देवी तारा की वाणी
सुग्रीव की गर्जना सुनकर वाली का युद्ध के लिये निकलना और तारा का उसे रोककर सुग्रीव और श्रीराम के साथ मैत्री कर लेने के लिये समझाना! उस समय अमर्षशील वाली अपने अन्तःपुर में था। उसने अपने भाई महामना सुग्रीव का वह सिंहनाद वहीं से सुना। समस्त प्राणियों को कम्पित कर देने वाली उनकी वह गर्जना सुनकर उसका सारा मद सहसा उतर गया और उसे महान् क्रोध उत्पन्न हुआ। फिर तो सुवर्ण के समान पीले रंग वाले वाली का सारा शरीर क्रोध से तमतमा उठा। वह राहुग्रस्त सूर्य के समान तत्काल श्रीहीन दिखायी देने लगा।
वाली की दाढ़ें विकराल थीं, नेत्र क्रोध के कारण प्रज्वलित अग्नि के समान उद्दीप्त हो रहे थे। वह उस तालाब के समान श्रीहीन दिखायी देता था, जिसमें कमलपुष्पों की शोभा तो नष्ट हो गयी हो और केवल मृणाल रह गये हों। वह दु:सह शब्द सुनकर वाली अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को विदीर्ण-सी करता हुआ बड़े वेग से निकला। उस समय वाली की पत्नी तारा भयभीत हो घबरा उठी। उसने वाली को अपनी दोनों भुजाओं में भर लिया और स्नेह से सौहार्द का परिचय देते हुए परिणाम में हित करने वाली यह बात कही। देवी तारा ने कहा–‘वीर! मेरी अच्छी बात सुनिये और सहसा आये हुए नदी के वेग की भाँति इस बढ़े हुए क्रोध को त्याग दीजिये। जैसे प्रातःकाल शय्या से उठा हुआ पुरुष रात को उपभोग में लायी गयी पुष्पमाला का त्याग कर देता है; उसी प्रकार इस क्रोध का परित्याग कीजिये। वानरवीर! कल प्रात:काल सुग्रीव के साथ युद्ध कीजियेगा–इस समय रुक जाइये। यद्यपि युद्ध में कोई शत्रु आपसे बढ़कर नहीं है और आप किसी से छोटे नहीं हैं। तथापि इस समय सहसा आपका घर से बाहर निकलना मुझे अच्छा नहीं लगता है, आपको रोकने का एक विशेष कारण भी है। उसे बताती हूँ, सुनिये।
सुग्रीव पहले भी यहाँ आये थे और क्रोध पूर्वक उन्होंने आपको युद्ध के लिये ललकारा था। उस समय आपने नगर से निकलकर उन्हें परास्त किया और वे आपकी मार खाकर सम्पूर्ण दिशाओं की ओर भागते हुए मतङ्ग वन में चले गये थे। इस प्रकार आपके द्वारा पराजित और विशेष पीड़ित होने पर भी वे पुनः यहाँ आकर आपको युद्ध के लिये ललकार रहे हैं। उनका यह पुनरागमन मेरे मन में शंका-सी उत्पन्न कर रहा है।
इस समय गर्जते हुए सुग्रीव का दर्प और उद्योग जैसा दिखायी देता है तथा उनकी गर्जना में जो उत्तेजना जान पड़ती है, इसका कोई छोटा-मोटा कारण नहीं होना चाहिये। मैं समझती हूँ सुग्रीव किसी प्रबल सहायक के बिना अब की बार यहाँ नहीं आये हैं। किसी सबल सहायक को साथ लेकर ही आये हैं, जिसके बल पर ये इस तरह गरज रहे हैं।
वानर सुग्रीव स्वभाव से ही कार्यकुशल और बुद्धिमान् हैं। वे किसी ऐसे पुरुष के साथ मैत्री नहीं करेंगे, जिसके बल और पराक्रम को अच्छी तरह परख न लिया हो। वीर! मैंने पहले ही कुमार अङ्गद के मुँह से यह बात सुन ली है। इसलिये आज मैं आपके हित की बात बताती हूँ।
