस्थल बन गया। तब से वह स्थान मरुकान्तार के नाम से जाना जाने लगा।
इसके पश्चात सागर बोला, “श्रीराम! आपकी सेना में यह जो नल नामक वानर है, यह साक्षात् विश्वकर्मा का पुत्र है। यह शिल्पकला में उन्हीं के समान निपुण है। यह मेरे ऊपर पुल बनाए, तो मैं उसे धारण करूँगा।”
इतना कहकर सागर अदृश्य हो गया।
तब नल ने आकर श्रीराम से कहा, “प्रभु! मैं बिना पूछे स्वयं ही अपने गुणों का वर्णन नहीं कर सकता था, इसलिए मैं अभी तक चुप था। इस समुद्र ने ठीक कहा है। मैं विश्वकर्मा का औरस पुत्र हूँ और महासागर पर पुल बनाने में समर्थ हूँ। मैं इस विस्तृत समुद्र पर सेतु का निर्माण करूँगा। सब वानर आज ही पुल-निर्माण का कार्य आरंभ कर दें।”
तब श्रीराम की आज्ञा से बड़े-बड़े सैकड़ों वानर जंगल में घुस गए। वहाँ से वे पर्वत की चट्टानों व वृक्षों को तोड़कर समुद्रतट पर खींचकर लाने लगे। साल, अश्वकर्ण, धव, बाँस, कुटज, अर्जुन, ताल, तिलक, तिनिश, बेल, छितवन, कनेर, आम, अनार की झाड़ियों, ताड़, नारियल, बहेड़े, करीर, बकुल, नीम और अशोक आदि वृक्षों से वे समुद्र को पाटने लगे।
सबसे पहले वे लोग विभिन्न यन्त्रों की सहायता से बड़ी-बड़ी शिलाओं को लाकर समुद्र में फेंकते थे। तब समुद्र का जल सहसा आकाश में उछल जाता था और फिर नीचे गिरता था। उन सब पत्थरों को फेंककर उन्होंने समुद्र में हलचल मचा दी।
कुछ वानर लंबा सूत पकड़े हुए थे, कुछ ने नापने के लिए डंडे पकड़ रखे थे और कुछ वानर सामग्री जुटा रहे थे। नीचे पत्थर और उसके ऊपर काष्ठ रखकर उन्होंने पाँच दिनों में सौ योजन लंबा पुल बना दिया। उसकी चौड़ाई दस योजन थी। अंतरिक्ष में आकाशगंगा जिस प्रकार दिखाई देती है, समुद्र में वह सेतु भी उसी प्रकार दिखाई देता था।
असंभव लगने वाला वह कार्य साकार हो जाने से सभी लोग अत्यंत प्रसन्न हुए। वानर उछल-कूदकर गर्जना करते हुए उस रोमांचकारी, अद्भुत सेतु को देख रहे थे। उस सेतु की रक्षा के लिए विभीषण हाथ में गदा लेकर अपने सचिवों के साथ समुद्र के उस पार जाकर खड़े हो गए, ताकि कोई राक्षस यदि उसे पुल को तोड़ने आए, तो उसे रोका जा सके।
तब वानर सेना ने सेतु को पार करना आरंभ किया। सबसे आगे श्रीराम, लक्ष्मण और सुग्रीव चल रहे थे। अन्य वानर उनके पीछे थे। कई वानर तो जल में कूद पड़े और पुल के किनारे-किनारे तैरते हुए बढ़ने लगे। कुछ पुल पर चलने लगे और कुछ आकाश में उछलकर आगे बढ़े। इस प्रकार नल के बनाए हुए उस सेतु पर चलकर पूरी वानर सेना सागर के उस पार पहुँचने लगी। फल-मूल, जल आदि की समुचित व्यवस्था देखकर सुग्रीव ने सेना को पड़ाव डालने का आदेश दिया।
कुछ समय बाद श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! हमें अपनी सेना को व्यूहबद्ध करके अनेक समूहों में बाँट देना चाहिए तथा इसकी रक्षा में सदा सतर्क रहना चाहिए। मुझे अनेक अपशकुन दिखाई दे रहे हैं, जो रीछों, वानरों व राक्षसों के विनाश के सूचक हैं।”
