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आस्था और परिश्रम

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रणभूमि पर मृत्यु की बाट जोहते रावण ने श्रीराम से कहा आप तो नारायण हैं फिर मेरे वध के लिए इतना प्रपंच क्यों किया?

आपकी इच्छा मात्र से मेरी मृत्यु हो सकती थी। आपकी भंवे टेढ़ी हों तो ब्रह्माण्ड मिट सकता है। ये वन-वन भटकना रीछ-वानरों से मित्रता, इतने परिश्रम से समुद्र में सेतु बाँधना ये सब आडंबर क्यों प्रभु?”

श्रीराम ने मीठी मुस्कान के साथ कहा, “हे लंकेश, दशरथ पुत्र राम की कथा युगों-युगों तक कही-सुनी जाएगी। ये कथा समाज में जीवन का आदर्श रखेगी।

यदि मैं ईश्वरीय शक्तियों का प्रयोग करता तो न किसी से मित्रता की आवश्यकता थी न सागर पर सेतु बाँधने की। मेरे संकेत मात्र से सागर सूख जाते, मेरी इच्छा मात्र से काल आपको ग्रस लेता परंतु आने वाली पीढियाँ इसी उदाहरण पर निर्भर होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चमत्कारों की प्रतीक्षा करतीं। इसीलिए मैंने केवल आस्था और परिश्रम का उदाहरण प्रस्तुत किया।

भविष्य में जो भी मनुष्य अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पूर्ण आस्था के साथ परिश्रम करेगा वो अवश्य अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगा।”

श्रीराम के वचनों से संतुष्ट दशानन ने अंतिम सांस ली। रावण के देह से एक ज्योति पुंज निकलकर श्रीचरणों में विलीन हो गई।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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