सबसे कठिन दायित्व..
कन्हैया! इतनी देर क्यों लगा दी सखा? तब आये जब मैं पराजित हो गयी थी?……–तुमने बुलाया ही नहीं सखी। जैसे ही मुझे पुकारा, मैं सबकुछ छोड़ कर दौड़ा चला आया। और देखो तो, समय रहते आ गया न!
तो क्या बिना बुलाये नहीं आ सकते थे माधव? क्या विपत्ति में भी मित्र को बुलावा भेजना चाहिए? तुम तो देवता हो न! तुम्हे तो पूर्व से ही ज्ञात भी होगा कि आज मेरे साथ क्या होने वाला था। फिर बुलावा क्यों ढूंढने लगे मित्र? तुम तो मेरे एकमात्र सखा हो, तुम पहले क्यों नहीं आये?….
पहले आता तो तुम्हारी प्रतिष्ठा जाती सखी। तुम विश्व के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर की पत्नी हो, और इच्छामृत्यु की शक्ति पाने वाले सर्वश्रेष्ठ योद्धा की कुलवधू, उनके होते मेरी क्या आवश्यकता थी? तुम्हारी रक्षा करना उनका कर्तव्य था। मैं पहले आता तो संसार तुम्हारे भरोसे पर प्रश्न उठाता सखी। मित्र हूँ, तुम्हारी प्रतिष्ठा जाते नहीं देख सकता न!
और यदि मैं नहीं बुलाती तो क्या नहीं आते कन्हैया?……मित्रता सबसे कठिन दायित्व का नाम है सखी! मित्र का धर्म है कि वह मित्र के धन, धर्म, सम्मान, पुण्य, शक्ति सबकी रक्षा करे। तुम बुलाती या न बुलाती,मैं ठीक उसी समय आता जब आया। मुझे द्वारिका से नहीं आना था, इस द्यूतक्रीड़ा के प्रारम्भ होने के समय से ही मैं यहीं हूँ। कृष्ण अपना दायित्व नहीं भूलता सखी! यह कहने की आवश्यकता नहीं कि कुरु राजसभा में महाराज पांडू की पुत्रवधू का नहीं, कृष्ण की सखी का अपमान हुआ है, और इसका दण्ड यह पूरी राजसभा भुगतेगी।
किन्तु तुम चाहते तो मेरा अपमान ही नहीं होता कन्हैया! तुमने मेरा अपमान होने ही क्यों दिया?….
तुम इस युग की सबसे महत्वपूर्ण स्त्री हो सखी, भविष्य सदा तुम्हें सम्मान के साथ पूजेगा। यह महत्व यूँ ही तो नहीं मिलता न? इसके लिए बहुत कष्ट और अपमान सहना होता है। तुम्हारा अपमान न होता तो संसार न भीष्म, कृप और द्रोण जैसे महायोद्धाओं की कायरता देख पाता, न दुर्योधन, कर्ण, अश्वत्थामा आदि की नीचता देख पाता, और न ही शकुनी और धृतराष्ट्र की धूर्तता देख पाता। इतना ही नहीं, यह घटना नहीं होती तो कदाचित संसार तुम्हारे यशश्वी पतियों की मूर्खता भी नहीं देख पाता। कुरु राजसभा में प्रयत्न भले तुमको निर्वस्त्र करने का हुआ हो, पर निर्वस्त्र हुए इस सभा में बैठे सारे प्रतिष्ठित योद्धा। संसार ने आज उनका नग्न स्वरूप देख लिया। उन्हें निर्वस्त्र करने के लिए शायद हमारा अपमान आवश्यक था सखी।
हमारा अपमान? हमारा नहीं कृष्ण, मेरा…तुम भूल रहे हो, अपमान द्रौपदी का हुआ है।… नहीं सखी! हम मित्र हैं, तुम्हारा अपमान मेरा ही अपमान है। इस क्रूर सभा में जितने अश्रु तुम्हारी आँखों से बहे, उससे कहीं अधिक मैं रोया हूँ। पुरुष अपने अश्रु दिखा नहीं पाता, पर रोता वह स्त्रियों से अधिक ही है। इसे छोड़ो सखी! पर हमारे अपमान को एक क्षण के लिए भी मत भूलना। यदि भूल गयी तो भविष्य की घटनाओं को सहन नहीं कर सकोगी। आर्यावर्त का भविष्य इसी घटना से तय हुआ है। यह अपमान तो स्मरण ही रहेगा माधव! पर तुम हमारे साथ हो न?…..
तुम्हारा मित्र हूँ सखी! मृत्यु तक तुम्हारे साथ खड़ा रहूंगा..!!
जय श्रीराम