एक बार एक युवा बहन बस में यात्रा कर रहीं थीं! तभी एक सबस स्टैंड से एक तुनक- मिजाज महिला चढ़ी! उसके दोनों हाथ समान से लदे थे! वह बड़ी अशिष्टता से उस बहन के साथ की सीट पर आकर बैठी! कुछ इस तरह कि उसने अपने सामान का बहुत सा बोझ उस बहन के हाथ और पांव पर डाल दिया! पर वह बहन इस व्यवहार पर कुछ नहीं बोली! कोई प्रतिक्रिया नहीं की! किन्तु पीछे की सीट पर बैठे एक व्यक्ति को उस महिला के असभ्य व्यवहार पर बहुत गुस्सा आया! उसने बहन को उकसाया- ‘ आप कुछ कहती क्यों नहीं इनको? यह भी कोई बैठने का तरीक़ा है? अपना बोझ सहयात्री पर धर दो!
शालीन युवती बहन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया- ‘ भाई साहब! मै अभी अगले स्टैंड पर उतर जाऊंगी! इस छोटे से सफ़र में मै इनसे क्यों कहा- सुनी करूं?
अभी चंद पलो में मै अपने रास्ते, ये अपने रास्ते चली जाएंगी! फ़िर छोटी- सी दूरी और छोटी- सी बात के लिए मै इनसे क्यों लड़ाई- झगड़ा करूं?
घटना बड़ी साधारण- सी हैं! आपके और हमारे साथ आए दिन घटती रहती हैं! पर गहराई से आकलन करें, तो यह हमारे ग्रंथों के महान सूत्र से कम नहीं!
जीवन के सफ़र में तरह- तरह के आकार- प्रकार, विचार और विकार वाले सहयात्रीयों से हमारी भेंट होती हैं! कभी वे अपना कन्धा हमारे कंधे से टकरा कर बैठते हैं यानी हमसे मतभेद रखते हैं! कभी अपना बोझ चाहे- अनचाहे हम पर लाद देते हैं! यानी अपनी मुश्किलों और मुसीबतों के घेरो में हमें खींच लेते हैं! ऐसे में हम गुस्सा हो जाते हैं, और प्रतिक्रियाएँ करने लगते हैं! परंतु उस बहन की भांति हमें भी यह शास्रों में कहे गये सूत्र को स्मरण रखना चाहिए-*
मनुष्य जीवन का सफ़र दुर्लभ भी है और क्षणभंगुर भी है! न जाने कौन सी सवारी कब नीचे उतर जाएं- कुछ पता नहीं! फ़िर इस क्षणिक- सी ज़िन्दगी में अपने सहयात्रियों से वाद- विवाद में क्या उलझना! क्या किसी का दिल दुखाना, क्यों किसी को अपमानित करना? क्योंकि अंततः वह कर्म- संस्कारों का, मुश्किलों- मुसीबतों का बोझ हैं तो उस सहयात्री का ही न! एक दिन हमें अपने और उसे अपने इस बोझे के साथ अपने- अपने रास्ते चले जाना होगा! कोई किसी पर तिल्ली भर बोझ नहीं छोड़ पाएंगा!
शिक्षा:-इसलिए हमे चाहिए कि अपने इस दुर्लभ सफ़र का धैर्य के साथ आनंद ले
जय श्रीराम
जय श्रीराम