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अब मैं पैसे नहीं रिश्ते कमाता हूँ- रिश्ते कमाता हूँ

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अब मैं पैसे नहीं रिश्ते कमाता हूँ– रिश्ते कमाता हूँ

एक बार मैं अपने एक मित्र का तत्काल केटेगरी में पासपोर्ट बनवाने पासपोर्ट ऑफिस गया था। लाइन में लग कर हमने पासपोर्ट का तत्काल फार्म लिया, फार्म भरे हुए हमें काफी समय हो चुका था, अब हमें पासपोर्ट की फीस जमा करनी थी। लेकिन जैसे ही हमारा नंबर आया क्लर्क ने खिड़की बंद कर दी और कहा कि,” समय खत्म हो चुका है, अब कल आइएगा।” मैंने उससे मिन्नतें की, उससे कहा कि, “आज पूरा दिन हमने खर्च किया है और बस अब केवल फीस जमा कराने की बात रह गई है, कृपया फीस ले लीजिए।” क्लर्क बिगड़ गया। कहने लगा, “आपने पूरा दिन खर्च कर दिया तो उसके लिए वह जिम्मेदार है क्या? अरे सरकार ज्यादा लोगों को लगाए! मैं तो सुबह से अपना काम ही कर रहा हूँ।”

खैर, मेरा मित्र बहुत मायूस हुआ और उसने कहा कि चलो अब कल आएँगे। मैंने उसे रोका, कहा कि,” रुको मैं एक और कोशिश करता हूँ।” क्लर्क अपना थैला लेकर उठ चुका था। मैंने कुछ कहा नहीं, चुपचाप उसके पीछे हो लिया। वह एक कैंटीन में गया, वहाँ उसने अपने थैले से लंच बॉक्स निकाला और धीरे-धीरे अकेला खाने लगा।   मैं उसके सामने की बेंच पर जाकर बैठ गया। मैंने कहा कि,” तुम्हारे पास तो बहुत काम है, रोज बहुत से नए-नए लोगों से मिलते होगे?”…..वह कहने लगा कि,” हाँ मैं तो एक से एक बड़े अधिकारियों से मिलता हूँ। कई आई.ए.एस., आई.पी.एस., विधायक रोज यहाँ आते हैं। मेरी कुर्सी के सामने बड़े-बड़े लोग इंतजार करते हैं।”

  फिर मैंने उससे पूछा कि,” एक रोटी तुम्हारी प्लेट से मैं भी खा लूँ?” उसने “हाँ” कहा। मैंने एक रोटी उसकी प्लेट से उठा ली, और सब्जी के साथ खाने लगा। मैंने उसके खाने की तारीफ की, और कहा कि,” तुम्हारी पत्नी बहुत ही स्वादिष्ट खाना पकाती है।”

  मैंने उसे कहा,” तुम बहुत महत्वपूर्ण सीट पर बैठे हो। बड़े-बड़े लोग तुम्हारे पास आते हैं। तो क्या तुम अपनी कुर्सी की इज्जत करते हो? तुम बहुत भाग्यशाली हो, तुम्हें इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली है, लेकिन तुम अपने पद की इज्जत नहीं करते।”

उसने मुझसे पूछा, “ऐसा कैसे कहा आपने?”………….मैंने कहा कि,” जो काम दिया गया है उसकी इज्जत करते तो तुम इस तरह रुखे व्यवहार वाले नहीं होते। देखो तुम्हारा कोई दोस्त भी नहीं है। तुम दफ्तर की कैंटीन में अकेले खाना खाते हो, अपनी कुर्सी पर भी मायूस होकर बैठे रहते हो। लोगों का होता हुआ काम पूरा करने की जगह अटकाने की कोशिश करते हो। बाहर गाँव से आ कर सुबह से परेशान हो रहे लोगों के अनुरोध करने पर तुम उनसे कहते हो, “सरकार से कहो कि ज्यादा लोगों को लगाए।” अरे ज्यादा लोगों के लगाने से तो तुम्हारी अहमियत नहीं घट जाएगी? हो सकता है तुमसे यह काम ही ले लिया जाए।

