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घर की इज्जत

#घर की इज्जत #सास-बहू #चाय-बिस्किट #दिमाग की घंटी #मुस्कुराते #जय श्रीराम

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चालीस पार मोहन ने आखिर अपने आँफिस की सहकर्मी सुधा से शादी कर ही ली….सुधा जहां एक अनाथ लडकी थी अपने चाचा चाची के पास पली बडी वही दूसरी ओर मोहन की केवल माताजी है पिताजी का स्वर्गवास उसके छोटी उम्र मे ही हो गया था ….

सुधा ने आते ही घर का सारा काम बहुत अच्छे से संभाल लिया ….वह अपनी बीमार सासूमां का अच्छे से ख्याल रखती….. लेकिन शादी के बीते एक साल बाद उसने एक आदत बना ली थी वो अब अपनी सासूंमां के पास बैठकर कुछ नहीं खाती थी पहले तो दोनों सास-बहू साथ में ही खाना खाती थी….

सुधा की सास सुषमा जी पहले रसोई के काम में हाथ भी बंटवाती थी इसलिए उनको सब पता होता था कि रसोई में किस डब्बे में क्या रखा है लेकिन अब बीमारी के कारण वो रसोई में भी नही जा पाती थी….

मां जी…. ये लीजीए चाय-बिस्किट….

शाम को हाल में अपनी सास सुषमा जी को चाय-बिस्किट पकड़ाकर सुधा खुद थोड़ा दूर अपनी चाय लेकर पीने बैठ गई…. वो एक लाल रंग के डब्बे में से निकालकर खुद भी कुछ खा रही थी सुधा को कुछ खाता देख उसकी सास सोंच रही थी….

पता नही ….

ये सुधा बहु मुझे बिस्किट देकर खुद क्या खा रही है….मै तो उठ कर देख नही सकती….ओह….शायद इसी बात का फायदा उठाती है….सुषमाजी के सास के दिमाग की घंटी टन- टन बजने लगी….

“जरूर कुछ अच्छा हीं खा रही होगी तभी तो मुझसे दूर बैठती है….मुई…..बुढ़ापे में ये आंखे भी तो कमजोर हो गई है साफ साफ कुछ दिखता भी नही…रात को भी चैन नहीं मिल रहा था

कभी तो सोचती …. छोड़ो ना कुछ भी हो….मुझे तो समय पर सब कुछ मिल ही जाता है…लेकिन दूसरे ही पल मन में आता अरे….ऐसे कैसे छोड़ दूं आखिर पता तो चले डिब्बे में क्या है….

आखिर उनसे रहा नहीं गया तो टसकते- मसकते पहुंच हीं गई रसोई में….

मन ही मन बुदबुदाए जा रही थी… “कौन सा डब्बा था हां …

लाल रंग का था…..मिल गया….

लेकिन थोड़ा ऊपर है हाथ हीं नहीं आ रहा कांपते हाथों से उतारने की कोशिश कर रहीं थीं कि डिब्बा धड़ाम से नीचे गिर गया….ध…डा….म….हे भगवान……

ये क्या….

ये टुकड़े किस चीज के है….इतनी देर में सुधा और मोहन आवाज सुनकर भागते हुए आए…..क्या हुआ मांजी…. कुछ चाहिए क्या…सुधा बोली…

हां…..बहु….वो ….

दवाई से मुंह कड़वा हो गया था इसलिए शक्कर का डिब्बा ढूंढ रहा थी… सकपकाते हुए सुषमा जी ने कहा…..मांजी….मुझे बोल दिया होता……एक आवाज दी होती….खैर कल से मैं आपके कमरे में मिश्री रख दिया करूंगी

बल्ब की रौशनी में ध्यान से उन बिखरे हुए टुकड़ों को देखा तो पाया कि मीठे – नमकीन बिस्किट के बचे हुए टुकड़े है… सुधा फटा-फट उन बिखरे टुकड़ों को साफ करने में जुट गई…

बिखरे हुए वो बिस्किट के टुकड़े मानो कांच की तरह सुषमा जी के मन को भेद रहे थे….कितना गलत सोंच रही थी मै…. बहु मुझे साबुत बिस्किट देकर खुद टूटे और बचे हुए टुकड़े खाती है…

छी….

अपनी ओछी सोंच पर सुषमा जी को शर्म आ रही थी….दूसरे दिन शाम को जब सुधा ने सुषमा जी को चाय- बिस्किट दिए तो रो सुषमा जी ने कहा….

“बहु मेरे दांतो से बिस्किट जल्दी से टूटते नहीं, तो तुम मुझे वो टुकड़े दे दिया करो”

अरे नही मांजी….. वो तो जब भी कोई नया पैकेट खोलती हूं कुछ टुकड़े निकल ही जाते हैं बस उन्हें अलग डिब्बे में रख देती हूं ….

आपके पास तो कोई ना कोई आता रहता है….

कोई देखेगा तो अच्छा नहीं लगता…..

हमारे घर परिवार के सम्मान के बारे मे कोई कुछ गलत सोचे ये अच्छा नही हैं…

मैं तो अंदर की तरफ बैठकर खा लेती हूं कोई आने वाला होता है तो डिब्बा बंद कर देती हूं…सुधा ने मुस्कुराते हुए कहा….

सुधा की बात सुनकर चाय पीते-पीते सुषमा जी की आंखों के कोर भीग गए….ऐसी बहु पाकर वो खुद को आज दुनिया की सबसे खुशकिस्मत सास समझ रही थी….

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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