“धूल से भरी हुई प्रचण्ड वायु चल रही है। धरती काँपती है। पर्वतों के शिखर हिल रहे हैं। पेड़ गिर रहे हैं। मेघों की घटा घिर आई है। वे मेघ दिखने में बड़े भयंकर हैं व उनकी गर्जना भी बड़ी भीषण है। वे रक्त से मिले हुए जल की वर्षा करते हैं। सूर्य से आग की ज्वालाएँ टूट-टूटकर गिर रही हैं। क्रूर पशु और पक्षी सूर्य की ओर मुँह करके दीनतापूर्वक चीत्कार कर रहे हैं।”
“चंद्रमा भी रात में पूर्ण प्रकाशित नहीं होता है और अपने स्वभाव के विपरीत वह तप रहा है। उसकी किरणें भी इस प्रकार लाल दिखाई दे रही हैं, मानो प्रलय का काल आ गया हो। निर्मल सूर्यमण्डल में नीला चिह्न दिखाई दे रहा है। सूर्य के चारों ओर एक छोटा, रुखा, अशुभ तथा लाल घेरा दिखाई दे रहा है। तारे धूल से ढक गए हैं। कौए, बाज तथा अधम गीध चारों ओर उड़ रहे हैं। सियारिनें अशुभ स्वर में चिल्ला रही हैं। ऐसा लगता है कि वानरों एवं राक्षसों के इस युद्ध में यह सारी भूमि शिलाओं, शूलों व तलवारों से पट जाएगी तथा यहाँ मांस व रक्त का कीचड़ जम जाएगा। हम लोगों को यथाशीघ्र आज ही धावा बोल देना चाहिए।”
ऐसा कहकर भगवान श्रीराम ने हाथ में धनुष लेकर लंका की ओर प्रस्थान किया। उनके पीछे-पीछे विभीषण, सुग्रीव तथा अन्य वानर भी आगे बढ़े। लंका के निकट पहुँचने पर उन वानरों को भारी कोलाहल सुनाई पड़ा। भेरी और मृदंग की ध्वनि के साथ वह और अधिक रोमांचक तथा भयंकर लग रहा था। उसे सुनकर वानर भी उत्साह में भरकर उससे भी ऊँचे स्वर में जोर-जोर से गर्जना करने लगे। वानरों की वह गर्जना राक्षसों ने भी सुनी।
श्रीराम ने युद्ध के नियमों के अनुसार सेना का विभाजन किया था। उन्होंने अंगद तथा नील को आदेश दिया कि वे अपनी-अपनी सेनाओं के साथ वे पुरुषव्यूह के हृदय-स्थल में रहें। ऋषभ नामक वानर को अपनी सेना के साथ व्यूह की दाहिनी ओर तथा गन्धमादन की सेना को बायीं ओर रखा गया। लक्ष्मण के साथ श्रीराम उस व्यूह के मस्तक पर खड़े थे। जाम्बवान, सुषेण तथा वेगदर्शी को अपनी-अपनी सेनाओं के साथ सैन्य-व्यूह के बीच में रखा गया। वानरराज सुग्रीव के नेतृत्व वाले सैन्य दल को पीछे की ओर नियुक्त किया गया।
इस प्रकार व्यूहबद्ध सेना अब युद्ध के लिए तैयार हो चुकी थी।
तब श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “हम लोगों ने अपनी-अपनी सेनाओं को भली-भांति विभक्त करके व्यूह बना लिया है। अतः अब इस शुक को छोड़ दिया जाए।”
तद्नुसार रावण के दूत शुक को बन्धनों से मुक्त कर दिया गया।
वानर-सेना से छुटकारा पाते ही भयभीत शुक शीघ्रता से रावण के पास गया। उसे देखकर रावण ने उसका उपहास करते हुए हँसते-हँसते कहा, “ये तुम्हारे दोनों पंख बँधे हुए क्यों हैं? तुम्हें देखकर ऐसा लगता है मानो तुम्हारे पंख नोच लिए गए हों। कहीं तुम उन वानरों के चंगुल में तो नहीं फँस गए थे?