एक दिन कुमार अङ्गद वन में गये थे। वहाँ गुप्तचरों ने उन्हें एक समाचार बताया, जो उन्होंने यहाँ आकर मुझसे भी कहा था। वह समाचार इस प्रकार है–अयोध्या नरेश के दो शूर वीर पुत्र, जिन्हें युद्ध में जीतना अत्यन्त कठिन है, जिनका जन्म इक्ष्वाकुकुल में हुआ है तथा जो श्रीराम और लक्ष्मण के नाम से प्रसिद्ध हैं, यहाँ वन में आये हुए हैं। वे दोनों दुर्जय वीर सुग्रीव का प्रिय करने के लिये उनके पास पहुँच गये हैं। उन दोनों में से जो आपके भाई के युद्ध-कर्म में सहायक बताये गये हैं, वे श्रीराम शत्रुसेना का संहार करने वाले तथा प्रलयकाल में प्रज्वलित हुई अग्नि के समान तेजस्वी हैं। वे साधु पुरुषों के आश्रयदाता कल्पवृक्ष हैं और संकट में पड़े हुए प्राणियों के लिये सबसे बड़ा सहारा हैं।
आर्त पुरुषों के आश्रय, यश के एकमात्र भाजन, ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न तथा पिता की आज्ञा में स्थित रहने वाले हैं। जैसे गिरिराज हिमालय नाना धातुओं की खान है, उसी प्रकार श्रीराम उत्तम गुणों के बहुत बड़े भण्डार हैं। अत: उन महात्मा राम के साथ आपका विरोध करना कदापि उचित नहीं है। क्योंकि वे युद्ध की कला में अपना सानी नहीं रखते हैं। उन पर विजय पाना अत्यन्त कठिन है।
शूरवीर! मैं आपके गुणों में दोष देखना नहीं चाहती। अतः आपसे कुछ कहती हूँ। आपके लिये जो हितकर है, वही बता रही हूँ। आप उसे सुनिये और वैसा ही कीजिये। अच्छा यही होगा कि आप सुग्रीव का शीघ्र ही युवराज के पद पर अभिषेक कर दीजिये। वीर वानरराज! सुग्रीव आपके छोटे भाई हैं, उनके साथ युद्ध न कीजिये।
मैं आपके लिये यही उचित समझती हूँ कि आप वैरभाव को दूर हटाकर श्रीराम के साथ सौहार्द और सुग्रीव के साथ प्रेम का सम्बन्ध स्थापित कीजिये। वानर सुग्रीव आपके छोटे भाई हैं। अत: आपका लाड़-प्यार पाने के योग्य हैं। वे ऋष्यमूक पर रहें या किष्किन्धा में–सर्वथा आपके बन्धु ही हैं। मैं इस भूतलपर उनके समान बन्धु और किसी को नहीं देखती हूँ।
आप दान-मान आदि सत्कारों के द्वारा उन्हें अपना अत्यन्त अन्तरङ्ग बना लीजिये, जिससे वे इस वैरभाव को छोड़कर आपके पास रह सकें। पुष्ट ग्रीवा वाले सुग्रीव आपके अत्यन्त प्रेमी बन्धु हैं, ऐसा मेरा मत है। इस समय भ्रातृप्रेम का सहारा लेने के सिवा आपके लिये यहाँ दूसरी कोई गति नहीं है।यदि आपको मेरा प्रिय करना हो तथा आप मुझे अपनी हितकारिणी समझते हों तो मैं प्रेम पूर्वक याचना करती हूँ, आप मेरी यह नेक सलाह मान लीजिये।
स्वामिन्! आप प्रसन्न होइये। मैं आपके हित की बात कहती हूँ। आप इसे ध्यान देकर सुनिये। केवल रोष का ही अनुसरण न कीजिये। कोसल राजकुमार श्रीराम इन्द्र के समान तेजस्वी हैं। उनके साथ वैर बाँधना या युद्ध छेड़ना आपके लिये कदापि उचित नहीं है।’
उस समय तारा ने वाली से उसके हित की ही बात कही थी और यह लाभदायक भी थी। किन्तु उसकी बात उसे नहीं रुची। क्योंकि उसके विनाश का समय निकट था और वह काल के पाश में बन्ध चुका था।
जय श्रीराम