वाल्मीकि रामायण भाग 26
अगस्त्य जी के आश्रम में प्रवेश करके लक्ष्मण जी ने उनके शिष्य को अपना परिचय दिया और बताया कि ‘महाराज दशरथ के पुत्र श्रीराम अपनी पत्नी सीता के साथ महर्षि का दर्शन करने आए हैं।’ शिष्य ने अग्निशाला में जाकर महर्षि अगस्त्य को इस बात की सूचना दी। श्रीराम के आगमन का समाचार सुनते ही महर्षि बोले, “सौभाग्य की बात है कि चिरकाल के बाद अंततः श्रीराम स्वयं मुझसे मिलने आ गए। मेरे मन में बहुत समय से यह अभिलाषा थी कि वे मेरे आश्रम में पधारें। तुम सम्मानपूर्वक उन तीनों को मेरे पास ले आओ।” महर्षि का आदेश मिलते ही शिष्य ने लौटकर लक्ष्मण के पास गया और उन्होंने आश्रम के द्वार पर ले जाकर उसे श्रीराम और सीता जी से मिलवाया। तब शिष्य ने उन्हें प्रणाम किया और वह उन तीनों को भीतर ले गया।
महर्षि अगस्त्य का आश्रम शांत स्वभाव वाले हिरणों से भरा हुआ था। वहाँ श्रीराम ने ब्रह्माजी और अग्निदेव के पूजन का स्थान देखा। फिर भगवान विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, धाता, विधाता, वायु, वरुण, गायत्री, वसु, गरुड़, नागराज, कार्तिकेय तथा धर्मराज आदि के पूजास्थल देखे। इतने में ही महर्षि अगस्त्य भी अग्निशाला से बाहर निकले। श्रीराम ने तुरंत ही उनके चरणों में झुककर प्रणाम किया। महर्षि ने उन्हें गले से लगा लिया और कुशल-समाचार पूछकर उन्हें बैठने के लिए आसन दिया। फिर महर्षि ने फल-मूल, पुष्प आदि से उनका स्वागत-सत्कार किया।
इसके बाद उन्होंने श्रीराम से कहा, “श्रीराम! आप तीनों इस वन में इतनी दूर तक चलने का कष्ट सहकर भी मुझसे मिलने मेरे आश्रम में पधारे, इससे मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। यह दिव्य धनुष विश्वकर्मा जी ने बनाया है। इसमें सुवर्ण और हीरे जड़े हुए हैं। यह उत्तम बाण ब्रह्माजी का दिया हुआ है। इन्द्र ने ये दो तरकस दिए हैं, जो सदा तेजस्वी बाणों से भरे रहते हैं, कभी खाली नहीं होते। साथ ही यह तलवार भी है, जिसकी मूठ में सोना जड़ा हुआ है और इसकी म्यान भी सोने की ही बनी है। पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने इसी धनुष से असुरों का संहार किया था। आप भी राक्षसों पर विजय पाने के लिए यह धनुष, दोनों तरकस, ये सभी बाण और यह तलवार ग्रहण कीजिए।” ऐसा कहकर महर्षि ने वे सभी आयुध श्रीराम को दिए। तब श्रीराम ने हाथ जोड़कर उनसे कहा, “मुनिवर! आपके दर्शन से हम सब आज अनुग्रहित हुए। कृपया आप मुझे कोई ऐसा स्थान बताइये, जहाँ मैं आश्रम बनाकर सुख से निवास कर सकूँ।” यह सुनकर महर्षि अगस्त्य ने कुछ सोच-विचारकर उत्तर दिया, “श्रीराम! यहाँ से दो योजन की दूरी पर पञ्चवटी नामक एक बहुत सुन्दर स्थान है। वहाँ बहुत-से मृग रहते हैं और फल-मूल तथा जल भी प्रचुरता में है। आप वहीं जाकर आश्रम बनाइये और सुखपूर्वक निवास कीजिए। आपने ऋषियों की रक्षा के लिए राक्षसों के वध की जो प्रतिज्ञा की है, उसे पूरा करने के लिए भी आपको कहीं और जाकर ही निवास करना पड़ेगा क्योंकि राक्षस मेरे आश्रम के आस-आस भी नहीं आते हैं। अतः पञ्चवटी ही सब प्रकार से आपके निवास के लिए उपयुक्त स्थान है।” “वह स्थान यहाँ से निकट ही गोदावरी नदी के तट पर है। यह जो महुओं का विशाल वन है, आप इसके उत्तर की ओर से जाइए। आगे एक बरगद का वृक्ष मिलेगा, उसके