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मासी का न्योता

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“अरे भाई,  इतनी तैयारी किस बात की हो रही है? कोई विशिष्ट अतिथि आने वाला है??” विदुर ने पारंसवी को देखकर हंसते हुये पूछा। “क्यों? केशव आये हैं ना। क्या वे अपनी मासी के घर नहीं आयेंगे? दही की मथानी छोड़कर पति को जलपात्र देती हुई विदुरानी बोलीं।

“अरी बावली, उनको निमंत्रण देने के लिये पितामह व आचार्य द्रोण से लेकर दुर्योधन तक व्यग्र हैं। ऐसे में इस कुटीर जैसे भवन में आने का अवकाश किसके पास होगा?”  “वो छोड़िये, आपने उन्हें भोजन का निमंत्रण दिया या नहीं?”

“नहीं पारंसवी, मुझे राजनैतिक रूप से औचित्यपूर्ण नहीं लगा क्योंकि वे राजदूत हैं और… सच कहूँ तो मैं इतने भव्य, राजनैतिक,आर्थिक व सामाजिक रूप से श्रेष्ठ व्यक्तित्वों के आमंत्रणों के बीच संकुचित भी हो गया था।”

विदुर पत्नी के संभावित कोप से सहमे स्वर में बोले थे। “तब आप केशव को जानते ही नहीं।” पारंसवी पति की मुद्रा को देखकर हंस पड़ीं।

“कुंती भाभी कहाँ हैं?” उन्होंने बात बदलने की दृष्टि से पूछा। “वे गंगातट की ओर गईं हैं, अपरान्ह में लौटने की कह गईं हैं।” इसका अर्थ है, भाभी भी जानती हैं कि कृष्ण का इधर पारिवारिक सदस्य के रूप से आना संभव नहीं होगा और वे उनसे संध्या के समय ही भेंट करने आयेंगे।” विदुर ने मन ही मन में आकलन किया परंतु प्रत्यक्ष कुछ नहीं बोले।

पर अपनी पत्नी को वे कैसे समझायें।

“अब आप विश्राम कीजिये, मुझे अभी बहुत तैयारी करनी है।” पारंसवी ने आग्रह किया।  विदुर मुग्ध नयनों से अपनी इस भोली पत्नी को देखते रहे और साथ में डरते रहे कि उसका मन कितना आहत होगा जब कृष्ण अपनी व्यस्तता व राजनैतिक शिष्टाचार के कारण नहीं आ सकेंगे। वे अपने कक्ष में विश्राम के लिये चले गये और पारंसवी पुनः व्यस्त हो गईं।

विदुर लेटे हुये थे पर मन बहुत विकल था। उन्होंने अपने मन के कोने में छुपी व्याकुलता के इस कारण को ढूंढ निकाला। कहीं ना कहीं उनकी प्रबल इच्छा अंतर्मन में छुपी थी कि कृष्ण उनके घर आयें, उनका अतिथि सत्कार ग्रहण करें। पर क्या यह केवल उतना ही था? नहीं!

विदुर अपनी मनोस्थिति पहचान रहे थे। वे अपने पुत्र के समवयस्क इस युवा यादव के व्यक्तित्त्व से अभिभूत थे। केवल अभिभूत ही नहीं बल्कि श्रद्धावनत थे। जाने कैसा तो मन हो आता था उनका उस चेहरे को देखकर। वह चेहरा कभी अबोध शिशु सा भोला तो कभी घोर कुटिल राजमर्मज्ञ हो उठता था। कभी ऋषियों का ब्रह्मतेज तो कभी प्रचंड क्षात्रतेज उसके चेहरे पर लहराने लगता था। अपनी उद्विग्नता में विदुर उठ बैठे।  “सुनो, मैं पितामह के आवास पर जा रहा हूँ।”

“ठीक है, कपाट भिड़ा देना। मैं स्नान कर रही  हूँ।”, स्नानगृह से पारंसवी की आवाज आई।  विदुर का रथ गये हुये थोड़े समय बाद ही पुनः  रथ की आवाज आई और फिर किसी ने बाहर से कपाट ठेले। 

“मासी!” घर में जैसे कोई मयूर बोल उठा था।”मासी!अरी ओ मासी!” पारंसवी के लिये संसार की सारी ध्वनियाँ अलोप हो गईं।

उसका केशव..उसका कृष्ण..उसका बालक आ गया था अपनी मासी..नहीं …मासी क्यों? माँ क्यों नहीं??

