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फिर चौदह वर्ष बाद

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फिर चौदह वर्ष बाद


गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज, नमत जिनहिं सुर मुनि संकर अज।( श्रीरामचरितमानस ), मित्र ! क्षमा करें मैं अब अयोध्या के लिए प्रस्थान करना चाहता हूँ । श्रीराम ने जब विभीषण से ये कहा, तब विभीषण का हृदय रो उठा । नाथ ! लंका वासियों की इच्छा है कि आप एक बार लंका को देख लें । इसी बहाने से लंका वासियों को आपके दर्शन हो जायेंगे… नाथ ! ये हम सबकी इच्छा है… मन्दोदरी ने भी सिर झुकाकर प्रार्थना की ।
देवि मन्दोदरी ! मैं अवश्य आता… लंका को देखने की मेरी भी इच्छा थी… लंकेश का तप दृष्टिगोचर होता है… इस लंका में । मुझे बताया था पवनसुत ने… कि विश्व में इतना सुंदर राज्य कोई नहीं है… बड़े बड़े राजमार्ग… उन मार्गों में मणि माणिक्य लगे हुये हैं… और मुझे पवनसुत ने ही बताया था… कि चौराहे में देवी सरस्वती का विग्रह अत्यंत मूल्यवान मणियों से तैयार किया गया… वो लगा हुआ है… ।
मैं क्षमाप्रार्थी हूँ… देवि मन्दोदरी !… आपको वैधव्य जीवन देना ये राम की इच्छा नहीं थी… पर लंकेश का अहंकार ही उन्हें ले डूबा । इतना कहकर श्री राम ने विभीषण के कन्धे में हाथ रखते हुए कहा… मित्र ! अब आप हमें आज्ञा दें । पर ! नाथ ! इतनी जल्दी ! क्यों ? …..विभीषण व्याकुल हो गए । भरत ! मेरा भाई भरत ! मित्र ! अग्नि प्रज्वलित करके बैठा है वो… बावरा है… स्पष्ट कह दिया था मुझ से भरत ने, जब चित्रकूट से जाने लगा था… भैया ! चौदह वर्ष के बाद एक दिन भी ये भरत आपकी प्रतीक्षा नहीं करेगा… ये कहते हुए राजीवनयन चुप हो गए… आगे क्या कहा भरत ने ?…..समझ तो गए थे विभीषण, फिर भी पूछ लिया । आत्मदाह कर लूंगा… अग्नि में अपने शरीर को… रो गए श्री राम ।
मित्र ! मेरा इतना काम कर दो… मुझे शीघ्र अयोध्या पहुंचाने की व्यवस्था कर दो… मित्र को आदेश कहाँ दिया जाता है… कहा जाता है… श्री राम ने भी कहा… । शीघ्र ही पुष्पक विमान आ गया… श्री सीता और श्री राम पुष्पक के मध्य में जो सिंहासन था उसमें विराजे… और चल पड़े अयोध्या की ओर । प्रयाग में रुका विमान… रुका क्या कहें… श्री राम ने आदेश दिया पुष्पक को… मुझे त्रिवेणी में आज की रात्रि वास करना है ..। पुष्पक विमान वहीं रूक गया था । भरद्वाज ऋषि की कुटिया में पधारे प्रभु… ऋषि ने प्रणाम करते हुए अपने आपको अत्यंत धन्य समझा । पर एकान्त में… पवन सुत को बुलाया श्री राम ने… और बड़े प्रेम से कहा… तुम तो मिल चुके हो ना मेरे प्यारे भरत से ?…..सिर झुकाकर केसरीनन्दन ने ” हाँ ” में जबाब दिया । तुम्हें जाना है अभी अयोध्या… श्री राम के इन वाक्यों में आदेश नहीं था… पता नहीं क्यों आज प्रार्थना की शैली थी ।
पवनसुत ने प्रभु के मुखारविन्द की ओर देखा… तो “भरत” नाम लेते हुए नेत्र बरस रहे थे श्री राम के । हनुमान ! तुम जाओ… और भरत को जाकर बताना कि मैं आरहा हूँ… राघवेंद्र ने कहा । जी ! सिर झुकाकर हनुमान ने कहा । फिर कुछ सोचकर श्री राम बोले… पर तुम रूप बदल कर जाना… हाँ… तुम ब्राह्मण के भेष में जाना… । हाँ में सिर हिलाया हनुमान ने… सिर झुकाकर ही । नाथ ! मैं अब जाऊँ ? हनुमान ने फिर पूछा । हाँ… जाओ… पर रुको ! हनुमान !… फिर रोका श्री राम ने । सुनो… भरत को सीधे मत बताना… कि मैं आरहा हूँ ! कहीं मेरे आने की ख़ुशी में… उसकी हृदयगति न रुक जाए… ये कहते हुए काँप रहे थे प्रभु ।