आगे कुछ दूर तक ऊँचा मैदान है। उसे पार करने पर एक पर्वत दिखाई देगा, उससे थोड़ी ही दूरी पर पञ्चवटी का प्रसिद्ध सुन्दर वन है।” यह सुनकर श्रीराम ने उन्हें प्रणाम किया और जाने की आज्ञा ली। दोनों भाइयों ने पीठ पर तरकस बाँध हाथों में धनुष लिए और सीता के साथ बड़ी सावधानी से उन्होंने पञ्चवटी की ओर प्रस्थान किया। पंचवटी के मार्ग में थोड़ा आगे जाने पर उन्हें एक विशालकाय गिद्ध मिला, जो अत्यंत पराक्रमी लग रहा था। दोनों भाइयों ने उसे राक्षस ही समझ लिया था, किन्तु परिचय पूछने पर उसने कोमल स्वर में कहा, “बेटा! तुम मुझे अपने पिता का मित्र ही समझो।” ऐसा कहकर उसने उन्हें सृष्टि के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का क्रम बताया और अंत में कहा, “मैं विनतानन्दन अरुण तथा माता श्येनी का पुत्र जटायु हूँ और मेरे बड़े भाई का नाम सम्पाति है। मैं इस वन में आपका सहायक हो सकता हूँ। यहाँ अनेक राक्षस रहते हैं। यदि आप कभी लक्ष्मण के साथ अपनी पर्णशाला से बाहर चले जाएँ, तो मैं देवी सीता की रक्षा करूँगा।” यह सुनकर श्रीराम ने जटायु को गले लगा लिया और प्रसन्नतापूर्वक जटायु का सम्मान किया। फिर वे जटायु को भी अपने साथ ही लेकर पंचवटी की ओर आगे बढ़े। अनेक प्रकार के सर्पों, हिंसक जंतुओं और मृगों से भरी हुई पंचवटी पहुँचकर श्रीराम ने भाई लक्ष्मण से कहा, “सौम्य! मुनिवर अगस्त्य ने जैसा वर्णन किया था, उस स्थान पर हम लोग आ पहुँचे हैं। देखो यहाँ कितने सुन्दर पुष्प खिले हुए हैं। अब तुम चारों ओर दृष्टि डालो और कोई ऐसा स्थान ढूँढ निकालो, जो जलाशय के निकट हो, जहाँ सीता का भी मन लगे।
इन बातों को सुनकर लक्ष्मण ने परिहास करते हुए उससे कहा, “हे गौर वर्ण वाली सुन्दरी! मैं तो अपने बड़े भाई श्रीराम का दास हूँ। मुझसे विवाह करके तुम दासी क्यों बनना चाहती हो? तुम तो मेरे भैया की ही दूसरी पत्नी बन जाओ और सदा प्रसन्न रहो। ऐसा कौन बुद्धिमान मनुष्य होगा, जो तुम्हारे इस श्रेष्ठ राक्षसी रूप को छोड़कर किसी मानव कन्या से प्रेम करेगा? निश्चित ही अपनी उस कुरूप, ओछी, विकृत और वृद्धा भार्या को त्यागकर श्रीराम तुमसे ही प्रेम करेंगे।” इस परिहास को न समझने के कारण शूर्पणखा ने उनकी बातों को सच ही माना। तब वह पुनः श्रीराम से कहने लगी, “राम! इस कुरूप स्त्री के कारण ही तुम मेरा प्रस्ताव नहीं मान रहे हो। अतः मैं तुम्हारे सामने ही इस मानवी को अभी खा जाऊँगी और फिर सुखपूर्वक तुम्हारे साथ रहूँगी।” ऐसा कहकर वह तेजी से सीता की ओर झपटी। तब श्रीराम ने तुरंत उसे रोककर अत्यंत क्रोधित वाणी में लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! क्रूर कर्म करने वाले अनार्यों से किसी प्रकार का परिहास भी नहीं करना चाहिए। देखो, अभी सीता के प्राणों पर कैसा संकट आ गया था। तुम्हें इस राक्षसी को किसी अंग से हीन कर देना चाहिए।” श्रीराम का यह आदेश सुनकर लक्ष्मण ने तुरंत से म्यान से तलवार खींची और शूर्पणखा के नाक-कान काट लिए। नाक और कान कट जाने पर खून से लथपथ वह भयंकर राक्षसी चीत्कार करती हुई तेजी से वन में भागी। अपनी दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर तेजी से भागते हुए वह जनस्थान (नासिक) में निवास करने वाले अपने भाई खर के पास पहुँची। अपनी बहन को इस अवस्था