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प्रभु चरणों में चिन्तन

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प्रभु चरणों में चिन्तन

मित्रो बहुत आनन्दमय् प्रसंग है, जब माता जानकीजी के साथ प्रभु चौदह वर्ष के लिये वनवास को पधार रहे थे। भगवान् श्री रामजी सीताजी से कहते हैं देवी आप थक गयीं होगी, माँ जानकीजी ने हँसते हुये कहती है भगवन्! मैं तो हर क्षण आपके चरण कमलों को देख रही थी, मुझे मार्ग में चलने से थकान कैसे हो सकती है। माता जानकीजी प्रभु से कहती है कि भगवन् जिनको बाग में भी मैंने देखा था, पुष्प चुनने में भी पसीना आ रहा था, यह बात उस समय की है जब भगवान् श्री रामजी ऋषि विश्वामित्रजी के साथ सीताजी के स्वयंवर में गये थे तब लक्ष्मणजी के साथ पुष्प वाटिका में पुष्प लेने गये थे, तब सीताजी की प्रभु की पहली भेट वहीं हुई थी, माँ सीताजी कह रहीं है कि मुझे यही चिन्ता लगी थी कि इतने कोमल चरण धरती पर कैसे चलते होंगे?

मोहि मग चलत न होइहिं हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी।।

ये संसार की यात्रा का नियम है, यदि चलते हुए थकान से दूर रहना चाहते हो तो प्रभु चरणों का चिन्तन करते चलो, भक्ति का यही नियम है, साधु जिसका नाम जप कुटिया में बैठकर करता है उसके चरणों का भी दर्शन करता है, उनकी लीलाओं का भी दर्शन करता है, विभीषणजी लंका से चले हैं अभी पहुँचे भी नहीं हैं, पूरी लीला ध्यान में आ गयीं। जिन चरणों ने जनकपुर को दिव्य बनाया, जिन चरणों ने दण्डकवन को पावन किया, जिन चरणों की पादुकाओं की श्री भरतजी सेवा कर रहे हैं, उनका दर्शन करूँगा ऐसे विचार रास्ते में ही आ रहे हैं, जाने की सोचने से ही भगवान के श्री चरणों के दर्शन हो जाते हैं, संसार और भक्ति की यात्रा का मूल अन्तर यही है, संसार की यात्रा में तो शीघ्र पहुँचने का आनन्द है जबकि भक्ति की यात्रा में विलम्ब का आनन्द है, जितनी देर से पहुँचे उतना ही आनन्द है।

मैंने संतों के श्रीमुख से सुना है एक भक्त प्रभु के दर्शन करके लौटा लेकिन थोड़ी देर में पुनः प्रभु की ओर चलने लगा, किसी ने पूछा भाई तुम तो पहुँच कर भी लौट आये? अब क्यों जा रहे हो? उसने कहा भाईजी क्या बतायें मार्ग में ऐसा आनन्द आया है मन करता है कि लोट कर बार-बार चलते रहें, हमारे ग्रन्थों का हम पाठ करते हैं, कोई रामायण का, कोई गीता का, कोई पाँच बार पाठ करता है, कोई ग्यारह बार तो कोई इक्कीस तो कोई एक सौ आठ बार, कोई जीवन भर करते ही रहते है। मन करता है और करूँ, और करूँ, कहीं जाना होता है तो हम सीधा मार्ग पकड़ते है और मंदिर में परिक्रमा, वहीं घूमते रहते हैं, घूम कर आये फिर दर्शन, साध्य के साथ-साथ साधन का भी अपना आनन्द है इसलिये भक्त लोग भगवान के दर्शन की ज्यादा आकाँक्षा नहीं रखते, बस सुमिरन का आनन्द, उनका नाम लेते रहना, ऐसे ही श्री भरतजी में दैन्यता की पराकाष्ठा है, कैसा दैन्य भाव?…..

