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वाल्मीकि रामायण -भाग 47

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वाल्मीकि रामायण -भाग 47

रावण की आज्ञा मिलने पर विभीषण ने हाथ जोड़कर कहा, “राजन्! सीता के रूप में आपने अपनी ही मृत्यु को बुला लिया है। इससे पहले कि उन वानरों के साथ श्रीराम लंका पर चढ़ाई कर दें, आप सीता को लौटा दीजिए। ये कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत, महापार्श्व, महोदर, कुम्भ, निकुम्भ, अतिकाय आदि कोई भी राक्षस समरभूमि में श्रीराम के आगे नहीं टिक सकते। यदि सूर्य, वायु, इन्द्र या स्वयं यमराज भी आपकी सहायता करें, तो भी आप श्रीराम के बाणों से नहीं बच पाएँगे। अतः मेरा निवेदन मानिये और सीता को श्रीराम के पास सकुशल वापस भेज दीजिए।

यह सुनकर प्रहस्त बोला, “हम देवताओं या दानवों किसी से भी नहीं डरते। भय क्या होता है, यह तो हम जानते ही नहीं हैं। फिर राम से हमें क्या भय होगा!”

फिर भी विभीषण ने पुनः समझाने का प्रयास किया, “प्रहस्त! महाराज रावण, महोदर, कुम्भकर्ण या तुम श्रीराम के बारे में जो भी कह रहे हो, वह सब तुम लोगों से नहीं हो पाएगा। जिस प्रकार कोई पापी कभी स्वर्ग में नहीं पहुँच सकता, उसी प्रकार श्रीराम को तीनों लोकों में कोई भी परास्त नहीं कर सकता। उनका जन्म महान इक्ष्वाकुवंश में हुआ है। वे सभी कार्यों में समर्थ हैं। उनका पराक्रम अतुल्य है। विराध, कबन्ध, वाली जैसे बड़े-बड़े वीरों को उन्होंने यमलोक में भेज दिया था। श्रीराम के तीखे बाण अभी तक तुम्हारे शरीर में नहीं लगे हैं, इसीलिए तुम ऐसी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो। जिस क्षण उनका बाण तुम्हें स्पर्श करेगा, वह उसी क्षण तुम्हारे प्राण भी निकाल देगा। देवान्तक, नरान्तक, अतिकाय, महाकाय, अतिरथ, अकम्पन, त्रिशिरा, निकुम्भ, मेघनाद या महाबली रावण स्वयं भी युद्ध में श्रीराम के आगे नहीं ठहर सकते। अतः तुम सबको उन्हें उचित सलाह देनी चाहिए।

 यह सब सुनकर इन्द्रजीत को बड़ा क्रोध आया। उसने विभीषण से कहा, “मेरे छोटे चाचाजी! आप कायर पुरुष की भाँति यह कैसी निरर्थक बातें कर रहे हैं? जिसने हमारे कुल में जन्म लिया है, वह पुरुष ऐसी बातें कभी नहीं कर सकता।”

फिर वह रावण से बोला, “पिताजी! हमारे राक्षस कुल में ये छोटे चाचा विभीषण ही ऐसे कायर, डरपोक और शक्तिहीन हैं। उन दो तुच्छ मानवों की शक्ति ही क्या है! उन्हें तो हमारा कोई साधारण राक्षस भी मार सकता है। फिर मेरे ये डरपोक चाचा उनके नाम से हमें क्यों डराने का प्रयास कर रहे हैं?”

“मैंने तीनों लोकों के स्वामी देवराज इन्द्र को भी स्वर्ग से हटाकर इस पृथ्वी पर ला बिठाया था। मैंने ऐरावत के दोनों दाँत उखाड़कर उसे भी भूमि पर गिरा दिया था। उस समय वह घबराकर जोर-जोर से चिंघाड़ रहा था। मेरा पराक्रम देखकर सब देवता भयभीत हो गए थे और उन्होंने भागकर चारों दिशाओं में शरण ली थी। मुझे जैसा वीर, जो बड़े-बड़े देवताओं और दैत्यों को भी अपने पराक्रम से शोकमग्न कर देता है, वह क्या उन दो तुच्छ मानव कुमारों का सामना नहीं कर सकता?”

