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वाल्मीकि रामायण -भाग 45

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वाल्मीकि रामायण -भाग 45

यहाँ से युद्ध काण्ड आरंभ हो रहा है।

हनुमान जी से पूरा वर्णन सुनने के बाद श्रीराम बोले, “हनुमान ने बहुत बड़ा कार्य किया है। इस भूमण्डल में ऐसा कार्य करने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, नाग और राक्षसों में भी ऐसा कौन है, जो रावण की लंका में अकेले ही प्रवेश करके सकुशल वहाँ से वापस भी लौट आए? यह केवल हनुमान के लिए ही संभव था।”

“जो सेवक अपने स्वामी के कठिन कार्य को पूरा करके उसके अनुरूप किसी दूसरे कार्य को भी संपन्न कर देता है, वह सबसे उत्तम सेवक है। जो सेवक केवल बताए गए कार्य को ही करता है, किन्तु योग्यता और सामर्थ्य होने पर भी अतिरिक्त कार्य नहीं करता, वह मध्यम श्रेणी का सेवक है। जो सेवक योग्यता और सामर्थ्य होने पर भी अपने स्वामी के बताए हुए कार्य को भी सावधानी से पूर्ण नहीं करता है, वह अधम है। हनुमान ने अपने बताए हुए कार्य को पूरा करने के बाद दूसरे महत्वपूर्ण कार्यों को भी बिन बताए ही पूरा कर दिया। ऐसा श्रेष्ठ सेवक और कोई भी नहीं है।

 “आज हनुमान ने मुझे इतना प्रिय समाचार सुनाया है, किन्तु पुरस्कार में उसे देने के लिए मेरे पास कोई भी वस्तु नहीं है। इस बात से मेरा मन बहुत दुःखी हो रहा है। इस समय मैं हनुमान को केवल अपना आलिंगन ही प्रदान कर सकता हूँ।”

ऐसा कहकर भावुक श्रीराम ने हनुमान जी को अपने गले से लगा लिया।

फिर वे सुग्रीव तथा अन्य वानरों से बोले, “सीता की खोज का काम तो अब संपन्न हो गया, किन्तु हम लोग समुद्र को कैसे पार करेंगे? समुद्र को पार करना तो बड़ा ही कठिन कार्य है। इस बात को सोचकर ही मेरा उत्साह नष्ट हो रहा है।”

ऐसा कहते हुए शोकाकुल श्रीराम चिंता में डूब गए। तब सुग्रीव ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, “वीरवर! आप इस प्रकार चिंतित न हों। जो मनुष्य उत्साहहीन, दीन-दुःखी और शोक से व्याकुल ही रहता है, उसके सारे काम सदा ही बिगड़ते हैं और वह सदा विपत्ति में पड़ जाता है।”

ये सब वानर शूरवीर एवं समर्थ हैं। समुद्र को पार करने और रावण का वध करने की बात सुनते ही इनका उत्साह और बढ़ जाता है। अब आप केवल कोई ऐसा उपाय सोचिए, जिससे समुद्र पर पुल बनाया जा सके। एक बार हमारी सेना उस पार पहुँच जाए, तो उसके बाद विजय निश्चित है।”

तब श्रीराम ने पुनः हनुमान जी से कहा, “वानरवीर! तुम मुझे बताओ कि उस दुर्गम लंकापुरी में कितने दुर्ग हैं? तुम उसका ऐसा स्पष्ट वर्णन करो, जिससे मुझे लगे कि मैं स्वयं वहाँ खड़ा होकर लंका को देख रहा हूँ।”

तब हनुमान जी बोले, “प्रभु! लंका में असंख्य रथ और अनेक मतवाले हाथी हैं। राक्षसों के समुदाय उस नगरी में निवास करते हैं। लंका में चार बड़े-बड़े दरवाजे हैं, जो बहुत लंबे-चौड़े हैं। उनमें बहुत मजबूत किवाड़ लगे हैं और मोटी-मोटी अर्गलाएँ (सिटकनी) हैं। उन दरवाजों पर बड़े विशाल और प्रबल यन्त्र लगे हुए हैं, जो शत्रु-सेना को रोकने के लिए तीर और पत्थरों के गोले बरसाते हैं।”

