धर्म और अधर्म क्या है?
जिस रास्ते पर चलकर मनुष्य स्वंय को आत्मा के रूप में देखता है। भगवान के अंश के रूप में स्वंय को जानता है। उस मार्ग को धर्म कहते हैं। जब मनुष्य स्वंय को भगवान के अंश के रूप में जान लेता है तब उसे यह अनुभूति होती है कि यह सृष्टी श्री भगवान द्वारा रचित है। भगवान के अंश सभी जीवात्माओं से उसका भाईचारा हो जाता है। जो मनुष्य यह जान लेता है वो मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य या प्राणियों के प्रति निर्दयी या कठोर नही हो सकता।
वह यह जानता है कि जीभ कटने से पीड़ा केवल जीभ को ही नही होती, उसकी अनुभूति समस्त शरीर को होती है। वैसे ही एक मनुष्य को पीड़ा होती है, तो सम्रग सृष्टी उस पीड़ा का अनुभव करतीे हैं। जब तक संसार में एक मनुष्य भी पीड़ित है तब तक वास्तव में किसी का भी सुख सम्पूर्ण नहीं है। जिस ज्ञान से मनुष्य का मन करूणा से भर जाये उसे धर्म कहते हैं।
जब किसी पर तमो गुण छाया होता है तो वो दूसरे के प्रति कठोर, निर्दयी और स्वार्थी हो जाता है अपने माने हुए सुख के लिए दूसरों को दुख देता है, वो यह नही जानता कि वह दूसरे मनुष्य को दुख देकर स्वंय परमात्मा को दुख दे रहा है।_ उस मनुष्य की भगवान की ओर गति नही हो पाती। अर्थात अधर्म भगवान से दूर ले जाने वाले मार्ग का नाम है।
जय श्रीराम