इस पर विभीषण ने उत्तर दिया, “भतीजे! तुम अभी बालक हो। तुम्हारी बुद्धि कच्ची है। इसलिए तुम अपने ही विनाश की बातें बक रहे हो। रावण के पुत्र होकर भी तुम उसे गलत परामर्श दे रहे हो। तुम अविवेकी हो। अत्यंत दुर्बुद्धि, दुरात्मा और मूर्ख हो। इसीलिए ऐसी बकवास कर रहे हो। युद्धभूमि में श्रीराम के बाण प्रत्यक्ष काल के ही समान हैं। उनसे कोई नहीं बच सकता। धन, रत्न, आभूषण तथा सुन्दर वस्त्रों आदि के साथ सीता देवी को श्रीराम के पास वापस भेजने पर ही हमारी रक्षा हो सकती है। अन्यथा लंका का विनाश अटल है।

रावण क्रोधित हो गया क्योंकि अहंकार व मोह के कारण उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। उसने कठोर वाणी में विभीषण से कहा,कुलकलंक निशाचर! तुझ पर धिक्कार है। तेरे सिवा कोई और यदि ऐसी बातें करता, तो मैं इसी क्षण उसके प्राण ले लेता।

जब रावण ने उचित सलाह सुनकर भी इस प्रकार अपमानित ही किया, तो उन कठोर वचनों को सुनकर तुरंत ही विभीषण ने अपनी गदा हाथ में उठाई और एक ही क्षण में उछलकर वह आकाश में चला गया। चार साथी राक्षसों ने भी उसका अनुसरण किया।

तब आकाश में खड़े होकर विभीषण ने दुरात्मा रावण से कहा, “राजन्! तुम्हारी बुद्धि भ्रमित हो गई है। तुमने धर्म का मार्ग छोड़ दिया है। यद्यपि मेरे बड़े भाई होने के कारण तुम मेरे लिए पिता के समान आदरणीय हो, तथापि तुम्हारे ऐसे कठोर वचन मैं कदापि नहीं सह सकता। सदा मीठी बातें बोलने वाले लोग तो अनेक मिल जाते हैं, किन्तु जो अप्रिय होने पर भी हितकर बात ही कहे, ऐसे हितैषी दुर्लभ होते हैं। मैं तुम्हारा विनाश नहीं चाहता था, इसी कारण मैंने तुम्हें समझाने की चेष्टा की थी, किन्तु तुम्हें मेरी बातें अच्छी नहीं लगीं। यही सत्य है कि जिसका अंत निकट हो, उसे अपने स्वजनों की हितकर बात भी अच्छी नहीं लगती।”

ऐसा कहकर विभीषण वहाँ से निकल गया और दो घड़ी में ही समुद्र के इस पार श्रीराम और लक्ष्मण के निकट आ पहुँचा।

विभीषण का शरीर सुमेरु पर्वत के समान ऊँचा था। वह आकाश में चमकती हुई बिजली के समान दिखाई दे रहा था। उसके पास उत्तम आयुध थे और वह अनेक सुंदर आभूषणों से अलंकृत थे। उसके साथ जो चार राक्षस थे, वे भी बड़े भयंकर पराक्रमी थे। उन्होंने कवच धारण करके अनेक अस्त्र-शस्त्र अपने साथ रखे थे। वे सब भी उत्तम आभूषणों से सजे हुए थे।

पृथ्वी पर खड़े वानरों ने आकाश में उन पाँचों को देखा। तब कुछ विचार करके सुग्रीव ने हनुमान जी आदि से कहा, “देखो, सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर ये निशाचर अवश्य ही हमें मारने के लिए यहाँ आए हैं।”

यह सुनते ही उन वानरों ने साल के वृक्ष तथा पत्थर की बड़ी-बड़ी शिलाएँ उठा लीं और बोले, “आप हमें इन दुरात्माओं के वध की आज्ञा दीजिए। हम इन मन्दमति निशाचरों को अभी मारकर पृथ्वी पर गिरा देते हैं।”

उनकी ये बातें चल ही रही थीं कि तभी विभीषण समुद्र के तट पर आकर आकाश में ही रुक गया। सुग्रीव तथा अन्य वानरों को देखकर उसने वहीं से ऊँचे स्वर में कहा, “रावण नामक जो दुराचारी राक्षस निशाचरों का राजा है, मैं उसी का छोटा भाई विभीषण हूँ। मैंने उसे बार-बार समझाया कि तुम सीता जी को श्रीराम के पास सादर वापस भेज दो। परन्तु उसने मुझे ही अपमानित करके बड़ी कठोर बातें कहीं। इसी कारण मैं अपनी स्त्री व पुत्रों को वहीं छोड़कर श्रीराम की शरण में आया हूँ। आप लोग शीघ्र जाकर श्रीराम को सूचना दीजिए कि शरणार्थी विभीषण आपकी सेवा में उपस्थित हुआ है।’”

