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वाल्मीकि रामायण -भाग 28

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वाल्मीकि रामायण -भाग 28

पंचवटी में जब शूर्पणखा ने देखा कि श्रीराम ने उन चौदह हजार राक्षसों के साथ-साथ खर, दूषण और त्रिशिरा को भी युद्ध में मार डाला है, तो वह बड़े शोक के साथ चीत्कार करने लगी। श्रीराम ने असंभव लगने वाला कार्य कर दिखाया था। अत्यंत शोक से उद्विग्न शूर्पणखा भी तब वहाँ से निकलकर लंका की ओर भागी। लंका में पहुँचकर उसने देखा कि रावण सूर्य के समान जगमगाते एक सोने के सिंहासन पर विराजमान है। उसके सभी मंत्री उसके आस-पास बैठे हुए थे।

रावण की बीस भुजाएँ और दस मस्तक थे। उसका सीना विशाल था। वह अपने शरीर पर वैदूर्यमणि (नीलम) का एक आभूषण पहना हुआ था और उसके शरीर की कान्ति भी वैसी ही थी। उसने दिव्य वस्त्र, सोने के आभूषण और दिव्य पुष्पों की मालाएँ पहन रखी थीं। उसकी भुजाएँ सुन्दर, दाँत सफेद, मुँह बहुत बड़ा और शरीर पर्वत जैसा विशाल था। देवताओं के साथ युद्ध करते समय उसके शरीर पर सैकड़ों बार भगवान विष्णु के चक्र का प्रहार लगा था। कई अन्य बड़े युद्धों में भी उसे कई शस्त्रों से चोट लगी थी। उन सबके चिह्न उसके शरीर पर दिखाई दे रहे थे। रावण सभी कार्य बड़ी शीघ्रता से करता था। वह देवताओं को रौंद डालता था, परायी स्त्रियों का शील नष्ट कर देता था और धर्म की तो वह जड़ें ही काट देता था। वह हर प्रकार के दिव्यास्त्रों का प्रयोग जानता था, सदा यज्ञों में विघ्न डालता था और ब्राह्मणों की हत्या कर देता था। वह बड़े रूखे स्वभाव का था और बहुत निर्दयी था। वह सज्जनों का सदा अहित ही करता था।

एक बार वह पाताल लोक में जाकर नागराज वासुकी को परास्त करके और तक्षक को भी हराकर उसकी प्रिय पत्नी का अपहरण करके ले आया था। इसी प्रकार कैलास पर्वत पर कुबेर को परास्त करके वह उसका भी पुष्पक विमान छीन लाया था। कुबेर के चैत्ररथ वन को, इन्द्र के नन्दनवन को और अन्य देवताओं के दिव्य उद्यानों को भी वह नष्ट करता रहता था।

उसने घोर तपस्या करके ब्रह्माजी को अपने मस्तकों की बलि दी थी। उस तपस्या के प्रभाव से उसे देवता, दानव, गंधर्व, पिशाच, पक्षी और सर्पों से भी संग्राम में सुरक्षा का वरदान मिल गया था। मनुष्यों के सिवा किसी के हाथों मृत्यु का उसे भय नहीं था। निर्भय होकर जनस्थान में विचरने वाली शूर्पणखा युद्ध में खर-दूषण आदि के संहार को देखकर भयभीत होती हुई लंका में पहुँची और मंत्रियों से घिरे अपने उस भाई के पास जाकर उसने शोक से विह्वल होकर अपनी दुर्दशा रावण को सुनाना आरंभ किया। श्रीराम से तिरस्कृत होने के कारण शूर्पणखा बहुत दुःखी थी। लंका पहुँचने पर उसने मंत्रियों के बीच बैठे रावण से अत्यंत कुपित होकर कठोर वाणी में कहा, “राक्षसराज! तुम स्वेच्छाचारी और निरंकुश होकर विषय-भोगों में मतवाले हो रहे हो। तुम्हारे ऊपर घोर संकट आ गया है, पर तुम्हें इसकी कोई जानकारी ही नहीं है।

“जो राजा उचित समय पर अपने कार्य पूरे नहीं करता है, जो राज्य की देखभाल के लिए गुप्तचरों को नियुक्त नहीं करता है, उसका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और प्रजा भी उसे त्याग देती है। अपनी असावधानी से जो राजा अपने राज्य का कोई भाग शत्रु के हाथों गँवा देता है और उसे पुनः अपने अधिकार में नहीं लाता, उसका पूरा राज्य ही धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है।”