“काले लोहे की बनी हुई, भयंकर और तीखी सैकड़ों शतघ्नियाँ (लोहे के काँटों से भरी हुई चार हाथ लंबी गदा) उन दरवाजों पर सजाकर रखी गई हैं। उस नगरी के चारों ओर सोने का बना हुआ परकोटा है। उसमें मणि, मूँगे, नीलम और मोती जड़े हुए हैं। उसे तोड़ना बड़ा कठिन है। परकोटे के चारों ओर ठंडे जल से भरी हुई बहुत गहरी खाइयां बनी हुई हैं, जिनमें ग्राह (घड़ियाल या मगरमच्छ) और बड़े-बड़े मत्स्य हैं।”

“उन खाइयों को पार करने के लिए उन चारों दरवाजों के सामने चार संक्रम (लकड़ी के पुल) बने हुए हैं। उनमें बहुत-से बड़े-बड़े यन्त्र लगे हुए हैं और उनके आस-पास परकोटे पर मकान बने हुए हैं। जब शत्रु-सेना आती है, तो उन यन्त्रों के द्वारा पुलों की रक्षा की जाती है और उन यन्त्रों के द्वारा ही उन्हें खाई में गिरा दिया जाता है, जिससे शत्रु के सैनिक भी खाई में गिर जाते हैं। उनमें से एक पुल तो बड़ा ही सुदृढ़ और अभेद्य है। वहाँ बहुत बड़ी सेना रहती है और वहाँ सोने के अनेक खंभे और चबूतरे बने हुए हैं।”

“लंका के पूर्वी द्वार पर हाथों में शूल धारण किए हुए हजारों राक्षस नियुक्त रहते हैं। दक्षिणी द्वार पर राक्षसों की चतुरंगिणी सेना तैनात रहती है। पश्चिमी द्वार पर ढाल और तलवार लेकर हजारों राक्षस पहरा देते हैं तथा उत्तरी द्वार पर बड़ी संख्या में रथी व घुड़सवार राक्षस सैनिक नियुक्त रहते हैं। लंका के मध्यभाग में सैनिक छावनी है, जिसमें हजारों दुर्जय राक्षस निवास करते हैं।”

“परन्तु मैंने उन सब संक्रमों को तोड़ डाला है, खाइयाँ पाट दी हैं, लंका को जला दिया है और उसके परकोटों को भी धराशायी कर दिया है। इतना ही नहीं, मैंने उन राक्षसों की एक चौथाई सेना को भी नष्ट कर दिया है। अब तो लंका विजय के लिए अंगद, द्विविद, मैन्द, जाम्बवान, पनस, नल और नील ही पर्याप्त हैं। पूरी वानर सेना की तो आवश्यकता ही नहीं है।”

यह सुनकर श्रीराम ने कहा, “हनुमान! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। उस भयानक राक्षस को मैं शीघ्र ही नष्ट कर डालूँगा।

फिर श्रीराम जी सुग्रीव से बोले, “सुग्रीव! सूर्यदेव अब दिन के मध्यभाग में जा पहुँचे है। विजय नामक इस मुहूर्त में हमारी यात्रा उपयुक्त होगी। अतः तुम इसी मुहूर्त में प्रस्थान की तैयारी करो। आज उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र है। कल चन्द्रमा का हस्त नक्षत्र से योग होगा। इसलिए हमें आज ही सेना के साथ यात्रा आरंभ कर देनी चाहिए। इस समय जो शकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे यह विश्वास होता है कि मैं अवश्य ही रावण का वध करके सीता को ले आऊँगा। मेरी दाहिनी आँख का ऊपरी भाग भी फड़क रहा है, मानो वह भी मेरी विजय का ही संकेत दे रहा हो।”

श्रीराम की यह आज्ञा सुनकर सुग्रीव और लक्ष्मण ने उन्हें प्रणाम किया।

फिर श्रीराम ने आगे कहा, “सेनापति नील! तुम एक लाख वानरों के साथ सबसे आगे चलो। तुम सारी सेना को ऐसे मार्ग से ले चलना, जिसमें फल-मूल की अधिकता हो, शीतल छाया वाले सघन वन हों, ठंडा जल मिल सके तथा मधु भी उपलब्ध हो। संभव है कि दुरात्मा राक्षस हमारे मार्ग के फल-मूल और जल में विष मिलाकर दूषित करने का प्रयास करें। अतः तुम सदा सावधान रहकर उन वस्तुओं की रक्षा करना।”