यह सुनकर तुरंत ही सुग्रीव ने जाकर श्रीराम और लक्ष्मण से कहा, “प्रभु! रावण की सेना का कोई बहुरुपिया राक्षस अब अकस्मात हमारी सेना में प्रवेश पाने के लिए आ गया है। जिस प्रकार उल्लू कौओं को मार डालते हैं, उसी प्रकार वह भी अवसर पाते ही हमें अवश्य मार डालेगा।

“संभव है कि यह रावण का ही कोई गुप्तचर हो। यह हम लोगों के बीच घुसकर सेना में फूट पैदा कर देगा अथवा अवसर पाकर धोखे से हम पर प्रहार कर देगा। जो सैनिक शत्रु-पक्ष से मिले हुए हों, उन्हें कभी अपने पक्ष में नहीं लेना चाहिए। यह तो स्वयं को रावण का भाई ही बता रहा है, फिर तो यह साक्षात हमारा शत्रु ही हुआ। इस पर विश्वास करना तो सर्वथा अनुचित है।”

“मुझे कोई संदेह नहीं कि इसे रावण ने ही भेजा होगा। पहले यह आपका विश्वास प्राप्त कर लेगा और जब आप उसकी ओर से निश्चिन्त हो जाएँगे, तो अवसर पाते ही आप पर प्रहार कर देगा। हमें अभी इसे बंदी बनाकर कठोर दंड देना चाहिए।

ऐसा कहकर सुग्रीव चुप हो गया और श्रीराम की ओर देखने लगा।

सुग्रीव की बातें सुन लेने के बाद श्रीराम ने हनुमानजी तथा अन्य वानरों की ओर देखते हुए कहा, “वानरों! वानरराज सुग्रीव ने विभीषण के बारे में जो उपयुक्त बातें कहीं, वे तुम लोगों ने भी सुनी ही हैं। जो भी अपने मित्र का हित चाहता है, उसे सदा इसी प्रकार अपना मंतव्य प्रकट करना चाहिए। तुम लोग भी अपनी बात कहो।”

यह सुनकर सभी वानर उत्साहित हो गए। उन्होंने कहा, “श्रीराम! हम जानते हैं कि आप स्वयं ही हर विषय का ज्ञान रखते हैं व निर्णय लेने में पूर्णतः समर्थ हैं किन्तु फिर भी केवल हमारा सम्मान बढ़ाने के लिए ही आप हमसे सलाह माँग रहे हैं। हम एक-एक करके आपको अपने विचार बताते हैं।”

तब सबसे पहले अंगद बोला, “श्रीराम! विभीषण शत्रु-पक्ष से आया है, अतः हमें तुरंत ही उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। ऐसे बहुत-से धूर्त लोग होते हैं, जो अपने मनोभावों को छिपाकर रखते हैं। फिर अवसर मिलते ही विश्वासघात करते हैं। अतः गुण-दोषों की परीक्षा करके हमें निश्चय करना चाहिए कि यह व्यक्ति हमारा हित करेगा या अहित करेगा। उसके आधार पर ही उसे स्वीकार करना चाहिए अथवा त्याग देना चाहिए।”

इसके बाद शरभ ने सोच-समझकर अपनी बात कही, “प्रभु! इस विभीषण के ऊपर हमें कोई गुप्तचर नियुक्त कर देना चाहिए। उसकी यथावत परीक्षा लेने के बाद ही हम उस पर विश्वास करें।

फिर वृद्ध जाम्बवान ने कहा, “रावण बड़ा पापी है। उसने हमसे वैर कर लिया है और यह विभीषण भी उसी के पास से आ रहा है। वास्तव में यह न तो उसके आने का उचित समय है और न स्थान। अतः हमें इसके प्रति सशंकित ही रहना चाहिए।”

इसके पश्चात नीति-अनीति के ज्ञाता मैन्द ने कहा, “महाराज! यह विभीषण रावण का छोटा भाई है। अतः हमें मधुर व्यवहार करते हुए इससे धीरे-धीरे सब बातें पूछनी चाहिए। फिर इसके हाव-भाव को समझकर निर्णय करना चाहिए कि यह दुष्ट है या नहीं। उसके बाद जैसा उचित हो, वैसा करें।”

