वाल्मीकि रामायण –अयोधया काण्ड– भाग 1
आज से आनंद लीजिए वाल्मीकि रामायण का । सरयू नदी के किनारे पर कोसल नामक एक बहुत बड़ा और प्रसिद्ध जनपद था। उसमें अयोध्या नामक एक बहुत प्रसिद्ध नगरी थी। इस महानगरी अयोध्या की लंबाई बारह योजन और चौड़ाई तीन योजन थी। इसमें कई प्रकार के अलग अलग बाजार थे, और उनमें सब प्रकार के यन्त्र और अस्त्र शस्त्र संचित थे। अयोध्या में सभी कलाओं के शिल्पी निवास करते थे। नगर में ऊंची ऊंची इमारतें थीं, और बड़े बड़े फाटक व किवाड़ थे। चारों ओर उद्यान व आमों के बगीचे थे। अयोध्या की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर गहरी खाई खुदी थी, जिसमें प्रवेश करना या उसे लांघना बहुत कठिन था। अयोध्या को जीतना किसी भी योद्धा के लिए संभव न था। उस नगर में हाथी, घोड़े, गाय बैल, ऊंट आदि सभी प्रकार के उपयोगी पशु बड़ी संख्या में उपलब्ध थे। अयोध्या में इतनी समृद्धि थी कि उसके महलों के निर्माण में भी कई प्रकार के रत्नों का उपयोग हुआ था और दीवारों पर सोने का पानी चढ़ाया हुआ था। यह नगर समतल भूमि पर बसा हुआ था और चावल से भरपूर था। वहां के पानी की मिठास भी अद्भुत थी। विभिन्न राज्यों के व्यापारी यहां व्यापार के लिए आते थे और उत्तम गुणों से संपन्न और सभी वेदों में पारंगत विद्वान ब्राह्मण भी वहां थे। हजारों बलशाली, वीर और कुशल योद्धा व महारथी इस अयोध्या नगरी में निवास करते थे। अयोध्या में कोई भी दुखी, पीड़ित, शोषित, वंचित, चोर या लालची नहीं था। वहां कोई कंजूस, क्रूर, मूर्ख या नास्तिक भी नहीं था। अपवित्र अन्न को खाने वाला या साफ सुथरा न रहने वाला कोई व्यक्ति भी अयोध्या में नहीं था। वहां ऐसा कोई परिवार नहीं था, जिसके पास गाय, बैल, घोड़े, अनाज या धन संपत्ति का कोई अभाव हो। बिना आभूषणों वाला कोई व्यक्ति वहां दिखाई नहीं पड़ता था। यज्ञ न करने वाला या अपने कर्तव्य में कोई कमी रखने वाला भी अयोध्या में कोई नहीं था। इक्ष्वाकु वंश के महाराज दशरथ इस अद्वितीय नगरी के शासक व रक्षक थे। वे दूरदर्शी, धर्मपरायण और महापराक्रमी थे। वे प्रजा का पालन परिवार की भांति ही करते थे और प्रजा भी उनसे बिल्कुल वैसा ही प्रेम करती थी। महाराजा दशरथ के आठ कुशल मंत्री थे – धृष्टि, जयन्त, विजय, सुरष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल और सुमन्त्र। महर्षि वसिष्ठ और वामदेव उनके ऋत्विज (पुरोहित) थे। राजा के सभी मंत्री बहुत व्यवहारकुशल, योग्य और निष्पक्ष थे। कई प्रकार से उनकी परीक्षा ली जा चुकी थी। अपने गुप्तचरों के द्वारा राजा को शत्रु पक्ष के राजाओं की पूरी जानकारी भी मिलती रहती थी। लेकिन सब कुछ होते हुए भी महाराज दशरथ केवल इस एक बात के लिए सदा दुखी और चिंतित रहते थे कि उनका कोई पुत्र नहीं था…
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है। जय श्रीराम
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जय श्रीराम

सिया वर राम चंद्र जी की जय