“जहाँ कहीं भी गड्ढे, दुर्गम वन और साधारण जंगल हों, वहाँ सब ओर देखकर वानरों को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि कहीं शत्रु सेना वहाँ छिपी तो नहीं है। अन्यथा वे पीछे से हम पर आक्रमण कर देंगे। जो बालक, वृद्ध तथा दुर्बल हैं, वे यहीं किष्किन्धा में रुक जाएँ। हमारा यह युद्ध बड़ा भयंकर होने वाला है, इसलिए केवल बलवान सैनिकों को ही इसमें आना चाहिए।

“पराक्रमी गवाक्ष सेना की रक्षा के लिए उसके आगे-आगे चलें, वानरशिरोमणि ऋषभ सेना के दाहिने भाग में रहें और वेगशाली गन्धमादन वानर सेना के बाएँ भाग में रहकर इसकी रक्षा करें। ऋक्षराज जाम्बवान, सुषेण और वानर वेगदर्शी सेना के पीछे रहकर इसकी रक्षा करेंगे। मैं हनुमान के कन्धे पर चढ़कर सेना के बीच में रहकर उसका उत्साह बढ़ाता रहूँगा तथा लक्ष्मण अंगद के कन्धे पर बैठकर यात्रा करें।”

यह सुनकर सुग्रीव ने सब वानरों को यथोचित आज्ञा दी और वानर-सेना ने युद्ध के लिए कूच किया।

श्रीराम की आज्ञा पाकर सब वानर अपनी गुफाओं से निकलकर चल पड़े। वे हाथियों के समान विशालकाय और हृष्ट-पुष्ट थे। उनमें से कुछ वानर आगे बढ़कर सेना के लिए मार्ग बनाते जा रहे थे, कुछ सेना की रक्षा के लिए उसके चारों ओर चक्कर लगाते हुए चल रहे थे। कुछ मेघों के समान गर्जना कर रहे थे, कुछ सिंहों के समान दहाड़ रहे थे और कुछ युद्ध के उत्साह में किलकारियाँ भरते हुए आगे बढ़ रहे थे।

वे सुगन्धित मधु पीते और मीठे फल खाते हुए जा रहे थे। कुछ वानरों ने विशाल वृक्षों को कन्धों पर उठा लिया था, तो कुछ मनोविनोद के लिए एक-दूसरे को ही कंधे पर उठाकर चल रहे थे। कोई चलते-चलते उछल पड़ता था, तो कोई दूसरे को धक्का देकर नीचे गिरा देता था।

शुभ और अशुभ शकुनों को भली-भांति जानने वाले लक्ष्मण जी ने मार्ग में चलते-चलते श्रीराम से कहा, “रघुनन्दन! मुझे पृथ्वी और आकाश में अनेक शुभ शकुन दिखाई दे रहे हैं, जिससे स्पष्ट है कि आपका मनोरथ अवश्य ही सिद्ध होगा। शीघ्र ही रावण को मारकर आप सीताजी के साथ अयोध्या में पधारेंगे। यह देखिये, सेना के पीछे शीतल और मंद पवन बह रही है। ये पशु-पक्षी मधुर स्वर में अपनी-अपनी बोली बोल रहे हैं। जल स्वच्छ तथा निर्मल दिखाई दे रहा है। जंगलों में पर्याप्त फल उपलब्ध हैं। वृक्षों में ऋतु के अनुसार फूल लगे हुए हैं।” “सूर्यदेव निर्मल दिखाई दे रहे हैं। भृगुनन्दन शुक्र (शुक्र ग्रह) भी आपके पीछे की दिशा में प्रकाशित हैं। सप्तर्षिगण (सप्तर्षि तारामण्डल) जिस ध्रुवतारे को अपनी दाहिनी ओर रखकर परिक्रमा करते हैं, वह ध्रुवतारा भी निर्मल दिखाई दे रहा है। वसिष्ठ और त्रिशंकु तारे भी हम लोगों के सामने की ओर प्रकाशित हैं।  विशाखा नामक युगल नक्षत्र भी निर्मल है तथा मंगल आदि दुष्ट ग्रहों की दृष्टि से सुरक्षित है।

