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वाल्मीकि रामायण -भाग 48

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वाल्मीकि रामायण -भाग 48

अपने ही मन की बात हनुमान जी के मुख से सुनकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा, “वानरों! विभीषण के विषय में मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ। जो मित्रता की भावना लेकर मेरे पास आया हो, मैं कभी भी उसका त्याग नहीं कर सकता।

यह सुनकर सुग्रीव ने पुनः कहा, “प्रभु! यह दुष्ट हो या सज्जन, किन्तु है तो निशाचर ही! जो पुरुष संकट में पड़े हुए अपने भाई को छोड़ सकता है, उसका कैसे विश्वास करें?”

तब श्रीराम सुग्रीव से बोले, “सुग्रीव! राजाओं के लिए दो प्रकार के भय बताए गए हैं। एक तो स्वजनों से और दूसरा पड़ोसी देशों के निवासियों से। विभीषण को भी अपने स्वजनों से भय है, इसी कारण वह यहाँ आया है। जिन लोगों के मन में पाप नहीं है, वे अपने कुल में जन्मे अन्य लोगों को अपना हितैषी मानते हैं, किन्तु राजा प्रायः अपने ऐसे स्वजनों को भी संदेह की दृष्टि से ही देखते हैं। रावण को भी अब विभीषण पर विश्वास नहीं है। अतः यह कहना उचित नहीं है कि विभीषण ने अपने भाई को त्याग दिया। वह तो केवल अपने प्राण बचाने के लिए यहाँ आया है।

“तुमने यह भी कहा था कि शत्रु सैनिक होने के कारण यह अवसर देखकर हम पर भी प्रहार कर सकता है। तुम्हारी इस शंका का भी मैं निराकरण कर देता हूँ। एक तो हम इसके स्वजन नहीं है, इसलिए इसे हमसे किसी हानि की आशंका नहीं है। दूसरा यह राक्षस हमारी सहायता से राज्य पाने का अभिलाषी है, इस कारण भी यह हमारा त्याग नहीं कर सकता। इन राक्षसों में कुछ लोग बहुत विद्वान भी होते हैं। ऐसे लोगों से मित्रता करने पर हमारा लाभ ही होगा। विभीषण ने शरण पाने के लिए जिस प्रकार हमें पुकारा है, उससे लगता है कि राक्षसों में फूट पड़ गई है तथा वे एक-दूसरे से ही भयभीत हो गए हैं। इसलिए हमें विभीषण को अपने पक्ष में मिला लेना चाहिए।

इस प्रकार की कई बातें समझाकर अंत में श्रीराम ने सुग्रीव से कहा, “सुग्रीव! वह चाहे विभीषण हो या स्वयं रावण ही यहाँ आ गया हो। तुम जाकर उसे ले आओ। मैंने उसे अभयदान दे दिया है।

यह सुनकर सुग्रीव ने हाथ जोड़कर उनकी बात मान ली और तब श्रीराम शीघ्र आगे बढ़कर विभीषण से मिले।

श्रीराम को देखते ही विभीषण व उनके साथी आकाश से पृथ्वी पर उतर आये और उन्होंने श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया। फिर विभीषण ने अपना परिचय देते हुए कहा, “भगवन्! मैं रावण का छोटा भाई विभीषण हूँ। उसने मेरा अपमान किया है। इसलिए मैं आपकी शरण में आया हूँ। अपने सभी मित्र, धन और स्वयं लंकापुरी को भी मैं छोड़ आया हूँ। अब मेरा राज्य, सुख और जीवन सब आपके ही अधीन है।”

यह सुनकर श्रीराम ने प्रेमपूर्वक विभीषण को देखा और उसे सांत्वना देकर आगे कहा, “विभीषण! तुम मुझे राक्षसों का बल ठीक-ठीक बताओ।

