
एक बार स्वामी विवेकानंद जी किसी स्थान पर प्रवचन दे रहे थे।
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श्रोताओ के बीच एक मंजा हुआ चित्रकार भी बैठा था। उसे व्याख्यान देते स्वामी जी अत्यंत ओजस्वी लगे।
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इतने कि वह अपनी डायरी के एक पृष्ठ पर उनका रेखाचित्र बनाने लगा।
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प्रवचन समाप्त होते ही उसने वह चित्र स्वामी विवेकानंद जी को दिखाया।
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चित्र देखते ही, स्वामी जी हतप्रभ रह गए। पूछ बैठे…
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‘यह मंच पर ठीक मेरे सिर के पीछे तुमने जो चेहरा बनाया है , जानते हो यह किसका है ?
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चित्रकार बोल, नहीं तो …. पर पूरे व्याख्यान के दौरान मुझे यह चेहरा ठीक आपके पीछे झिलमिलाता दिखाई देता रहा।
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यह सुनते ही विवेकानंद जी भावुक हो उठे। रुंधे कंठ से बोले…
धन्य है तुम्हारी आँखे ! तुमने आज साक्षात मेरे गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस जी के दर्शन किए !
यह चेहरा मेरे गुरुदेव का ही है, जो हमेशा दिव्य रूप में, हर प्रवचन में, मेरे अंग संग रहते है ….
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मैं नहीं बोलता, ये ही बोलते है। मेरी क्या हस्ती, जो कुछ कह-सुना पाऊं ! बाँट रहे है। वैसे भी देखो न, माइक आगे होता है और मुख पीछे।
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ठीक यही अलौकिक दृश्य इस चित्र में है। मैं आगे हूँ और वास्तविक वक्ता – मेरे गुरुदेव पीछे !
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गुरु शिष्यों में युगों युगों से यही रहस्यमयी लीला होती आ रही है।
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अपने गुरु पर पूर्ण विश्वास रखे वे सदैव हमारे साथ है।
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जय श्रीराम