“तुमने देवताओं, गन्धर्वों तथा दानवों के साथ पहले ही झगड़ा मोल ले लिया है, ऊपर से तुमने अपने राज्य की देखभाल के लिए गुप्तचर भी नियुक्त नहीं किए हैं। तुम इतने मूर्ख हो कि तुम्हें ऐसी महत्वपूर्ण बातों का भी ज्ञान नहीं है। फिर तुम कब तक राजा बने रह सकोगे? जो राजा अपने गुप्तचर, अपना कोष (खजाना) और अपनी नीति अपने नियंत्रण में नहीं रख सकता, उसका राज्य अवश्य ही नष्ट हो जाता है।”

“मुझे लगता है कि तुमने सब मूर्खों को ही अपना मंत्री नियुक्त कर रखा है, इसीलिए तुमने अपने राज्य में कहीं कोई गुप्तचर नियुक्त नहीं किए हैं। तभी तो तुम्हें पता ही नहीं है कि पूरा जनस्थान उजड़ गया है और वहाँ रहने वाले तुम्हारे सारे स्वजन मारे गए हैं। उस राम ने अकेले ही खर-दूषण सहित चौदह हजार राक्षसों की सेना को यमलोक पहुँचा दिया और दण्डकारण्य के ऋषियों को राक्षसों के भय से पूर्णतः मुक्त कर दिया, पर तुम्हें इसकी कोई जानकारी ही नहीं है। राक्षसों की शक्ति समाप्ति हो गई और तुम्हें इसका पता तक नहीं है। तुम अपने राज्य की ही रक्षा नहीं कर सकते, तो तुम क्यों स्वयं को राक्षसराज कहलवाते हो?

शूर्पणखा की इन सब बातों को सुनकर रावण चिन्ता में पड़ गया और अपने दोषों के बारे में बहुत देर तक विचार करता रहा। फिर उसने अत्यंत कुपित होकर शूर्पणखा से पूछा, “राम कौन है? उसका बल, रूप और पराक्रम कैसा है? उस दुर्गम दण्डकारण्य में वह क्यों आया है? उसके पास ऐसा कौन-सा शस्त्र है, जिससे उसने उन सब राक्षसों का संहार कर डाला? किसने तुम्हारे नाक-कान काटकर तुम्हें इस प्रकार कुरूप बना दिया?”

तब शूर्पणखा ने श्रीराम का परिचय इस प्रकार दिया, “भैया! राम राजा दशरथ का पुत्र है। उसकी भुजाएँ लंबी, आँखें बड़ी-बड़ी और रूप कामदेव के समान है। वह चीर और मृगचर्म धारण करता है। उसके विशाल धनुष में सोने के छल्ले लगे हुए हैं और उस धनुष से वह महाविषैले सर्पों जैसे तेजस्वी नाराचों की वर्षा करता है। वह युद्ध-स्थल में कब भयंकर बाण हाथ में लेता है, कब धनुष खींचता है और कब बाण छोड़ देता है, यह मैं देख ही नहीं पाई। मुझे इतना ही दिखाई दे रहा था कि उसके बाणों की मार से राक्षसों की पूरी सेना का संहार हो गया। अकेला होकर भी राम ने केवल डेढ़ मुहूर्त में ही पूरी राक्षस सेना को समाप्त कर डाला। वह स्त्री का वध नहीं करता, केवल इसी कारण से उसने मुझे जीवित छोड़ दिया।” “उसका एक तेजस्वी भाई लक्ष्मण है, जो गुण और पराक्रम में उसी के समान है। वह भाई का बड़ा भक्त है और उसकी बुद्धि भी बड़ी तीक्ष्ण है।

“राम की सुन्दर पत्नी सीता भी उसके साथ है। वह राम को बड़ी प्रिय है। उसकी आँखें विशाल और रूप बड़ा मनोहर है। उसके सभी अंग बड़े सुडौल हैं। उसके शरीर का गठन और उसका सौंदर्य दोनों ही अनुपम हैं। उसके जैसी रूपवती स्त्री मैंने कोई और नहीं देखी। देवताओं, गन्धर्वों, यक्षों और किन्नरों की स्त्रियों में से भी कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकती। वह पत्नी बनकर जिसका आलिंगन करे, उससे अधिक भाग्यशाली पुरुष इस संसार में कोई नहीं हो सकता। मुझे तो लगता है कि वह तुम्हारी ही भार्या बनने के योग्य है और तुम ही उसके श्रेष्ठ पति बन सकते हो।”

“लंकापति! जब मैं उस सुन्दरी स्त्री को तुम्हारी भार्या बनाने के लिए अपने साथ लाने के लिए आगे बढ़ी, ठीक उसी समय उस क्रूर लक्ष्मण ने मुझे इस प्रकार कुरूप बना दिया। तुम तो उस स्त्री को देखते ही कामासक्त हो जाओगे। यदि तुम उसे अपनी पत्नी बनाने की इच्छा रखते हो, तो तुरंत ही राम को परास्त करने के लिए आगे बढ़ो। उस सर्वांग-सुन्दरी सीता का किसी भी प्रकार से हरण कर लो और जनस्थान में राम ने तुम्हारे जिन निशाचरों को मार डाला, उनके प्रति तुम्हारे कर्तव्य का भी तो कुछ विचार करो!”