भयभीत शुक ने रावण के पूछने पर इस प्रकार उत्तर दिया, “महाराज! मैंने समुद्र के उस पार पहुँचकर आपका सन्देश बहुत मधुर वाणी में उन लोगों को सुनाया। परन्तु मुझे देखते ही वानर कुपित हो गए व उन्होंने उछलकर मुझे पकड़ लिया। वे मुझे घूँसों से मारने लगे व मेरे पंखों को नोंचने लगे। उनसे यह पूछना भी संभव नहीं था कि ‘मुझे क्यों मार रहे हो’ क्योंकि वे वानर स्वभाव से ही ऐसे क्रोधी हैं कि उनसे बात ही नहीं की जा सकती।”
“राक्षसराज! समुद्र पर सेतु बनाकर श्रीराम इस पार आ चुके हैं। उन्होंने पहले ही विराध, कबन्ध व खर का वध किया है और अन्य राक्षसों को भी वे तिनके के समान तुच्छ समझते हैं। जिस प्रकार देवताओं और दानवों का मेल होना असंभव है, उसी प्रकार वानरों व राक्षसों में भी सन्धि नहीं हो सकती। इससे पहले कि वे लंका की चारदीवारी पर चढ़ जाएँ, आप या तो तुरंत ही सीता को उन्हें लौटा दीजिए अथवा शीघ्र आगे जाकर युद्ध कीजिए।”
शुक की यह बात सुनकर रावण की आँखें क्रोध से लाल हो गईं। उसने गरजते हुए कहा, “यदि देवता, गन्धर्व और दानव भी मुझसे युद्ध करने आ जाएँ, तो भी मैं सीता को नहीं लौटाऊँगा। युद्ध-भूमि में अपने तेजस्वी बाणों से मैं राम के शरीर को लहूलुहान कर डालूँगा और उसकी समस्त वानर-सेना को नष्ट कर दूँगा। इससे पहले कभी राम ने मेरे पराक्रम का सामना नहीं किया है, इसी कारण वह मुझे लड़ने का साहस दिखा रहा है। महासमर में तो स्वयं यमराज भी मेरे आगे नहीं टिक सकते।”
ऐसा कहकर रावण ने अपने दोनों मंत्रियों शुक व सारण से कहा, “राम के द्वारा सागर पर सेतु बना लेना एक अभूतपूर्व कार्य है। इसलिए मुझे अभी भी विश्वास नहीं होता कि समुद्र पर सेतु बनाया जा सकता। तुम दोनों वेश बदलकर वानर-सेना में प्रवेश करो और वहाँ जाकर पता लगाओ कि वानरों की कुल संख्या कितनी है, उनकी शक्ति कैसी है, उनमें मुख्य वानर कौन-कौन से हैं, अगाध सागर में उन लोगों ने पुल कैसे बना लिया, वानरों की छावनी कैसी है, राम-लक्ष्मण के पास कौन-कौन से अस्त्र-शस्त्र हैं, उनका बल-पराक्रम कैसा है, उनकी योजना क्या है? इन सब बातों का तुम पता लगाओ।”
यह आदेश पाकर वे दोनों वानर का रूप धारण करके वानर-सेना में घुस गए। लेकिन उस अपार सेना को देखकर वे भय से काँप उठे। गिनना तो दूर, वे अनुमान भी नहीं लगा पाए कि उन वानरों की संख्या कितनी है। वह वानर-सेना पर्वत-शिखरों पर, झरनों के आसपास, गुफाओं में, सागर किनारे और वनों-उपवनों में भी हर ओर फैली हुई थी। थोड़ी सेना समुद्र को पार कर चुकी थी, कुछ अभी भी पार कर रही थी, और कुछ पार करने की तैयारी कर रही थी।
वानर-सेना का इस प्रकार घूम-घूमकर निरीक्षण कर रहे शुक और सारण को विभीषण ने देखते ही पहचान लिया। उन्हें पकड़कर वह श्रीराम के सामने ले गया। श्रीराम को देखते ही वे दोनों भय से घबराकर हाथ जोड़ते हुए बोले, “रघुनन्दन! हम दोनों को रावण ने भेजा है। हम इस सेना के बारे में सारी आवश्यक जानकारी पाने आए हैं।”
श्रीराम के रक्षा के लिए ये अपने प्राणों की भी चिंता नहीं करते हैं।”
“इस पूरी सेना के बीच वह जो वानर अविचल भाव से खड़ा है, वह उनका राजा सुग्रीव है। वह अपने गले में सौ कमलों वाली सोने की माला पहनता है, जिसमें सदा लक्ष्मी जी निवास करती हैं। देवता और मनुष्य सभी उस माला को पाना चाहते हैं। श्रीराम ने वाली को मारकर किष्किन्धा का राज्य, यह माला और तारा आदि सब-कुछ सुग्रीव को उपलब्ध करवा दिया। अपनी विशाल सेना से घिरा हुआ सुग्रीव भी महान बल व पराक्रम से संपन्न है।”