 तब विभीषण बोला, “श्रीराम! ब्रह्माजी के वरदान से गन्धर्व, नाग, पक्षी आदि कोई भी रावण को मार नहीं सकते। उसका छोटा व मेरा बड़ा भाई कुम्भकर्ण भी महातेजस्वी और पराक्रमी है। रावण के सेनापति का नाम प्रहस्त है। कैलास पर्वत पर हुए युद्ध में उसने कुबेर के सेनापति मणिभद्र को भी परास्त कर दिया था। महोदर, महापार्श्व तथा अकम्पन भी रावण के तीन अन्य सेनापति हैं। रावण का पुत्र इन्द्रजीत गोहचर्म के बने दस्ताने पहनकर अवध्य कवच धारण करके जब हाथ में धनुष लेकर युद्ध में खड़ा होता है, तो उस समय वह अदृश्य हो जाता है। उसने अग्निदेव को प्रसन्न करके ऐसी शक्ति पा ली है, जिससे वह विशाल चक्रव्यूह वाले संग्राम में अदृश्य होकर शत्रु पर प्रहार करता है। रक्त और मांस का भोजन करने वाले तथा इच्छानुसार रूप धारण कर लेने वाले सहस्त्रों राक्षस लंका में निवास करते हैं। जब उन्हें साथ लेकर रावण ने लोकपालों से युद्ध किया था, तो देवताओं सहित सभी लोकपाल उस दुष्ट रावण से पराजित होकर भाग खड़े हुए थे।

यह सुनकर श्रीराम बोले, “विभीषण! रावण के इन सब पराक्रमों को मैं जानता हूँ। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि प्रहस्त और रावण सहित उसके पुत्रों का भी वध करके मैं तुम्हें लंका का राजा बनाऊँगा। वह रसातल में प्रवेश कर ले या पाताल में अथवा ब्रह्माजी के पास ही क्यों न चला जाए किन्तु अब वह मेरे हाथों से जीवित नहीं बच सकता।

“मैं अपने तीनों भाइयों की सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि युद्ध में पुत्रों, सेवकों तथा समस्त बन्धु-बांधवों सहित रावण का वध किए बिना मैं अयोध्यापुरी में प्रवेश नहीं करूँगा।”

यह सुनकर विभीषण ने उन्हें प्रणाम करके कहा, “प्रभु! राक्षसोंके संहार में तथा लंका को जीतने में मैं प्राणों की बाजी लगाकर भी आपकी सहायता करूँगा।”

इसके बाद श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण से बोले, “सुमित्रानन्दन! तुम समुद्र से जल ले आओ और उसी से इन परम बुद्धिमान राक्षस राज विभीषण का राज्याभिषेक करो। मैं इसी क्षण से इन्हें लंका का राजा घोषित करता हूँ।”

तब लक्ष्मण ने तुरंत ही भाई की आज्ञा का पालन किया और विभीषण का राज्याभिषेक कर दिया गया।

तत्पश्चात हनुमान जी और सुग्रीव ने विभीषण से पूछा, “राक्षसराज! हम लोग अपनी वानर-सेना के साथ इस महासागर को कैसे पार करेंगे? उसका कोई उपाय बताइये।”

इस पर विभीषण ने उत्तर दिया, “श्रीराम को समुद्र की ही शरण लेनी चाहिए। इस अपार महासागर को श्रीराम के ही पूर्वज राजा सगर ने खुदवाया था। अतः समुद्र इनकी सहायता अवश्य करेगा।”

तब तुरंत ही सुग्रीव ने श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाकर उन्हें विभीषण का यह सुझाव बताया। इस पर श्रीराम मुस्कुराकर लक्ष्मण से बोले, “लक्ष्मण! विभीषण की यह बात मुझे भी अच्छी लगती है, किन्तु सुग्रीव राजनीति के जानकार हैं और तुम भी योग्य सलाह देने में समर्थ हो। अतः तुम दोनों इस बारे में ठीक से विचार करके अपना मंतव्य बताओ।”