हड़बड़ाई हुई पारंसवी बाहर आ गईं। वस्त्र भी ठीक से नहीं पहने। शरीर और बाल जल से भीगे हुये।

अरे माँ, तुम कहाँ थीं? कब से पुकार रहा हूँ??

“माँ?”….

इसके मुख से यही शब्द सुनने की आकांक्षा तो दबी थी जाने कब से?? कैसे जान लेता है यह मन की बात??? बौराई सी पारंसवी खड़ी टुकुर टुकुर कृष्ण को देखे जा रहीं थीं कि कृष्ण ने आगे बढ़कर उनके चरण स्पर्श कर लिये। “अब मुझे खड़ा ही रखोगी? और खाने को भी कुछ दोगी कि नहीं। जानती हो सुबह से कितनी जोर से भूख लग रही है?” कृष्ण ने बालवत ठुनकते हुये स्वर में कहा।

“अंss ह..हाँ.. हाँ, बैठ ना इधर।”

पारंसवी ने एक चौकी पर आग्रहपूर्वक हाथ पकड़कर बैठाया और पास में रखे फलों के थाल को खींचा। उसमें कुछ केले रखे थे। पारंसवी ने केले छीलने शुरू किये। विदुर घर के पास ही चतुष्पथ पर पहुंचकर  पितामह के आवास की ओर जाने वाले सीधे राजमार्ग पर सीधे ही बढ़ गये थे लेकिन अगले मोड़ से पूर्व ही उन्हें दूर पीछे चतुष्पथ पर नागरिकों की हर्षध्वनि सुनाई पड़ी और उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। क्या यह कृष्ण का रथ ‘जैत्र’ ही था? और ध्वज पर ‘गरुड़’ का अंकन ध्वज के सीध में होने के कारण कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। पर वह रथ उनके घर की दिशा में जा रहा था, यह स्पष्ट था।  विदुर का ह्रदय तेजी से धड़क उठा। क्या उनके अंतर्मन की इच्छा उनकी दृष्टि से आंख मिचौली खेल रही है? अंततः कुछ देर असमंजस में रहने के बाद  विदुर ने रथ पुनः अपने घर की ओर मोड़ना शुरू किया।

विदुर अपने द्वार पर पहुँचे और हर्षातिरेक से उनकी आँखों में अश्रु आ गये।

‘जैत्र’ सामने खड़ा था जिसपर लहरा रहा था गरुड़ध्वज। दारुक भी नहीं था अर्थात कृष्ण अपना रथ खुद  दौड़ाते आये हैं। “पितामह की श्रद्धा अकारण नहीं है, सामान्य जनों का विश्वास झूठा नहीं है। कृष्ण  एक महापुरुष मात्र नहीं है, वह वस्तुतः ईश्वरीय अवतार है जो किसी राजनैतिक व सामाजिक बंधनों में बद्ध नहीं है।”

वे प्रकोष्ठ के खुले द्वार पर पहुंचे। 

“गोकुल में मैया के माखन  के बाद आज फिर वही स्वाद आ रहा है।” अंदर से कृष्ण की आवाज आ रही थी।

विदुर ने प्रकोष्ठ में प्रवेश किया और दृश्य देखकर एक पल को जड़ हो गए और फिर स्वतः उनके हाथ जुड़ गये व आंखों से अश्रुधारा बह निकली

उनकी भाव विह्वल पत्नी, उनकी विदुरानी, बाह्य संसार से अभान, केलों को छील छीलकर फल एक ओर रखकर छिलकों को कृष्ण को देती जा रही थी और कृष्ण बहुत स्वाद ले लेकर ललकपूर्वक उन छिलकों को ग्रहण करते जा रहे थे।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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