“महाराज! अब आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे आपकी विजय हो जाए और आपको शत्रुओं के हाथों अपमानित न होना पड़े।”
यह सब सुनकर रावण और क्रोधित हो गया। उसने पुनः शुक और सारण को कड़ी फटकार लगाई। वह बोला, “राजा निग्रह और अनुग्रह (दमन करने और कृपा करने) दोनों में समर्थ होता है। उसके सहारे जीविका चलाने वाले मंत्रियों को ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, जो उसे अप्रिय लगें। जो शत्रु युद्ध के लिए हमारे सामने आए हैं, उनकी प्रशंसा करना तुम लोगों के लिए अत्यंत अनुचित था।”
“तुम्हारी सारी शिक्षा व्यर्थ है क्योंकि तुम लोग राजनीति का सार भी नहीं समझ पाए। तुम लोग केवल अज्ञान का बोझ ढोने वाले मूर्ख हो। तुम लोगों ने पहले मेरी जो सहायता की है, उसी कारण मैं तुम्हें आज जीवित छोड़ रहा हूँ, अन्यथा शत्रु की प्रशंसा करने के कारण तुम केवल मृत्युदंड के योग्य हो। आज से मेरी राजसभा में तुम्हारा प्रवेश वर्जित है। अब तुम दोनों कभी मुझे अपना मुँह न दिखाना।”
यह सब सुनकर वे दोनों बहुत लज्जित हुए और वहाँ से निकल गए।
उनके जाने पर रावण ने अपने पास बैठे हुए महोदर से कहा, “गुप्तचरों को शीघ्र ही मेरे सामने उपस्थित होने की आज्ञा दो।”
यह आदेश मिलते ही गुप्तचरों को बुलवाया गया। वे आए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए। रावण ने उनसे कहा, “तुम लोग अभी यहाँ से जाओ और राम की योजना का पता लगाओ। उसकी गुप्त-मंत्रणा में किस-किस को बुलाया जाता है, कौन उसके अंतरंग मंत्री हैं, कौन-कौन उससे मिल गए हैं, कौन उसके मित्र बन गए हैं, उन सबकी क्या योजना है, वे लोग कैसे सोते हैं, किस प्रकार जागते हैं, आज वे क्या करने वाले हैं, यह सब पता लगाकर शीघ्र लौटो।”
आज्ञा पाते ही वे गुप्तचर रावण की परिक्रमा करके वहाँ से निकले व शार्दूल के नेतृत्व में सुवेल पर्वत के निकट छिपकर श्रीराम, लक्ष्मण सुग्रीव और विभीषण को देखने लगे। उस विशाल वानर-सेना को देखकर वे भय से व्याकुल हो गए। तभी अचानक विभीषण ने उन सब राक्षस गुप्तचरों को देख लिया। उसने उन सबको फटकार लगाई और सबसे दुष्ट समझकर अकेले शार्दूल को ही पकड़ लिया। सब वानर उसे पीटने लगे, पर दया करके श्रीराम ने उन सब को छोड़ दिया।
वे सब राक्षस अपने प्राण बचाकर वहाँ से भागे और हाँफते हुए रावण के पास वापस पहुँचे। फिर उन्होंने रावण को सूचना दी कि “श्रीराम की अजेय सेना सुवेल पर्वत के पास आकर ठहरी है।
फिर शार्दूल आगे बोला, “महाराज! उन श्रेष्ठ वानरों की गतिविधि का पता गुप्तचरों द्वारा नहीं लगाया जा सकता। वे बड़े पराक्रमी तथा बलवान हैं। उनकी सेना में घुसना भी असंभव है क्योंकि अनेक विशालकाय वानर उसकी रक्षा करते हैं। जैसे ही मैंने सेना में घुसने का प्रयास किया, विभीषण के साथी राक्षसों ने मुझे पकड़ लिया और वानरों ने घुटनों, मुक्कों, दाँतों व थप्पड़ों से मारते हुए मुझे इधर-उधर बहुत देर तक घुमाया।”
“मेरे शरीर से खून निकलने लगा, मैं व्याकुल हो गया, मेरी इन्द्रियाँ विचलित होने लगीं और मैं हाथ जोड़कर अपनी रक्षा की याचना करता रहा। फिर वे लोग मुझे श्रीराम के सामने ले गए। वहाँ मेरी दशा देखते ही श्रीराम ने ‘मत मारो, मत मारो’ कहकर उन वानरों को रोका और मेरी रक्षा की।”
“श्रीराम अपनी सेना का गरुड़ व्यूह बनाकर लंका की ओर बढ़ रहे हैं। इससे पहले कि वे लंका के परकोटे तक पहुँचें, आप या तो सीता को उन्हें लौटा दीजिए या युद्ध में आगे बढ़कर उनका सामना कीजिए।”