हनुमान ने प्रणाम किया… और चल दिए अयोध्या की ओर । प्रातः से ही आज प्रतीक्षा में बैठे हैं भरत… नन्दीग्राम में । शत्रुघ्न ! क्या बात है… अभी तक कोई सूचना नहीं है तुम्हारे पास ?…..प्रभु कहाँ तक आये हैं ? प्रभु कहाँ हैं ? ….शत्रुघ्न ! राज्य के गुप्तचरों को लगा दो ना ! ताकि पता तो चले… कि मेरे आर्य श्री राम कहाँ तक पहुँचें हैं… चौदह वर्ष तो कल ही पूरे हो रहे हैं… और कल के सूर्यास्त तक मेरे प्रभु नहीं आये… तो ये भरत अपने प्राण त्याग देगा ।
कुमार भरत ! मैंने गुप्तचरों को कल से लगा दिया है… पर वह भी सूचना देने में अभी तक असफल ही रहे हैं । महामन्त्री सुमन्त्र ने आकर कहा… और ये भी कहा कि मैं स्वयं अब अयोध्या की सीमा तक जा रहा हूँ… और गुप्त तन्त्र को और जाग्रत करके पूछता हूँ कि… पता क्यों नहीं लगाया अभी तक कि मेरे प्रभु कहाँ तक आये… इतना कहते हुए मन्त्री सुमन्त्र का रथ चला गया था ।
शत्रुघ्न ने भी कहा… भैया ! मैं भी थोड़ा सेनाध्यक्ष से मन्त्रणा करता हूँ… कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लंका से निकले ही न हों अभी तक । वैसे तो कल ही ये शुभ समाचार हमें प्राप्त हो गया था कि… लंकापति को मार गिराया है हमारे प्रभु ने । भरत कुछ सोच रहे हैं… शत्रुघ्न भी रथ लेकर चले गए… ।
वापिस अपनी कुटिया में आये भरत । आहट सी हुयी… दौड़े भरत बाहर… पर नही, कोई पक्षी था… फिर भीतर आगये… किसी के पद चाप की सी आवाज आई… भरत को लगा कोई सूचना देने वाला आया है… दौड़े बाहर… पर नही… बन्दरों का झुण्ड था… फिर भीतर आकर बैठ गए… भरत । आहट फिर आई… उठने के लिए तैयार थे… पर फिर बैठ गए । नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगे थे ।… भरत ! तेरे इतने भाग्य कहाँ जो श्री राम प्रभु के आने की शुभ सूचना तू सुन पाये… क्यों आयेंगे प्रभु ! इस अयोध्या में ? … वन वन में भटकाया है प्रभु को इस अयोध्या की नीति ने… क्यों आएं ? तेरे जैसों के पास आयेंगे… रो रहे हैं भरत । तभी प्रवेश किया पवन सुत ने… भरत की कुटिया में । कौन ? अपने आँसुओं को पोंछ कर उठे भरत । मैं वेदज्ञ और प्रामाणिक ज्योतिषी ब्राह्मण… इधर से जा रहा था तो इस कुटिया को देखा… और जब कुटिया के पास में आया तो रोने की आवाज सुन रहा था… क्यों रो रहे हो कुमार ? …..आँखें मटकाते हुए बोले… पवन सुत ।
कुछ नहीं… विप्र देव ! आप को क्या आवश्यकता है… आज्ञा करें ?….शान्त गम्भीरता के साथ बोले भरत । ना ! बोलना तो पड़ेगा… क्यों रो रहे हैं आप ? ….मुझ से कुछ मत छुपाओ… कुमार बताओ… क्या कष्ट है ?….मेरा हाथ देखिये… भरत ने अपना हाथ सामने किया… और ये बताइये कि… मेरा दुःख समाप्त होगा कि नहीं ? …..मेरे प्रेमास्पद आयेंगे ?… मेरे पूज्यचरण आयेंगे ?….मुझे उन्होंने क्षमा कर दिया ?….आवेश में आकर भरत बोले जा रहे हैं ।
आयेंगे ! आयेंगे ! अरे ! आही गए हैं… गंगा के किनारे में हैं ! यहीं पास में… प्रयाग में ! हनुमान जी ने बता दिया । क्या ! प्रभु आगये हैं ? ….क्या आप सच कह रहे हैं ?….मेरे नाथ ! आगये हैं ? ….भरत को उन्माद छा गया ।पर आप कौन हैं ? ….भगवन् ! आप क्या सच कह रहे हैं ?….कृपा करिये इस दास पर… सच सच बोलियेगा… क्या आपने जो अभी कहा… वो सब सच है ।
हनुमान मुस्कुराये… ध्यान से देखा भरत ने हनुमान को… आप ? कुछ सोचने लगे भरत… आपको कहीं देखा है ?….कहाँ मिले हैं आप ? और कौन हैं आप ? ……हनुमान जी ब्राह्मण के भेष में बस मुस्कुरा रहे हैं । भरत ने मुस्कुराहट से पहचान लिया… (संजीवनी बूटी ले जाते समय अयोध्या में भेंट हुयी थी हनुमान और भरत की ) और दौड़े भरत… हनुमान ! मेरे हनुमान… ओह ! हनुमान ने चरण पकड़ लिए… भरत ने हनुमान को उठाया और गले से लगा लिया । अब तो दोनों भक्तों के नेत्रों से गंगा और यमुना की धार ही बह चली थी । तभी वशिष्ठ जी ने भरत की कुटिया में प्रवेश किया… गुरुदेव ! गुरुदेव ! ये हैं मेरे प्रभु के अनन्य सेवक हनुमान जी !
