दही-चीनी
आज एक मूवी मे देखा कि हीरो किसी अच्छे और जरूरी काम से जा रहा था तो जाने से पहले उसकी बीवी ने उसे दही-चीनी खिला कर भेजा। ये देख कर ऐसा लगा जैसे पुराने दिनों को किसी खिड़की से झाँक कर देख लिया। बचपन में कोई छोटा सा क्लास टेस्ट भी होता था तो माँ एक दिन पहले ही दही का इंतेज़ाम कर लेती थी और फिर सुबह सुबह दही शक्कर खिला कर ही भेजती थी स्कूल। उस समय लगता था की अगर दही चीनी नही खा कर गए तो पक्का टेस्ट में फेल ही हो जायेंगे और ऐसा हुआ भी कि अगर किसी दिन दही चीनी नही खा कर गए, तो एगजाम अच्छा नही हुआ और घर आकर माँ को उलहाना दिया कि आपने दही खिला कर नही भेजा, इसलिए ऐसा।
आज जब इन सबके बारे में सोचा तो समझ आया कि *कमाल दही-चीनी का नही, बल्कि एक माँ की प्रार्थना और उसके विश्वास का होता था, जो उसे अपने बच्चे पर था। दही खिलाते वक़्त माँ जो हिम्मत देती थी कि देख लेना अब टेस्ट अच्छा ही होगा, उससे ही होंसला मिलता था और हर मुश्किल आसान हो जाती थी।
अब कितनी भी इंपोर्टेड मीटिंग हो या इंक्रीमेंट का समय, घर से यूँ ही निकल जाते हैं क्यूँकि माँ नही होती साथ में दही चीनी खिलाने को और अपने शब्दों से हिम्मत देने को। कुछ चंद रुपये कमाने की खातिर कितना कुछ पीछे छूटता जा रहा हैं। घर से इतनी दूर नौकरी कर रहे हैं और आत्मनिर्भर तो कहला रहे हैं लेकिन अपने ही साथ नही है। जिंदगी मे आगे तो बढ़ रहे है लेकिन एक मशीन बन कर, एक ही रूटीन में बंध कर। अब कुछ भी अच्छा होने पर अपने दोस्तों को किसी महँगे रेस्टोरेंट में पार्टी देने पर भी वो खुशी नही महसूस होती जो खुशी तब महसूस होती थी जब माँ किसी शुभ कार्य पर आटे के बने गुलगुले पड़ोसियों मे बाँटती थी।
शायद ये हमारे पुराने रिवाज और रस्मे ही है जो इंसान को जीवंत महसूस कराते हैं और इंसान इन छोटी-छोटी बातों में ही खुशियाँ तलाश लेता है। सफलता तभी अच्छी लगती है, जब आपके अपने साथ हों और जब आप किसी खास काम के लिए घर से निकले, तो आपको कोई दही-चीनी खिलाने वाला मौजूद हो!
जय श्री राम