यह सुनकर रावण ने पुनः दोहराया कि “मैं सीता को कभी नहीं लौटाऊँगा।”
तब रावण ने फिर एक बार शार्दूल से वानर-सेना के मुख्य वीरों के बारे में पूछा तथा शार्दूल ने भी उसे जाम्बवान, धूम्र, हनुमान जी, सुषेण, दधिमुख, सुमुख, दुर्मुख, वेगदर्शी, नील, नल, अंगद, मैन्द, द्विविद, गज, गवाक्ष, गवय, शरभ, गन्धमादन, श्वेत, ज्योतिर्मुख, हेमकूट, श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव आदि के बारे में लगभग वही सब बताया, जो पहले शुक और सारण ने कहा था।
अब रावण बहुत चिंतित हो गया। उसने तुरंत अपने मंत्रियों को गुप्त-मंत्रणा के लिए बुलवाया और उन सबके साथ विचार-विमर्श करके उन्हें वापस भेज दिया।
इसके बाद विद्युज्जिह्व को साथ लेकर वह उसी प्रमदावन (अशोक-वाटिका) में पहुँचा, जहाँ सीता विद्यमान थीं। विद्युज्जिह्व मायाविशारद था। रावण ने उससे कहा, “निशाचर! हम दोनों अब माया के द्वारा सीता को भ्रमित करेंगे।
यह सुनकर श्रीराम ने हँसते हुए कहा, “यदि तुमने सारी सेना को देखकर हमारी सैन्य-शक्ति का अनुमान लगा लिया हो, तो अब तुम प्रसन्नतापूर्वक वापस लौट जाओ। तुम दोनों शस्त्रहीन अवस्था में पकड़े गए दूत हो, अतः तुम वध के योग्य नहीं हो। इसलिए तुम भयभीत न हो।”
“अब तुम वापस लौटकर रावण को मेरा यह सन्देश सुना देना कि ‘कल प्रातःकाल ही मेरे बाणों से लंकापुरी का तथा अपनी राक्षसी सेना का विनाश होता हुआ तुम देखोगे। जिस बल के भरोसे तुमने मेरी सीता का अपहरण किया है, अब आकर तुम अपना वह बल दिखाओ।’”
फिर श्रीराम ने विभीषण से कहा, “रावण के ये दोनों गुप्तचर छिपकर यहाँ का भेद जानने आए हैं। ये हमारी सेना में फूट डालने का प्रयास कर रहे हैं। परन्तु अब तो इनका भेद ही खुल गया है, अतः तुम अब इन्हें छोड़ दो।”
तब मुक्त हो जाने पर शुक और सारण श्रीराम की जय जयकार करते हुए वहाँ से भागे और रावण के पास पहुँचकर उससे बोले, “राक्षसेश्वर! हमें तो विभीषण ने वध करने के लिए पकड़ लिया था, किन्तु महापराक्रमी श्रीराम की कृपा से हम जीवित बच गए। श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव तथा विभीषण चारों ओर ही परम शौर्यशाली, दृढ़ पराक्रमी तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता हैं। उनकी विजय निश्चित है। वे चारों तो वानर-सेना के बिना ही इस पूरी लंका को नष्ट कर सकते हैं। उन तीनों के बिना भी श्रीराम अकेले ही अपने तीव्र अस्त्र-शस्त्रों से लंका का विनाश कर डालेंगे। सारे वानर भी इस समय युद्ध करने के लिए अत्यधिक उत्सुक हैं। उनकी सेना से लड़कर आपको कोई लाभ नहीं होगा। इसलिए यही अच्छा है कि आप उनसे संधि कर लीजिए और सीता को श्रीराम के पास वापस लौटा दीजिए।”
यह सुनते ही रावण फिर क्रोधित हो गया। वे आवेश में भरकर उन दोनों से बोला, “ऐसा लगता है कि उन वानरों ने तुम्हें बहुत तंग किया है। इसी कारण भयभीत होकर तुम सीता की लौटाने की बात कर रहे हो। मैं सीता को कभी नहीं लौटाऊँगा। ऐसा कोई नहीं है, जो समरभूमि में मेरा सामना कर सके।”
ऐसा कहकर रावण उस वानर सेना का निरीक्षण करने के लिए अपनी ऊँची अट्टालिका पर चढ़ गया। वे दोनों गुप्तचर भी उसके पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गए। तब वानरों की उस अपार सेना को देखकर रावण ने सारण से पूछा, “सारण! इनमें से कौन-कौन से वानर मुख्य हैं? इनमें से कौन-कौन अधिक शूरवीर हैं?”