यह सुनकर सुग्रीव और लक्ष्मण दोनों ने कहा कि हम भी विभीषण की इस बात से सहमत हैं।

उन दोनों के ऐसा कहने पर श्रीराम समुद्र-तट पर कुश बिछाकर उस पर इस प्रकार बैठ गए, जैसे यज्ञवेदी पर अग्निदेव प्रतिष्ठित होते हैं।

इसी बीच दुरात्मा रावण का गुप्तचर शार्दूल राक्षस भी वहाँ आ पहुँचा और सागर-तट पर वानर-सेना की छावनी को देखकर उसने चुपचाप उसका पूरा निरीक्षण किया। इसके बाद वह उसी प्रकार गुप्त रूप से शीघ्र ही लंका की ओर लौट गया।

लंका वापस लौटकर शार्दूल ने रावण को जानकारी दी, “महाराज! वानरों और भालुओं की विशाल सेना के साथ राम और लक्ष्मण दोनों राजकुमार समुद्र के उस पार आकर ठहरे हुए हैं। उनकी विशाल सेना भी समुद्र के समान ही अगाध और असीम है। कृपया विस्तृत जानकारी पाने के लिए आप शीघ्र ही अपने दूतों को वहाँ भेजिए। उसके बाद जैसा भी आप उचित समझें, उसके अनुसार चाहे सीता को उन्हें वापस लौटा दें या सुग्रीव से मीठी-मीठी बातें करके उसे अपने पक्ष में मिला लें अथवा सुग्रीव और राम में फूट डलवा दें।

यह सुनकर रावण व्यग्र हो उठा। उसने शुक नामक एक श्रेष्ठ अर्थवत्ता राक्षस को बुलवाया और उससे कहा, “दूत! तुम शीघ्र वानरराज सुग्रीव के पास जाओ और मीठी वाणी में उन्हें मेरा संदेश दो। उनसे कहना कि ‘वानरराज! आप वानरों के महान कुल में उत्पन्न हुए हैं। मैं आपको अपने भाई के समान समझता हूँ। मैंने आज तक आपको कोई हानि नहीं पहुँचाई है। फिर आप क्यों सेना लेकर मुझ पर आक्रमण करने आ रहे हैं? आप वापस किष्किन्धा को लौट जाइये। लंका में तो देवताओं और गन्धर्वों का प्रवेश भी संभव नहीं है। फिर मनुष्यों या वानरों की तो बात ही क्या है?’”

यह सुनते ही शुक तुरंत वहाँ से निकला और तोते के समान आकाश-मार्ग से उड़कर सुग्रीव के पास जा पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने आकाश में ही रुके रहकर सुग्रीव को यह सन्देश सुनाया। उस समय अनेक वानर उछलकर उसे पकड़ने का प्रयास करने लगे। वे उसके पंख नोच लेना चाहते थे व घूसों से ही उसे मार डालना चाहते थे। इस विचार से उन सबने मिलकर उसे पकड़ लिया और नीचे भूमि पर उतार दिया।

तब पीड़ा से दुःखी होकर शुक अपनी रक्षा के लिए श्रीराम को पुकारता हुआ चिल्लाने लगा, “रघुनन्दन! दूतों का वध नहीं करना चाहिए, अतः आप इन वानरों को रोकिये। जो दूत अपने स्वामी के अभिप्राय को छोड़कर अपना ही विचार बताने लगता है, केवल वही वध के योग्य है। मैं तो केवल अपने स्वामी का सन्देश देने आया हूँ।

यह सुनकर श्रीराम ने शुक को पीटने वाले वानरों को रोक दिया। तब शुक पुनः उड़कर आकाश में रुक गया व उसने सुग्रीव को रावण का सन्देश सुनाया।

वह सन्देश सुनकर सुग्रीव ने भी शुक को रावण के लिए अपना उत्तर बताया, “रावण! तुम न मेरे मित्र हो, न मेरे प्रियजन हो। तुम श्रीराम के शत्रु हो, अतः मेरे लिए भी तुम वध के योग्य हो। मैं तुम्हारे पुत्रों व बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हारा संहार करूँगा तथा लंका को भस्म कर डालूँगा। अब देवता भी तुम्हें श्रीराम से जीवित नहीं बचा सकते। तुमने जटायु को क्यों मारा? छल से तुमने सीता का अपहरण क्यों किया? तुमने अपने विनाश को स्वयं आमंत्रित किया है।”