“राक्षसों का मूल नक्षत्र, जिसके देवता निऋरुति हैं, इस समय धूमकेतु से आक्रान्त होकर संताप का भागी बना हुआ है। यह राक्षसों के विनाश का ही संकेत है क्योंकि जो लोग कालपाश में बँधे होते हैं, उन्हीं का नक्षत्र ऐसे समय पर ग्रहों से पीड़ित होता है। ऐसे शुभ नक्षत्र देखकर आपको बड़ी प्रसन्नता होनी चाहिए।”

इस प्रकार वानर-सेना लगातार आगे बढ़ती रही। श्रीराम की आज्ञा थी कि कोई वानर मार्ग में उपद्रव न करे और किसी को कष्ट न दे। मार्ग में उन लोगों को अनेक पर्वत, सरोवर और वन दिखाई दिए। कहीं चम्पा, तिलक, आम, अशोक, सिन्दुवार, तिनिश और करवीर के वृक्ष थे, तो चिरबिल्व, महुआ, वञ्जुल, बकुल, रंजक, नागकेसर, पाडर, कोविदार आदि थे। मुचलिन्द, अर्जुन, शिंशपा, कुटज, हिंताल, चूर्णक, कदम्ब, नीलाशोक, सरल, अंकोल और पद्मक आदि भी सुन्दर फूलों से सुशोभित थे।

जलाशयों के किनारे उन लोगों को अनेक चकवे, जलकुक्कुट (मुरगाबी), जलकाक (पनकौआ), क्रौंच आदि पक्षी एवं रीछ, सूअर, हिरन, तरक्षु (लकड़बग्घे), सिंह, बाघ, हाथी आदि भी दिखाई दिए।

इस प्रकार लगातार आगे बढ़ती हुई वानर-सेना अंततः सागर के तट पर आ पहुँची।

तब सुग्रीव और लक्ष्मण को साथ लेकर श्रीराम सागर-तट के पास एक शिला पर बैठ गए। वहाँ उन्होंने सुग्रीव से कहा, “सुग्रीव! हम सब लोग समुद्र के किनारे तक तो आ गए, किन्तु अब मेरे मन में वही चिन्ता उत्पन्न हो गई है, जो पहले थी। समुचित उपाय के बिना इस विशाल सागर को पार करना असंभव है। इसलिए अब सेना को यहीं पड़ाव डालना चाहिए तथा हम लोग यहाँ बैठकर इस पर विचार करें कि सेना उस पार कैसे पहुँच सकती है।”

फिर श्रीराम ने सेना को संबोधित करके कहा, “कपिवरों! समस्त सेना अब समुद्र के तट पर ही ठहरे। अब हम समुद्र के पार जाने का उपाय सोचेंगे। राक्षसों की माया से हम सब पर संकट आ सकता है। अतः कोई भी सेनापति किसी भी कारण अपनी सेना को छोड़कर कहीं न जाए। सभी लोग अपने-अपने निर्धारत स्थान पर ही रहें।”

उस आदेश के अनुसार वानर-सेना ने सागर के निकट ही वन में डेरा डाल लिया।

उस समय दिन समाप्त हो रहा था और रात आरंभ हो रही थी। प्रदोष के समय चंद्रोदय होने पर समुद्र में ज्वार आ गया था और वह फेन (झाग) से भरी ऊँची-ऊँची लहरों के कारण नृत्य करता हुआ प्रतीत हो रहा था। उसमें बड़े-बड़े ग्राह और तिमि नामक महामत्स्य (बहुत बड़े आकार वाली मछलियाँ) थे। अनेक सर्पों, जलचरों और पर्वतों से वह समुद्र भरा हुआ था। दूर-दूर तक फैला हुआ समुद्र और आकाश दोनों ही उस समय एक समान दिखाई दे रहे थे।

उधर सागर के उस पार लंका में रावण ने भी अपने राक्षस मंत्रियों को बुलवाया। जब से हनुमान जी ने अकेले ही लंका में प्रवेश करके भीषण उत्पात मचाया था, तभी से रावण बहुत लज्जित था। अपने मंत्रियों से उसने कहा, “निशाचरों! वह हनुमान केवल एक वानर है, किन्तु वह अकेला ही इस दुर्जय नगरी में घुस गया और इसे तहस-नहस कर डाला। उसने सीता से भेंट भी कर ली। इतना ही नहीं, उसने चैत्यप्रासाद को धराशायी कर दिया, अनेक प्रमुख राक्षसों को मार गिराया और पूरी लंकानगरी में खलबली मचा दी।”