इस पर सारण ने उत्तर दिया, “महाराज! यह जो लंका की ओर मुख करके गरजता हुआ खड़ा है, इसका नाम नील है। यह बड़ा वीर है। वह जो दूसरा वानर अपनी दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर क्रोध से इधर-उधर टहल रहा है, वह वाली का पुत्र अगंद है। सुग्रीव ने उसे युवराज बनाया है। अंगद के पीछे जो खड़ा है, उसका नाम नल है। उसी ने समुद्र पर सेतु बनाया था। वह जो चाँदी के समान सफेद रंग का चंचल वानर दिखाई दे रहा है, उसका नाम श्वेत है। वह भयंकर पराक्रमी और बुद्धिमान है। उसके पीछे कुमुद, चण्ड, रम्भ, शरभ,पनस, विनत, क्रोधन, गवय आदि वानर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिए उत्तेजित होकर ललकार रहे हैं।”
“इस ओर हर नामक वानर है। उधर जो नीले व काले रंग वाले हजारों रीछ खड़े हैं, उनके बीच खड़ा वह धूम्र उनका राजा है। उस धूम्र का छोटा भाई जाम्बवान है, जिसने देवासुर संग्राम में इन्द्र की सहायता की थी। उस ओर दम्भ, संनादन, क्रथन, प्रमाथी, गवाक्ष, शतबलि आदि अनेक बड़े-बड़े वानरवीर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिए तैयार दिखाई दे रहे हैं। इनके अतिरिक्त और भी अन्य अनेक वानरवीर हैं, किन्तु इस सेना की इतनी बड़ी संख्या के कारण उन सबको पहचाना नहीं जा सकता।”
इतना कहकर सारण चुप हो गया। तब शुक ने आगे कहा, “राजन्! वे जो देवताओं के समान दिखने वाले दो वानर खड़े हैं, वे मैन्द तथा द्विविद हैं। युद्ध में कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता। इस ओर जो वानर वीर खड़ा दिखाई दे रहा है, वह केसरी का पुत्र है, जो पवनपुत्र और हनुमान भी कहलाता है। यही वानर पहले भी समुद्र को लाँघकर लंका में घुस आया था और सीता से भी मिलकर लौटा था। इस वानर की किसी से कोई तुलना नहीं है। यह तीव्र गति से कहीं भी जा सकता है और कोई भी रूप धारण कर सकता है। इसके समान वीर वानर तीनों लोकों में कोई नहीं है। इसके बल, रूप और प्रभाव का वर्णन करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।”
“उसके पास ही जो कमल जैसे सुन्दर नयनों वाले साँवले रंग के वीर पुरुष दिखाई दे रहे हैं, वे इक्ष्वाकुवंश के श्रीराम हैं, जिनकी भार्या सीता को आप जनस्थान से उठा लाए हैं। श्रीराम को समस्त वेदों का ज्ञान है और वे कभी भी धर्म का उल्लंघन नहीं करते हैं। वे ब्रह्मास्त्र सहित सभी अस्त्रों के भी ज्ञाता हैं। उनका क्रोध मृत्यु के समान व उनका पराक्रम इन्द्र के समान है। उनकी दाहिनी ओर जो घुँघराले केश वाले राजकुमार खड़े हैं, उनका नाम लक्ष्मण है। वे अपने भाई के प्रिय हैं तथा सदा भाई के हित में ही कार्य करते हैं। वे राजनीति व युद्ध में कुशल हैं तथा सभी धनुर्धारियों में सर्वश्रेष्ठ हैं।
तुम अपनी माया से राम का सिर बनाओ और एक विशाल धनुष-बाण साथ लेकर मेरे पास आओ।”
आज्ञा पाते ही विद्युज्जिह्व ने अपनी कुशलता से श्रीराम जैसा दिखने वाला एक नकली सिर बना दिया। उसे देखते ही रावण ने प्रसन्न होकर विद्युज्जिह्व को पुरस्कार में अपना एक आभूषण उतारकर दे दिया। फिर वह सीता को देखने के लिए अशोक वाटिका में गया। सीता जी सिर नीचा करके वहाँ भूमि पर शोकमग्न बैठी हुई थीं और अपने पति का स्मरण कर रही थीं।