तभी अंगद ने सुग्रीव से कहा, “महाराज! मुझे तो यह दूत नहीं, कोई गुप्तचर प्रतीत होता है। इसने यहाँ आकाश में खड़े-खड़े आपकी सारी सेना का पूरा-पूरा अनुमान लगा लिया है। अतः मुझे लगता है कि इसे लंका वापस न जाने दिया।”

तब सुग्रीव के आदेश से वानरों ने फिर उछलकर शुक को पकड़कर बाँध दिया। वह घबराकर विलाप करने लगा और सहायता के लिए श्रीराम को पुकारने लगा। उसने कहा, “प्रभु! बलपूर्वक मेरे पंख नोचे जा रहे हैं और आँखें फोड़ी जा रही हैं। यदि आज मेरे प्राण चले गए, तो जिस रात में मेरा जन्म हुआ था, उसी रात में मेरी मृत्यु भी होगी। तब जन्म और मृत्यु के बीच मैंने जो भी पाप किया है, वह सब आपको ही लगेगा।”

उसका विलाप सुनकर श्रीराम ने वानरों से उसे छोड़ने को कह दिया। वह अपने प्राण बचाकर वहाँ से लंका लौट गया।

तत्पश्चात श्रीराम समुद्र के तट पर कुश बिछाकर महासागर के समक्ष हाथ जोड़ पूर्व दिशा की ओर मुँह करके समुद्रतट पर लेट गए। उन्होंने मन ही मन निश्चय किया कि ‘अब या तो मैं समुद्र के पार जाऊँगा अथवा मेरे द्वारा समुद्र का संहार होगा।’ ऐसा निश्चय करके उन्होंने मौन व्रत धारण कर लिया और मन, वचन, कर्म से संयम का पालन करते हुए कुश के उस आसन पर ही सो गए। इस प्रकार तीन रातें बीत गईं, किन्तु श्रीराम के द्वारा विधिपूर्वक उपासना करने के बाद भी समुद्र अपने आधिदैविक रूप में उनके समक्ष प्रकट नहीं हुआ।

तब कुपित होकर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! इस समुद्र को अपने ऊपर बड़ा अहंकार है। सज्जन यदि गुणहीनों के साथ शान्ति, क्षमा, सरलता और मधुर वाणी से व्यवहार करें, तो गुणहीन उस सज्जन मनुष्य को असमर्थ व कायर समझ लेते हैं। जो मनुष्य अपनी ही प्रशंसा करता है, जो दुष्ट, धृष्ट (बद्तमीज, बेशर्म आदि), आक्रामक व कठोर (सबको डराने-धमकाने वाला) होता है, उस मनुष्य का सब लोग सत्कार करते हैं। सामनीति (शान्ति-वार्ता) से इस लोक में न कीर्ति पाई जा सकती है, न यश प्राप्त होता है और न संग्राम में विजय मिलती है।”

“सुमित्रानन्दन! आज मेरे बाणों से सब मगर और मत्स्य खण्ड-खण्ड होकर बहने लगेंगे और उनके शवों से यह समुद्र आच्छादित हो जाएगा। अब तुम देखो कि मैं किस प्रकार इस समुद्र के जल में रहने वाले सर्पों, मत्स्यों व अन्य सब जीवों को नष्ट करता हूँ। मुझे शांत देखकर यह समुद्र मुझे असमर्थ समझ रहा है। धिक्कार है कि मैंने इस मूर्ख के प्रति क्षमा दिखाई। लक्ष्मण! तुम मेरे धनुष-बाण ले आओ। मैं इस समुद्र को अभी सुखा देता हूँ। फिर वानर-सेना पैदल ही लंका तक पहुँच जाएगी।”