दण्डवत करते जब भाव आता है कि बन गमन मेरे कारण हुआ है तो मन में लौट जाने की इच्छा होती है पर भरतजी जब भगवान् के स्वभाव को याद करते हैं तो पैर आगे पडने लगते हैं, भरतजी को अब एक ही भरोसा आगे बढा रहा है कि भगवान् अपना जानकर त्यागेंगे नहीं, किसी ने पूछा अगर प्रभु तुम्हारा अपमान कर दें तो? बोले इसकी कोई चिन्ता नहीं। मैं तो रामजी की चरण पादुकाओं की शरण में जा रहा हूँ, चित्रकूट के निकट भरतजी में प्रेम की दिव्य अवस्था का महाभाव पैदा हो गया, आज इस दृश्य को देखकर केवट भी भाव विह्वल हो गया, देखो गजब क्या हो रहा है? मार्ग दिखाने वाला ही मार्ग भूल गया।

सखहिं सनेह बिबस मग मूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला।।

सज्जनों! प्रेम की महादशा देखिये, भरतजी के साथ केवट भी भाव विभोर हो गया, जो केवट मार्ग दर्शन करने चला था वो भी आनन्द में इतना पागल हो गया कि मार्ग भी भूल गया, देवता जय घोष करने लगे और पुष्पवृष्टि करके मार्ग दर्शन कर रहे हैं, देखो भाईयों संसार के पथ में अगर मार्ग भूल जायें तो समझो सर्वनाश लेकिन कोई भक्ति या प्रेम के पथ में भटक जाये तो कल्याण ही हो जाये।

सुतीक्षणजी की कथा आपने श्री हनुमानजी की कथा में पढी होगी, सुतीक्षणजी का यही तो हाल हुआ, सुतीक्षणजी प्रभु से मिलने चले लेकिन मार्ग में विचार करने लगे कि मैंने तो कोई भजन पाठ किया नहीं, मुझे तो कुछ मालूम नहीं क्या मेरे जैसे मूर्ख पर भी प्रभु दया करेंगे? सुतीक्षणजी ने जब अपनी ओर देखा तो एक ही बात उनके ध्यान में आयी।

मैंने कोई भक्ति नहीं की ना मेरे अन्दर कोई विरक्ति है, ना कोई ज्ञान है, मेरे अन्दर तो कोई गुण नहीं है लेकिन अचानक प्रभु के स्वभाव की याद आ गयी, वे सब कुछ भूल कर मार्ग में बैठ गये, इधर भगवान प्रतीक्षा कर रहे हैं कि सुतीक्षणजी आ रहे हैं, लेकिन बहुत देर हो गयी, प्रभु ने लक्ष्मण से कहा लखन! सुतीक्षणजी मिलने आ रहे थे पर आये ही नहीं? भगवान समझ गये कि लगता है भक्त रास्ता भूल गया, इसलिये जब भूल ही गया है तो मुझे ही चलना पडेगा, मैं ही खोजूँगा।

भाई-बहनों! मैं सत्य कहता हूँ भगवान् को खोजने मत जाना, कहाँ खोजोगे भगवान् को? हमको तो कोई अता पता है नहीं, भगवान् की बैठकर प्रतीक्षा करो तो वो ही खोजते-खोजते आपके द्वार पर आकर खडे हो जायेंगे, शबरी कुटिया के बाहर भगवान को खोजने नहीं गयी, शबरी की कुटिया को खोजते-खोजते भगवान् ही स्वयं आ गये, देखो न इधर सुतीक्षणजी प्रभु के ध्यान में लीन हैं।

मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यान जनित सुख पावा।।

बार-बार भगवान जगा रहे हैं, मुनि जागो, मुनि जागो, सुतीक्षणजी ध्यान में डूबे हैं, इसका अर्थ है प्रेम के बन में अगर कोई मार्ग भूल जायें तो खोजने के लिये फिर भगवान को ही आना पड़ता है, इसलिये सज्जनों! भगवान् को ढूंढो मत, भगवान् के नाम और स्मरण में डूब जाओं, भगवान् स्वयं आप तक पहुँच जायेंगे।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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