हनुमान जी ने गुरु वशिष्ठ जी को प्रणाम किया । गुरु महाराज ! आज ये भरत बहुत खुश है… आज ये भरत बहुत आनन्दित है… मैं आपको बता नहीं सकता गुरुदेव ! मुस्कुराहट के साथ… अश्रु बह रहे हैं… भरत के । क्यों ? क्या हुआ ? भरत !
मेरे प्रभु ने इस अधम भरत को क्षमा कर दिया… ओह ! गुरुदेव ! वो परम दयालु हैं… पता है ये हनुमान हमें यही बताने आये हैं कि… प्रभु आरहे हैं… और इनको प्रभु श्री राम ने भेजा है… और मेरे पास ही भेजा है… ओह ! मेरे भाग्य आज खुल गए… मेरा सौभाग्य आज जाग्रत हो गया… मैं धन्य हो गया हूँ… । तभी प्रवेश किया शत्रुघ्न और मन्त्री सुमन्त्र ने… गुप्तचरों के द्वारा सूचना मिली है कि… कोई एक विमान लंका से उड़कर प्रयाग में उतरा है… पर आगे की सूचना गुप्तचर पता नहीं लगा पाये… ये बात शत्रुघ्न ने कही । भरत ने आनन्दित होते हुए शत्रुघ्न का हाथ पकड़ा… और नाचने लगे… शत्रुघ्न ! उस विमान में मेरे प्रभु हैं… मेरे नाथ आरहे हैं कल ।
ये हनुमान हैं यही सूचना देने के लिए आये थे । हनुमान जी सबको प्रणाम कर रहे हैं… और हनुमान का सब अत्यंत आदर कर रहे हैं । सुमन्त्र जी रथ लेकर चल पड़े… अयोध्या की ओर… तैयारी भी तो करनी है… कल तो आही जायेंगे प्रभु ! ओह । सामने से नेवला दिखाई देता है मन्त्री सुमन्त्र को……कन्याएं कलशों में पानी भर कर अपने अपने घर की ओर जा रही हैं… गौ अपने बछड़े को दूध पिला रही है… ब्राह्मण बालक काँख में वेद के ग्रन्थ को दबाये गुरु गृह में जा रहे हैं । सुमन्त्र जी आनन्दित हो गए… ये सब देखकर ।
रात्रि का प्रहर भी बीतने जा रहा है… पर अभी तक हनुमान नहीं आया…सीते ! श्री राम ने श्री सीता से कहा । तभी “जय सिया राम” की घोषणा के साथ… हनुमान आये… । गले से लगाया हनुमान को श्री राम ने… कैसा है मेरा भरत ?……तुमने बता दिया ना… कि मैं आरहा हूँ ?…..हाँ… नाथ ! बता दिया । प्रसन्न हुआ होगा ना मेरा भरत ?…..
नाथ ! प्रसन्न ?… वो तो रात भर अब सो नहीं पायेंगे… नाच रहे हैं… वो… प्रभु ! मैं भी उनके नाच में सम्मिलित हो गया था… भरत भैया और हम खूब नाच रहे थे… आनन्द के अश्रुओं से धरती भींग रही थी… मैं भी देह भान भूल गया था… मैं अपने आपको ही भूल गया था प्रभु… पर फिर मुझे याद आया… आप मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे… इसलिए आगया मैं यहाँ ।
श्री राम ने गले लगाते हुए हनुमान को कहा… नींद तो आज की रात मुझे भी नहीं आएगी… हनुमान ! ये कहते हुए भरत की याद में खो गए थे… मेरे श्री राम ।
जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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