सीता के पास पहुँचकर रावण ने बड़े हर्ष से कहा, “जिस राम के आने की आशा में तुम बैठी हुई थीं, वह युद्धभूमि में आज मारा गया। अब तुम उस मृतक राम का स्मरण करना छोड़ दो और मेरी भार्या बन जाओ। सुग्रीव के साथ राम समुद्र तट तक चला आया था। आधी रात को जब वे सब लोग सो गए, तो मेरे गुप्तचरों ने सेना का भली-भाँति निरीक्षण किया और फिर मेरे राक्षस सैनिकों ने पट्टिश, परिघ, चक्र, ऋष्टि, दण्ड, त्रिशूल, कूट, मुद्गर, तोमर, मूसल आदि से वानरों पर प्रहार करके पूरी वानर-सेना को नष्ट कर दिया। फिर प्रहस्त ने अपने सधे हुए हाथों से तलवार के एक झटके में ही राम का सिर काट डाला।”
“सुग्रीव और हनुमान को भी मेरे राक्षसों ने मार डाला। लक्ष्मण और विभीषण अपने प्राण बचाकर इधर-उधर भाग गए। जाम्बवान के दोनों घुटनों पर ऐसा प्रहार हुआ कि वह धराशायी हो गया। मैन्द, द्विविद, पनस, अंगद आदि सब वानर घायल होकर भूमि पर खून से लथपथ पड़े हुए हैं।”
सीता से ऐसा कहकर रावण ने अपनी एक राक्षसी से कहा, “तुम क्रूरकर्मा विद्युज्जिह्व को बुला लाओ, जो युद्ध-भूमि से राम का सिर लेकर आया है।”
अगले ही क्षण विद्युज्जिह्व एक धनुष तथा श्रीराम का नकली सिर लेकर वहाँ आया। रावण ने उससे कहा, “तुम राम का मस्तक शीघ्र ही सीता के आगे रख दो, ताकि यह बेचारी अपने पति का अंतिम दर्शन कर सके।”
इसके बाद रावण सीता से बोला, “सीते! यही तुम्हारे राम का धनुष है। अब तुम अपने पति को अंतिम बार देख लो और फिर मेरी बात मानकर मेरे साथ चलो।”
श्रीराम का वह कटा हुआ सिर देखकर सीता जी अत्यंत दुःखी होकर विलाप करने लगीं और रोते-रोते कैकेयी की निन्दा करने लगीं कि ‘उसी के कारण श्रीराम को वनवास हुआ और अब उनकी मृत्यु हो गई।’
वे दुःख से कातर होकर श्रीराम के उस कटे हुए सिर को देखकर कहने लगीं, “आपने तो मेरा पाणिग्रहण करते समय प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं सदा तुम्हारे साथ रहकर धर्म का पालन करूँगा’, फिर आप किस प्रकार मुझे अकेला छोड़कर चले गए? ज्योतिषियों ने तो आपकी आयु बहुत लंबी बताई थी, किन्तु उनकी बात झूठी हो गई। आप तो सब प्रकार के संकटों से बचने के उपाय जानते थे, फिर किस प्रकार आप सोते समय शत्रु के हाथों मारे गए? अब लक्ष्मण जी अकेले ही अयोध्या लौट पाएँगे। जब शोकाकुल माता कौसल्या को पता चलेगा कि महापराक्रमी श्रीराम सोते समय ही युद्ध के बिना मारे गए तथा मैं हरण करके राक्षस के घर में लाई गई हूँ, तो उनका हृदय शोक से विदीर्ण हो जाएगा। हाय! श्रीराम ने मुझ जैसी कुल कलंकिणी से विवाह किया और मैं उनकी मृत्यु का कारण बन गई। निष्पाप श्रीराम मेरे कारण मारे गए।’
फिर सीता ने रावण से कहा, “रावण! तुम मेरा भी वध कर डालो और मुझे भी श्रीराम से मिला दो।”
सीता इस प्रकार विलाप कर रही थीं कि तभी रावण की सेना के एक राक्षस ने आकर सूचना दी कि “महाराज! किसी अत्यंत आवश्यक राजकीय कार्य के कारण सेनापति प्रहस्त आपसे मिलने के लिए पधारे हैं।”
उसकी बात सुनकर रावण अपने सेनापति से मिलने के लिए अशोक वाटिका से चला गया। उसके जाते ही श्रीराम का वह नकली सिर और वह धनुष दोनों ही अदृश्य हो गए।
जब रावण वहाँ से चला गया, तो सरमा नाम की एक राक्षसी तुरन्त ही सीता जी के पास आ गई और उन्हें सांत्वना देने लगी। वह सीता की रक्षा में नियुक्त थी और इतने दिनों में सीता से उसकी मित्रता हो गई थी।
धूल में लोटती और रोती हुई सीता को सरमा ने समझाया, “सखी! तुम धैर्य धारण करो। श्रीराम का इस प्रकार वध करना किसी के लिए भी संभव नहीं है। मैंने तुम्हारी और रावण की सब बातें सुनी हैं। उस दुष्टबुद्धि रावण ने तुम्हें भ्रम में डालने के लिए ही माया से वह धनुष और मस्तक रचा था।”