  भगवान ने तुम्हें मौका दिया है रिश्ते बनाने के लिए। लेकिन अपना दुर्भाग्य देखो, तुम इसका लाभ उठाने की जगह रिश्ते बिगाड़ रहे हो। मेरा क्या है, कल आ जाउँगा या परसों आ जाउँगा, पर तुम्हारे पास तो मौका था किसी को अपना अहसानमंद बनाने का। तुम उससे चूक गए!” मैंने कहा कि,” पैसे तो बहुत कमा लोगे, लेकिन रिश्ते नहीं कमाए तो सब बेकार है।

क्या करोगे पैसों का? अपना व्यवहार ठीक नहीं रखोगे तो तुम्हारे घर वाले भी तुमसे दुखी रहेंगे, यार दोस्त तो तुम्हारे पहले से ही नहीं हैं।” मेरी बात सुन कर वह रुंआसा हो गया। उसने कहा कि,” आपने बात सही कही है साहब। मैं अकेला हूँ। पत्नी झगड़ा कर मायके चली गई है। बच्चे भी मुझे पसंद नहीं करते। माँ है, वे भी कुछ ज्यादा बात नहीं करती। सुबह चार-पाँच रोटी बना कर दे देती है, और मैं तन्हा खाना खाता हूँ। रात में घर जाने का भी मन नहीं करता। समझ में नहीं आता कि गड़बड़ी कहाँ है?”……..

मैंने हौले से उससे कहा, “खुद को लोगों से जोड़ो। किसी की मदद कर सकते हो तो करो। देखो मैं यहाँ अपने दोस्त के पासपोर्ट के लिए आया हूँ। मेरे पास तो पासपोर्ट है। मैंने दोस्त की खातिर तुम्हारी मिन्नतें की। निस्वार्थ भाव से। इसलिए मेरे पास दोस्त हैं, तुम्हारे पास नहीं हैं।” वह उठा और उसने मुझसे कहा कि, “आप मेरी खिड़की पर पहुँचो। मैं आज ही फार्म जमा करुँगा।” और उसने काम कर दिया। फिर उसने मेरा फोन नंबर मांगा, मैंने दे दिया।

 बरसों बीत गए। इस रक्षा बंधन पर एक फोन आया…”रविंद्र कुमार चौधरी बोल रहा हूँ साहब, कई साल पहले आप हमारे पास अपने किसी दोस्त के पासपोर्ट के लिए आए थे, और आपने मेरे साथ रोटी भी खाई थी। आपने कहा था कि पैसे की जगह रिश्ते बनाओ।”

मुझे एकदम याद आ गया। मैंने कहा, “हाँ जी चौधरी साहब कैसे हैं?”……उसने खुश होकर कहा, “साहब आप उस दिन चले गए, फिर मैं बहुत सोचता रहा। मुझे लगा कि पैसे तो सचमुच बहुत लोग दे जाते हैं, लेकिन साथ खाना खाने वाला कोई नहीं मिलता। साहब मैं अगले ही दिन पत्नी के मायके गया, बहुत मिन्नतें कर उसे घर लाया। वह मान ही नहीं रही थी। वह खाना खाने बैठी तो मैंने उसकी प्लेट से एक रोटी उठा ली, कहा कि साथ खिलाओगी?…..वह हैरान थी। रोने लगी। मेरे साथ चली आई। बच्चे भी साथ चले आए। साहब, अब मैं पैसे नहीं कमाता। रिश्ते कमाता हूँ। जो आता है उसका काम कर देता हूँ।

  साहब आज आपको रक्षा बंधन की शुभकामनाएँ देने के लिए फोन किया है क्योकि आपने मुझे लोगों से जुड़ना सिखाया है। अगले महीने बिटिया की शादी है। आपको आना है। बिटिया को आशीर्वाद देने। रिश्ता जोड़ा है आपने।”

  वह बोलता जा रहा था, मैं सुनता जा रहा था। सोचा नहीं था कि सचमुच उसकी ज़िंदगी में भी पैसों पर, रिश्ता इतना भारी पड़ेगा। दोस्तों आदमी भावनाओं से चलता है नियमों से नहीं। नियमों से तो मशीनें चला करती हैं।

“जब मैं, ‘मुझे और मेरा’ को प्रमुखता देते है, तब एकता खो जाती है और रिश्ते भुला दिए जाते हैं। रिश्ते एकतरफ़ा नहीं हो सकते। दोनों ओर से त्याग की आवश्यकता होती है और होनी ही चाहिए।        “जो व्यक्ति सभी के साथ एक हो जाता है, जो सभी को एक मानकर देखता है, वह हमेशा ईश्वर के साथ होता है।”

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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