जय श्री राधे कृष्ण …….
“अवगुन एक मोर मैं माना, बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना, नाथ सो नयनन्हि को अपराधा, निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ।।
भावार्थ:- हाँ, एक दोष मैं अपना अवश्य मानती हूँ कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गये । किन्तु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है, जो प्राणों के निकलने में हठ पूर्वक बाधा देते हैं…..!!
सुप्रभात
आज का दिन प्रसन्नता से परिपूर्ण हो..
