lalittripathi@rediffmail.com
Stories

भीतर की माँ

#भीतर की माँ #परकटी #जय श्री राम

424Views

विधवा थी पर श्रृंगार ऐसा कर के रखती थी कि पूछो मत। बिंदी के सिवाय सब कुछ लगाती थी। पूरी कॉलोनी में उनके चर्चे थे। उनका एक बेटा भी था जो अभी नौंवी कक्षा में था । पति रेलवे में थे उनके गुजर जाने के बाद रेलवे ने उन्हें एक छोटी से नौकरी दे दी थी । उनके जलवे अलग ही थे ।

बॉय कटिंग रखती थी । सभी कालोनी की आंटियां उन्हें ‘परकटी’ कहती थी । ‘गोपाल’ भी उस समय नया नया जवान हुआ था । अभी 16 साल का ही था । लेकिन घर बसाने के सपने देखने शुरू कर दिए थे । गोपाल का आधा दिन आईने के सामने गुजरता था और बाकि आधा परकटी आंटी की गली के चक्कर काटने में।

गोपाल का नव व्यस्क मस्तिष्क इस मामले में काम नहीं करता था कि समाज क्या कहेगा ? यदि उसके दिल की बात किसी को मालूम हो गई तो ? उसे किसी की परवाह नहीं थी । परकटी आंटी को दिन में एक बार देखना उसका जूनून था ।

उस दिन बारिश अच्छी हुई थी । गोपाल स्कूल से लौट रहा था । साइकिल पर ख्वाबो में गुम उसे पता ही नहीं लगा कि अगले मोड़ पर कीचड़ की वजह से कितनी फिसलन थी। अगले ही क्षण जैसे ही वह अगले मोड़ पर मुड़ा साइकिल फिसल गई और गोपाल नीचे।

उसी वक्त सामने से आ रहे स्कूटर ने भी टक्कर मार दी । गोपाल का सर मानो खुल गया हो । खून का फव्वारा फूटा । गोपाल दर्द से ज्यादा इस घटना के झटके से स्तब्ध था । वह गुम सा हो गया । भीड़ में से कोई उसकी सहायता को आगे नहीं आ रहा था । खून लगातार बह रहा था । तभी एक जानी पहचानी आवाज गोपाल नाम पुकारती है । गोपाल की धुंधली हुई दृष्टि देखती है कि परकटी आंटी भीड़ को चीर पागलों की तरह दौड़ती हुई आ रही थी।

परकटी आंटी ने गोपाल का सिर गोद में लेते ही उसका माथा जहाँ से खून बह रहा था उसे अपनी हथेली से दबा लिया । आंटी की रंगीन ड्रेस खून से लथपथ हो गई थी । आंटी चिल्ला रही थी “अरे कोई तो सहायता करो, यह मेरा बेटा है, कोई हॉस्पिटल ले चलो हमें।”

गोपाल को अभी तक भी याद है । एक तिपहिया वाहन रुकता है । लोग उसमे उन दोनों को बैठाते हैं । आंटी ने अब भी उसका माथा पकड़ा हुआ था । उसे सीने से लगाया हुआ था । गोपाल को टांके लगा कर घर भेज दिया जाता है । परकटी आंटी ही उसे रिक्शा में घर लेकर जाती हैं ।

गोपाल अब ठीक है लेकिन एक पहेली उसे समझ नहीं आई कि उसकी वासना कहाँ लुप्त हो गई । जब परकटी आंटी ने उसे सीने से लगाया तो उसे ऐसा क्यों लगा कि उसकी माँ ने उसे गोद में ले लिया हो । वात्सल्य की भावना कहाँ से आई । उसका दृष्टिकोण कैसे एकक्षण में बदल गया । क्यों वह अब मातृत्व के शुद्ध भाव से परकटी आंटी को देखता था ।

आज गोपाल एक रिटायर्ड अफसर है । समय बिताने के लिए कम्युनिटी पार्क में जाता है । वहां बैठा वो आज सुन्दर औरतों को पार्क में व्यायाम करते देख कर मुस्कुराता है क्योंकि उसने एक बड़ी पहेली बचपन में हल कर ली थी ।

वो आज जानता है, मानता है, और कई लेख भी लिख चुका है कि महिलाओं का मूल भाव मातृत्व का है । वो चाहें कितनी भी अप्सरा सी दिखें दिल से हर महिला एक ‘माँ’ है । वह ‘माँ’ सिर्फ अपने बच्चे के लिए ही नहीं है । वो हर एक लाचार में अपनी औलाद को देखती है । दुनिया के हर छोटे मोटे दुःख को एक महिला दस गुणा महसूस करती है क्योंकि वह स्वतः ही कल्पना कर बैठती है कि अगर यह मेरे बेटे या बेटी के साथ हो जाता तो ? इस कल्पना मात्र से ही उसकी रूह सिहर उठती है । वो रो पड़ती है । और दुनिया को लगता है कि महिला कमजोर है । गोपाल मुस्कुराता है, मन ही मन कहता है कि “हे, विश्व के भ्रमित मर्दो ! औरत दिल से कमजोर नहीं होती, वो तो बस ‘माँ’ होती है..!!

जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

Leave a Reply