“मैंने स्वयं समुद्र तट पर ठहरी हुई सेना के बीच श्रीराम और लक्ष्मण को देखा है। वे सर्वथा सुरक्षित हैं। इसी कारण प्रहस्त के आते ही रावण घबराकर शीघ्र यहाँ से चला गया क्योंकि बहुत विशाल सेना को लेकर श्रीराम यहाँ आ पहुँचे हैं और रावण के सभी दूतों ने उसे यही समाचार दिया है कि वानर-सेना से जीतना असंभव है। इसी कारण रावण अब अपने मंत्रियों के साथ गुप्त परामर्श करने गया है।”
जब सरमा यह सब बता ही रही थी कि तभी उन दोनों ने युद्ध के लिए उद्यत सैनिकों की रणभेरी का भीषण नाद सुना। उन्हें सैनिकों के अस्त्र-शस्त्रों, हाथियों के गले में बजते घण्टों, रथों की घरघराहट, घोड़ों की हिनहिनाहट और भाँति-भाँति के बाजों के स्वर सुनाई पड़ रहे थे।
तब सरमा पुनः बोली कि “सीता! तुम्हारे दुःख के दिन अब शीघ्र ही समाप्त होने वाले हैं। अतः अब तुम शोक न करो। युद्ध की तैयारी हो चुकी है। रथों में घोड़े जोते जा रहे हैं, हजारों घुड़सवार हाथ में भाला लेकर निकल चुके हैं। नगर में सर्वत्र युद्ध के लिए सन्नद्ध सैनिक दिखाई पड़ रहे हैं। अब समरभूमि में रावण का वध करके शीघ्र ही श्रीराम तुमसे मिलेंगे। यदि तुम कहो, तो मैं गुप्त रूप से श्रीराम के पास जाकर तुम्हारा सन्देश उन तक पहुँचा दूँगी तथा उनका सन्देश तुम्हारे लिए ले आऊँगी।”
यह सब सुनकर सीता जी को कुछ सांत्वना मिली। उन्होंने कहा, “सरमे! यदि तुम मुझे प्रसन्न करना चाहती हो, तो तुम जाकर यह पता लगाओ कि रावण यहाँ से निकलकर कहाँ गया है और अब आगे क्या योजना बना रहा है।”
तब सरमा इन बातों का पता लगाने के लिए वहाँ से चली गई।
उधर अशोक वाटिका से निकलकर रावण अपने सभा भवन में गया। सब मंत्रियों से अपनी हाँ में हाँ मिलवाकर उसने सेनापति से कहा, “तुम लोग शीघ्र ही डंडे से पीट-पीटकर धौंसा बजाते हुए सब सैनिकों को एकत्र करो, किन्तु उन्हें इस बात का कारण मत बताना।”
तब रावण की आज्ञा के अनुसार उसके दूतों ने एक विशाल सेना वहाँ एकत्र कर दी।
उस सभा भवन में चल रहीं सब बातें सरमा ने छिपकर सुन ली थीं। उसने लौटकर सीता को बताया कि “विदेहनन्दिनी! राक्षसराज रावण की माता ने तथा उसके एक बूढ़े मन्त्री ने भी उसे समझाया कि ‘तुम सम्मानपूर्वक सीता को श्रीराम के पास वापस भेज दो। जनस्थान में जिस प्रकार श्रीराम ने अकेले ही सहस्त्रों राक्षसों का वध कर डाला था, वह उनके पराक्रम को समझने के लिए पर्याप्त है। उनके एक साधारण सेवक हनुमान ने अकेले ही समुद्र को लाँघकर सीता से भेंट कर ली और युद्ध में अनेकों राक्षसों का संहार करके पूरी लंका को नष्ट कर दिया, ऐसा कार्य और कौन कर सकता है?’”
“लेकिन इतना समझाने पर भी रावण ने उनकी बात नहीं मानी। अवश्य ही उसके सिर पर काल नाच रहा है, इसीलिए उसकी बुद्धि इस प्रकार भ्रष्ट हो गई है। तुम इस बात को निश्चित समझो कि श्रीराम के तीखे बाणों से अब वह युद्ध भूमि में मारा जाएगा।”
ये बातें चल ही रही थीं कि तभी अचानक वानर-सेना की ओर से भी शंखध्वनि तथा भेरी का भीषण नाद सुनाई पड़ने लगा। उसे सुनकर राक्षस सैनिकों में भय व्याप्त हो गया। रावण की मूर्खता के कारण उन्हें अब अपनी रक्षा का कोई उपाय दिखाई नहीं दे रहा था।
उस शंखध्वनि के साथ ही श्रीराम की सेना ने लंका पर आक्रमण कर दिया।
नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
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जय श्री राम
बहुत ही ज्ञानवर्धक जानकारी दी गई है।।।
बहुधा जानकारी रामचरितमानस से अलग है।
हरि अनन्त हरि कथा अनंता
जय सियाराम।।।