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सुविचार-सुन्दरकाण्ड-165

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जय श्री राधे कृष्ण …….

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा, स्वास जरइ छन माहिं सरीरा, नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी, जरैं न पाव देह बिरहागी ।।

भावार्थ:- विरह अग्नि है, शरीर रुई है, और श्वास पवन है, इस प्रकार (अग्नि और पवन का संयोग होने से) यह शरीर क्षण मात्र मे जल सकता है । परन्तु नेत्र अपने हित के लिए (प्रभु का स्वरूप देखकर सुखी होने के लिए) जल (आँसू) बरसाते हैं, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती….!!

सुप्रभात

आज का दिन प्रसन्नता से परिपूर्ण हो..

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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