देश की राजनीति में भी स्वर्गीय रामचंद्र परमहंस दास का दबदबा बना रहता था. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई श्री रामचंद्र परमहंस दास के निधन पर अयोध्या के सरयू तट पर जाकर उनको श्रद्धांजलि दिए थे. परमहंस दास जी के कद का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि, जिस दिन उनका देहांत हुआ उस दिन संपूर्ण अयोध्या सावन की तृतीया तिथि में गम के साथ शोक लहर में डूब गई थी. 1949 से राम मंदिर आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले रामचंद्र परमहंस दास राम मंदिर निर्माण के लिए आजीवन संघर्षरत रहे और अपने मुखारविंद से राम मंदिर आंदोलन के लिए संघर्ष करते रहे. यही वजह है कि आज अयोध्या ही नहीं पूरे देश के संत महंत रामचंद्र परमहंस दास को याद करते हैं.
संत के साथ मुखर भी थे रामचंद्र परमहंस दास :- रामचंद्र परमहंस के साथ जितना रहने का अवसर मिला, घूमने का अवसर मिला उनका आशीर्वाद मिला हमने यही जाना की वह एक संत थे. संत का व्यक्तित्व और कृतिग को समाज का मार्गदर्शन करने के लिए, समाज को एक राह दिखाने के लिए, संगठन को संगठित करने के लिए, राम मंदिर निर्माण के लिए, उनका जो योगदान रहा वह विस्मृत नहीं किया जा सकत. अपनी प्रखरता के कारण किसी की भी प्रतिक्रिया का खंडन करना और उसका जवाब देना यह उनके स्वभाव में था. आज भी अयोध्या संत रामचंद्र परमहंस दास के लिए नतमस्तक है.
संत–समाज के लिए किसी से भी भिड़ जाते थे:- हनुमानगढ़ी के पुजारी रमेश दास बताते हैं कि परमहंस रामचंद्र दास को अयोध्या ही नहीं, पूरे देश के संत-महंत याद करते हैं. जिस तरह से रामचंद्र परमहंस दास कार्य करते थे. उस तरह से कोई कार्य नहीं करता था. आज पूरा देश रामचंद्र परमहंस दास को याद करता है. किसी को उनका डर नहीं रहता था, भय नहीं रहता था. चाहे मुख्यमंत्री हो या गृहमंत्री हो. हर व्यक्ति से लड़ाई लड़ने का कार्य करते थे. उनमें इतनी शक्ति थी जहां भी वह जाते थे पंगा लेने का कार्य करते थे. यही वजह है कि, अयोध्या ही नहीं पूरे देश के संत-समाज के उनकी कमी महसूस होती है
कोई भूखा हो, बीमार पड़ा हो या जोर-जुल्म का शिकार हो। रामचंद्रदास हर किसी की मदद में खड़े मिलते थे। वे सामाजिक विषयों के प्रति सजग संवेदनशील सेवाभावी के साथ शास्त्रज्ञ, प्रखर वक्ता और साधना में रमे खांटी साधु भी थे। यह संतुलन उन्हें बेजोड़ बना रहा था। यह आसान नहीं था पर वे किसी और मिट्टी के थे और इसी के चलते उन्हें परमहंस की उपाधि से नवाजा गया। यह उपाधि किसी खास समूह-संगठन ने नहीं दी थी बल्कि समाज की उनके प्रति स्वत:स्फूर्त भावना थी। परमहंस ने भी इस उपाधि से पूरा न्याय किया। वे
भगवान राम के अनन्य उपासक थे, तो उनकी जन्मभूमि के लिए भी पूरी ताकत से खड़े हुए।
राममंदिर के लिए वे आजादी के पूर्व से ही संघर्षरत रहे और 1949 में रामलला के प्राकट्य प्रसंग के दौरान तो वेकेंद्रीय भूमिका में सामने आए। इसके बावजूद वे सांप्रदायिक नहीं थे। रामलला के लिए संघर्ष उनकी आस्था का सवाल था, तो आस्था की इसी परिधि में सामने वाले से मृदुता और गहरी मित्रता भी थी। इस परिधि में वे हाशिम अंसारी भी शामिल रहे, जो दशकों तक बाबरी ढांचा के पर्याय बने रहे। परमहंस और हाशिम एक ही इक्के से सिविल कोर्ट जाया करते थे। यह मेल-जोल दोस्ती में बदल गया और हाशिम यदा-कदा परमहंस के आश्रम दिगंबर अखाड़ा भी जाते थे और उनमें जमकर चुहल के साथ अपनत्व-आत्मीयता भी देखने को मिलती थी।
महंत परमहंस रामचंद्र दास ने राम मंदिर आंदोलन को धार दी
1984 से 92 तक मंदिर आंदोलन निरंतर तीव्र होता गया और इसी के साथ ही परमहंस का कद भी बढ़ता गया पर उनके पांव कभी जमीन से नहीं डिगे। मंदिर आंदोलन जिन दिनों व्यापक तनाव का सबब बना था, उन दिनों भी वे यह याद दिलाना नहीं भूलते थे कि मंदिर बने पर इस शर्त पर कि हिंदू या मुस्लिम में से किसी का एक बूंद खून न गिरे। वे चांद बीबी, रहीम, रसखान एवं कारू मियां जैसे समरसता के प्रतीकों का भी मंचों से जिक्र कर अपनी भावनाओं का एहसास कराते थे। गो सेवा सहित भांति-भांति के पशु-पक्षियों में भी उनका अनुराग जगजाहिर था और उनका समन्वयवाद 2003 की सावन शुक्ल तृतीया को चिरनिद्रा में लीन होने के समय शिखर पर दिखा, जब इस फक्कड़, यायावरी और हर किसी को अपना बना लेने वाले संत को अंतिम प्रणाम करने तत्कालीन प्रधानमंत्री, उप राष्ट्रपति, संघ प्रमुख, विहिप सुप्रीमो, राज्यपाल, केंद्र सरकार के अनेकानेक नुमाइंदों सहित जनसैलाब उमड़ा।
ऐसे रामभक्त हनुमान को नमन….
जय श्रीराम