सबकी बातें सुनने के बाद परम बुद्धिमान हनुमान जी हाथ जोड़कर विनम्र वाणी में बोले, “श्रीराम! आप तो स्वयं ही सबसे बुद्धिमान व सामर्थ्यवान हैं। मैं इस समय जो कहने वाला हूँ, वह किसी से वाद-विवाद करने की इच्छा से अथवा बुद्धि के अभिमान से नहीं कहूँगा। मैं केवल वही कहूँगा, जो कार्य की दृष्टि से इस समय उचित है।”

“इन सबने जो विभीषण की परीक्षा लेने का सुझाव दिया है, वह मुझे उचित नहीं लगता क्योंकि इस समय परीक्षा लेना कदापि संभव नहीं है। विभीषण की योग्यता का निर्णय करने के लिए उसे कोई कार्य सौंपना होगा, किंतु आते ही उसे किसी काम में लगा देना मुझे अनुचित ही लगता है। गुप्तचर नियुक्त करने का भी कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि गुप्तचर उसके लिए नियुक्त किया जाता है, जो बहुत दूर हो तथा जिसके बारे में कोई जानकारी न हो। जो स्वयं ही सामने खड़ा होकर अपना वृत्तांत बता रहा है, उसके लिए गुप्तचर भेजने की क्या आवश्यकता है?”

मुझे यह मानना भी उचित नहीं लगता कि विभीषण का यहाँ आना स्थान व काल के अनुसार अनुचित है। मुझे तो ऐसा लगता है कि यही उसके आने का उचित काल व स्थान है। वह एक नीच पुरुष को छोड़कर एक श्रेष्ठ पुरुष के पास आया है। उसने दोनों को दोषों व गुणों का भी विवेचन किया है। अतः उसक यहाँ आना सर्वथा उचित व स्वाभाविक है।

“श्रीराम! यदि किसी व्यक्ति से सहसा यह पूछा जाए कि ‘तुम कौन हो? कहाँ से आए हो? क्यों आए हो?’ तो वह पूछने वाले पर संदेह करने लगेगा। उसे यदि ज्ञात हो जाए कि सब-कुछ जानते हुए भी मुझसे इस प्रकार पूछा जा रहा है तो मित्रता की इच्छा से आने वाले उस व्यक्ति का हृदय पीड़ित हो जाएगा तथा हमें एक मित्र से वंचित होना पड़ेगा। किसी के मन में क्या छिपा है, यह उस व्यक्ति के साथ बहुत-सा समय व्यतीत किए बिना नहीं जाना जा सकता।”

“अतः उचित यही होगा कि आप उसकी वाणी को सुनकर स्वरभेद से यह निर्णय करें कि वह मित्र के रूप में आया है अथवा छल के उद्देश्य से आया है। दुष्ट पुरुष कभी भी निःशंक तथा शांत मन से सामने नहीं आ सकता, किन्तु इसका मन प्रसन्न है तथा इसकी बातचीत से भी कोई दुर्भावना प्रकट नहीं हो रही है। अतः मेरे मन में इसके प्रति कोई संदेह नहीं है।”

“मुझे तो लगता है कि वाली के वध तथा सुग्रीव के राज्याभिषेक का समाचार जानने तथा आपके पराक्रम के बारे में सुनने के बाद, यह इसी आशा से आया है कि रावण के अनुचित आचरण के कारण आप उसका वध करके लंका का राज्य इसे दे देंगे। इस आशा से यह आपके कार्य को सफल बनाने में सहायता ही करेगा।”

“इन सब बातों का विचार करके मुझे तो यही उचित लगता है कि आप विभीषण को भी अपने समूह में स्वीकार कर लें। मैंने केवल अपना विचार प्रकट किया है, किन्तु आप जैसा उचित समझें वैसा निर्णय लें।

नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।

नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।

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जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

1 Comment

  • इस प्रसंग में हमें विभीषण के बारे में कई नई जानकारियां मिली है ।प्रथम की रावण ने विभीषण को लात मार के अपमानित नहीं किया था द्वितीय विभीषण का रूप रंग डेके बारे में जानकारी मिली तीसरा श्री राम जी ने अपने साथियों से विभीषण के बारे में सलाह ली इत्यादि जानकारी इस भाग में दी गई है

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