कर्म
जिस प्रकार कर्म जीवन का स्वभाव है। उसी प्रकार कर्म फल का भोग भी जीवन की अनिवार्यता है। मनुष्य जिस प्रकार के कर्म करता है। उस प्रकार का फल उसे न चाहते हुए भी देर-सबेर अवश्य भोगना ही पड़ता है।
जाने-अनजाने मनुष्य से अनेक पाप कर्म बन ही जाते हैं। मनुष्य द्वारा जाने-अनजाने किये जाने वाले उन्हीं पाप कर्मों के फल स्वरूप उसके कर्म फल का भी निर्धारण किया जाता है। और उन पाप कर्मों के आधार पर ही उसके दण्ड का भी निर्धारण होता है।
उन पाप कर्मों के फल से बचने के लिए शास्त्रों ने जो विधान निश्चित किया गया है, उसी को प्रायश्चित कर्म कहा गया है। सरल अर्थों में मनुष्य का अपराध बोध ही उसका प्रायश्चित कहलाता है।
दैन्य भाव से प्रभु चरणों की शरणागति एवं प्रभु के मंगलमय नामों का दृढ़ाश्रय लेते हुए जान बूझकर आगे कोई पाप कर्म न बने, इस बात का दृढ़ संकल्प ही, मनुष्य का सबसे बड़ा प्रायश्चित है।
हम अपने कर्मों के लेन देन का हिसाब पूरा करने के लिए ही यहां आते हैं।, संसार में कोई माँ बाप और औलाद बनकर आ जाता है।, कोई दोस्त और कोई रिश्तेदार बनकर आ जाता है । लेकिन जैसे जैसे इस जन्म में प्रारब्ध कर्मों का का हिसाब किताब ख़त्म हो जाता है।, हम एक दूसरे से अलग होकर अपने अपने रास्ते पर चल देते हैं।
यह दुनिया एक सराय की तरह है। जहां सब मुसाफ़िर रात भर के लिए इकट्ठे होते हैं । और सुबह होते ही अपनी अपनी राह चल देते हैं।यों भी कह सकते हैं।कि हम पंछियों की तरह हैं।जो सांझ होने पर पेड़ पर आ बैठते हैं । और सूरज की पहली किरण के आते ही अपनी अपनी राह उड़ जाते हैं..!!
जय श्रीराम