शूर्पणखा की यह सब बातें सुनकर रावण ने सीता-हरण के कार्य पर मन ही मन विचार करना आरंभ किया। फिर उस सुझाव के गुण-दोषों पर विचार करके उसने अपनी शक्ति का विचार किया। अंत में उसने निश्चय किया कि यह काम उसे करना ही चाहिए। तब वह गुप्तरूप से अपनी रथशाला में गया। रथशाला में उसने अपने सारथी को रथ तैयार करने की आज्ञा दी। सारथी ने तुरंत रथ तैयार कर दिया और दस सिरों व बीस भुजाओं वाला रावण उस पर आरूढ़ होकर समुद्र तट की ओर बढ़ा। रावण के उस रथ में गधे जुते हुए थे, जिनका मुँह पिशाचों जैसा था। वह चलता था, तो ऐसी भारी घरघराहट होती थी मानो बादल गरज रहे हों। वह रथ इच्छानुसार चलने वाला तथा सुवर्णमय था। उसे रत्नों से सजाया गया था।

समुद्र तट पर पहुँचकर रावण वहाँ की शोभा देखता हुआ आगे बढ़ता रहा। सागर का वह किनारा अनेक प्रकार के फल-फूलों के वृक्षों से व्याप्त था। कहीं केले तो कहीं नारियल के वृक्ष दिखाई दे रहे थे। कहीं साल, ताल, तमाल तथा अन्य सुन्दर फूलों के वृक्ष थे। चारों ओर शीतल जल से भरी पुष्करिणियाँ (बावड़ियाँ) और वेदिकाओं से युक्त विशाल आश्रम थे।

बड़े-बड़े महर्षि, नाग, सुपर्ण (गरुड़), गन्धर्व और किन्नर वहाँ उपस्थित थे। अनेक सिद्ध, चारण, वानप्रस्थी व माष गोत्र वाले मुनि-महात्मा और अन्य तपस्वी भी वहाँ दिखाई दे रहे थे। सहस्त्रों सुन्दर अप्सराएँ व देवांगनाएँ वहाँ बैठी हुई थीं और अनेक देवता तथा दानव भी वहाँ विचरण कर रहे थे। चारों ओर अनेक हंस, सारस और मेंढक भी दिखाई दे रहे थे। आकाश-मार्ग से जाते हुए रावण को मार्ग में अन्य बहुत-से विमान भी दिखाई दिए। वे सब दिव्य पुष्पों से सजे हुए थे और उनके भीतर से गीत-वाद्यों की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ रही थी।

आगे बढ़ने पर उसने चंदन के सहस्त्रों वृक्षों वाले वन देखे, जिनकी जड़ों से गोंद निकली हुई थी। कहीं श्रेष्ठ अगरु के वन थे, कहीं तमाल के फूल खिले हुए थे, तो कहीं गोल मिर्च की झाड़ियाँ थीं। कहीं समुद्रतट पर ढेरों मोती सूख रहे थे, कहीं मार्ग में ऊँचे-ऊँचे पर्वत थे, तो कहीं स्वच्छ पानी के बहुत-से झरने दिखाई दे रहे थे। सुन्दर स्त्रियों, हाथी, घोड़ों, रथों आदि से व्याप्त अनेक नगर भी उसे मार्ग में दिखाई दिए। बहुत दूर जाने पर समुद्र तट के उस पार पहुँचकर उसे एक ऐसा स्थान दिखा जो स्वर्ग के समान सुन्दर और चारों ओर से समतल था। वहाँ उसे बरगद का एक विशाल वृक्ष दिखाई दिया, जिसके नीचे चारों ओर अनेक मुनि निवास करते थे। उस बरगद की शाखाएँ कई योजन तक फैली हुई थीं।

उस रमणीय वन के भीतर एकांत स्थान में एक आश्रम था। वहाँ राक्षस मारीच निवास करता था। उसके सिर पर जटाएँ थीं और वह शरीर पर काला मृगचर्म धारण करता था। रावण उस आश्रम में जाकर मारीच से मिला। उसका स्वागत-सत्कार करके मारीच ने पूछा, “राजन्! तुम्हारी लंका में सब सकुशल तो है? तुम इतनी जल्दी किस कारण यहाँ पुनः वापस आए हो?”

मारीच का यह प्रश्न सुनकर रावण ने उसे अपने आने का प्रयोजन बताना आरंभ किया।

नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।

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जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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