“मंत्रियों! संसार में उत्तम, मध्यम और अधम प्रकार के प्राणी होते हैं। जो अपने बुद्धिमान व सक्षम मित्रों, बन्धुओं तथा हितैषियों से सलाह लेकर कार्य आरंभ करता है, वह पुरुष उत्तम है। जो अकेला ही सब विचार करता है और अकेला ही सब कार्य करता है, वह मध्यम श्रेणी का है तथा जो बिना सोचे-समझे ही कार्य आरंभ कर देता है व बीच में ही छोड़ देता है, वह अधम श्रेणी का पुरुष है।”

“उसी प्रकार निर्णय भी तीन प्रकार के होते हैं। जिसे शास्त्रोक्त दृष्टि से सब मंत्री एकमत होकर स्वीकार करते हैं, वह उत्तम मन्त्र होता है। जहाँ प्रारंभ में अनेक मतभेद होने पर भी अंत में सब मंत्री एक निर्णय पर पहुँच जाते हैं, वह मध्यम मन्त्र होता है और जहाँ हर कोई अपनी-अपनी बुद्धि के कारण व एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए बात करते हैं, वह मन्त्रणा अधम कहलाती है। उसमें एकमत हो जाने पर भी कार्य सफल नहीं हो पाता।”

ज्ञानियों का कथन है कि मंत्रियों की अच्छी सलाह से ही राजा की विजय हो सकती है। अतः मैंने आप लोगों को सलाह लेने के लिए बुलाया है। आप सब लोग परम बुद्धिमान हैं, अतः उचित-अनुचित का विचार करके आप लोग मुझे योग्य सलाह दीजिए। उसी को मैं अपना कर्तव्य मानकर पालन करूँगा।

“इसकी आवश्यकता इसलिए आ पड़ी है क्योंकि सहस्त्रों वानरों की विशाल सेना लेकर वह राम हमारी लंका पर चढ़ाई करने आ रहा है। यह बात स्पष्ट है कि अपने बल के कारण वह सेना या तो समुद्र को सुखा डालेगी अथवा कोई और उपाय करेगी, किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे लोग अवश्य ही समुद्र को पार कर लेंगे। अतः हमें भी अब उनसे निपटने का उपाय सोचना पड़ेगा।”

वे सब राक्षस बड़े बलवान थे, किन्तु न उन्हें नीति का ज्ञान था और न शत्रु-सेना की शक्ति का कोई अनुमान था। रावण की बात सुनकर उन्होंने हाथ जोड़कर उससे कहा, “महाराज! हमारे पास परिघ, शक्ति, ऋष्टि, शूल, पट्टिश और भालों से लैस बहुत बड़ी सेना है। फिर आप इस प्रकार विषाद क्यों करते हैं? आपने तो भोगवती में जाकर नागों को भी परास्त किया था, यक्षों से घिरे कैलास पर्वत के निवासी कुबेर को भी पराजित कर दिया था और उसका विमान आप छीनकर ले आए थे।

आपके भय से ही दानवराज मय ने आपसे मित्रता करने के उद्देश्य से अपनी पुत्री आपको पत्नी के रूप में समर्पित कर दी। अपनी बहन कुम्भीनसी के पति दानवराज मधु का घमंड भी आपने युद्ध में चकनाचूर कर दिया। फिर इस राम पर विजय पाना आपके लिए कौन-सी बड़ी बात है!”

“आपको तो इस युद्ध में जाने की भी आवश्यकता नहीं है। महाबाहु इन्द्रजीत अकेले ही सब वानरों का संहार कर डालेंगे। उन्होंने परम माहेश्वर यज्ञ का अनुष्ठान करके वह वरदान प्राप्त कर लिया है, जो अन्य किसी के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है। देवताओं की सेना में घुसकर इन्होंने देवराज इन्द्र को ही कैद कर लिया था। फिर ब्रह्माजी के कहने पर इन्होंने उसे मुक्त किया। आप युद्ध के लिए सबसे पहले इन्हीं को भेजिए। ये रामसहित सारी वानर सेना को नष्ट कर डालेंगे। इनके हाथों राम का वध निश्चित है।”

नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।

नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।

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जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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