कुपित श्रीराम ने यह कहकर अपना धनुष हाथों में ले लिया। वे प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित हो उठे और क्रोध से आँखें फाड़कर समुद्र को देखने लगे। उन्होंने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी और क्रोध में भरकर बड़े भयंकर बाण छोड़े, जो सीधे समुद्र के जल में घुस गए। उन बाणों से समुद्र के जल में भयंकर तूफान उठा। समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठने लगीं और जल के भीतर रहने वाले जीव भय से थर्रा उठे। भीषण कोलाहल मच गया।

रोष से लंबी साँस लेते हुए श्रीराम अपने धनुष को पुनः खींचने लगे। यह देखते ही लक्ष्मण तुरंत उनके पास पहुँचे और ‘बस, बस, अब नहीं, अब नहीं’ कहते हुए उन्होंने श्रीराम का धनुष पकड़ लिया। फिर लक्ष्मण उनसे बोले, “भैया! आप वीर-शिरोमणि हैं। आप जैसे महापुरुष इस प्रकार क्रोध के वशीभूत नहीं होते हैं। समुद्र को नष्ट किए बिना भी आपका कार्य हो जाएगा। आप कोई ऐसा उपाय सोचें, जो दीर्घ-काल तक उपयोगी हो।”

तब श्रीराम ने कठोर शब्दों में समुद्र की ओर देखते हुए कहा, “सागर! मैं आज पाताल सहित तुझे सुखा डालूँगा। तेरे भीतर रहने वाले सब जीव नष्ट हो जाएँगे और केवल बालू रह जाएगी। तब वानर सेना चलकर ही उस पार लंका तक पहुँच जाएगी। तुझे मेरे बल और पराक्रम का ज्ञान नहीं है, किन्तु आज हो जाएगा।”

ऐसा कहकर महाबली श्रीराम ने एक भयंकर बाण को ब्रह्मास्त्र से अभिमंत्रित करके अपने धनुष पर चढ़ाकर खींचा। ऐसा करते ही मानो पृथ्वी और आकाश फटने लगे व पर्वत डगमगा उठे। सारे संसार में अन्धकार छा गया। किसी को दिशाओं का ज्ञान न रहा। नदियों व सरोवरों में हलचल मच गई। सूर्य और चन्द्रमा तिरछी गति से चलने लगे। बहुत तेज गति से हवा बहने लगी। आकाश में सैकड़ों उल्काएँ प्रज्वलित हो गईं तथा भारी गड़गड़ाहट के साथ अंतरिक्ष से वज्रपात होने लगा। सब प्राणी भयभीत होकर चीत्कार करने लगे। इन सब हलचलों से समुद्र का वेग सहसा भयानक हो उठा और वह अपनी मर्यादा लाँघकर तट से एक योजन भीतर तक आगे बढ़ गया। फिर भी श्रीराम अपने स्थान से पीछे नहीं हटे।

तब समुद्र के बीच से सागर स्वयं प्रकट हुआ। उसका रंग वैदूर्यमणि के समान श्याम था। उसने स्वर्ण के आभूषण, लाल फूलों की माला तथा लाल वस्त्र धारण किए हुए थे। अपने सिर पर भी उसने फूलों से बनी हुई एक माला पहन रखी थी।

निकट आकर उसने दोनों हाथ जोड़कर श्रीराम को प्रणाम किया और उनसे कहा, “सौम्य रघुनन्दन! पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि सदा अपने-अपने स्वभाव के अनुसार आचरण करते हैं। मेरा भी यह स्वभाव है कि मैं अगाध और अथाह हूँ। कोई मेरे पार नहीं जा सकता। यदि मेरी थाह मिल जाए, तो यह मेरे स्वभाव के विपरीत होगा। किसी भी कामना, लोभ अथवा भय से मैं किसी को मार्ग नहीं दे सकता। इसलिए मैं आपको एक ऐसा उपाय बताऊँगा, जिससे आप मेरे उस पार भी चले जाएँगे और मेरी कोई हानि भी नहीं होगी।”

नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।

नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।

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जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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