में देखते ही राक्षस खर क्रोध से जल उठा। उसने कहा, “बहन! घबराना छोड़ो और मुझे बताओ कि किसने तुम पर इस प्रकार आक्रमण करके अपनी मृत्यु को स्वयं आमंत्रित किया है?” तब अपनी आँखों से आँसू बहाती हुई शूर्पणखा बोली, “भैया! वन में दो तरुण आए हैं, जो देखने में बड़े सुकुमार, सुन्दर और बलवान हैं। उनके नेत्रों कमल जैसे सुन्दर हैं और वे दोनों वल्कल-वस्त्र व मृगचर्म पहनते हैं। वे दोनों भाई राजा दशरथ के पुत्र हैं व उनके नाम राम और लक्ष्मण हैं। उन दोनों के साथ एक अत्यंत रूपवान स्त्री भी है, जिसका शरीर बड़ा ही सुन्दर है और वह अनेक प्रकार के आभूषणों से विभूषित है। उस स्त्री के कारण ही उन दोनों भाइयों ने मेरी यह अवस्था की है। अब मैं उस कुटिल स्त्री और उन दोनों पुरुषों के मारे जाने पर उनका रक्त पीना चाहती हूँ। तुम्हें मेरी यह इच्छा अवश्य पूरी करनी चाहिए।” यह सुनते ही क्रोधित खर ने तुरंत अपने अत्यंत बलवान चौदह राक्षसों को बुलवाया और उन्हें आदेश दिया कि “चीर और काला मृगचर्म पहने हुए जो दो शस्त्रधारी मनुष्य एक युवती के साथ दण्डकारण्य में घुस आए हैं, तुम लोग जाकर उन तीनों के प्राण ले लो। मेरी बहन उन तीनों का रक्त पीयेगी। उसका यह मनोरथ तुम शीघ्र पूरा करो।” आज्ञा मिलते ही वे चौदह राक्षस तीव्र गति से शूर्पणखा के साथ पंचवटी को गए। आश्रम के पास पहुँचने पर उन लोगों ने देखा कि श्रीराम और सीता पर्णशाला में बैठे हैं और लक्ष्मण भी उनके पास ही खड़े हैं। उन राक्षसों को देखते ही श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “सुमित्राकुमार! तुम सीता के पास ही खड़े रहकर उसकी रक्षा करो। मैं इस राक्षसी के सहायक बनकर आए इन सब निशाचरों का अभी वध करता हूँ।” ऐसा कहकर श्रीराम ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और उन राक्षसों को चेतावनी दी कि “यदि अपने प्राण प्यारे हैं, तो तुरंत ही यहाँ से लौट जाओ, अन्यथा मैं तुम्हारा वध करने वाला हूँ।” यह सुनकर वे राक्षस कुपित हो उठे और श्रीराम से बोले, “अरे! तू तो अकेला है और हम बहुत सारे हैं। तुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि तू हमारे सामने टिक सके। हमारे इन शूलों, परिघों और पट्टिशों की मार खाकर तू शीघ्र ही अपने प्राण गँवाएगा।” ऐसा कहकर वे अनेक प्रकार के आयुध, तलवारें और शूल लेकर श्रीराम पर टूट पड़े। लेकिन श्रीराम ने अपने बाणों से उन राक्षसों के सभी चौदह शूलों को काट डाला। फिर उन्होंने अत्यंत क्रोधित होकर तेज धार वाले चौदह नाराच (लोहे के बने हुए पाँच पंखों वाले तीर) लिए और उन्हें अपने धनुष पर रखकर कानों तक धनुष को खींचा और राक्षसों पर लक्ष्य साधकर वे तीर छोड़ दिए। वे बाण बड़ी तेजी से उन राक्षसों की छाती में धंस गए और वे सभी राक्षस धराशायी हो गए। खून से लथपथ उन मरे हुए राक्षसों को देखकर शूर्पणखा घबरा गई और बड़ी तेजी से तुरंत ही वह अपने भाई खर की ओर पुनः भागी। अब तक उसके कटे हुए नाक और कानों का खून सूखकर गोंद जैसा दिखने लगा था। अपने भाई के पास पहुँचकर वह शोक से आर्तनाद करने लगी और फूट-फूटकर रोने लगी। उसने उन सब राक्षसों के वध का समाचार खर को सुनाया।
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
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जय श्रीराम