एक बार एक सेठ सेठानी में झगड़ा हो गया। वे बच्चे नहीं थे, अधेड़ थे। पर आखिर थे तो पति पत्नी ही। और वो पति पत्नी ही क्या जिनमें झगड़ा न हो। पर इन दोनों में तो तगड़ा झगड़ा हो गया। इतना कि तलाक की नौबत आ गई। बच्चे बेचारे परेशान हो गए, आखिर हार कर बच्चों ने अपने पिता जी के गुरू जी तक सूचना भिजवाई। गुरू जी आए। पति पत्नी दोनों को बिठाया। कुछ उनकी सुनी, कुछ अपनी सुनाई और समझा बुझा कर सुलह करवा ही दी। अब मामला सुलझ गया तो दोनों सामान्य हो गए।
सेठ ने सेठानी से कहा- चल उठ अब। फटाफट गुरू जी के लिए नाश्ता लगा। सेठानी रसोई में चली गई। और सेठ गुरू जी का धन्यवाद करते हुए, कहने लगा- गुरू जी! ये बड़ी मूर्खा है। इसे बोलने की तमीज नहीं है, जो मुँह में आए बकती है। इतना कि मैं सुन नहीं पाता और मुझे गुस्सा आ जाता है। चलें छोड़ें इस बात को। अच्छा है आप आ गए। अब आप कुछ दिन यहीं ठहरें। हमें सेवा का मौका दें। और वैसे भी आजकल शहर में रामलीला चल रही है। रोज रात आपको रामलीला दिखाने ले चला करूंगा।
गुरू जी ने कहा- रामलीला?* बचपन में गाँव में रामलीला होती थी तब देखा करता था। यह तो बड़ी सुंदर बात है कि तुम्हें भी रामलीला देखना अच्छा लगता है। सेठ- अच्छा लगता है? गुरू जी मैं तो कईं साल पहले तक खुद भी रामलीला में अभिनय करता रहा हूँ। गुरू जी- अच्छा? तो तुम रामलीला में क्या बनते थे? सेठ जी ने झेंप कर कहा- अब यह तो मेरा चेहरा देख कर ही आप समझ सकते हैं कि मैं राक्षस बना करता था। गुरू जी- एक बात है। जब तुम राक्षस बनते थे, तब जो कलाकार वानर बनते थे वे आपको बुरा भला भी कहते होंगे? सेठ- आप कहने की बात कर रहे हैं? वे तो कईं बार मार भी दिया करते थे।
गुरू जी- अच्छा? तब तो तुम्हें बड़ा गुस्सा आता होगा? सेठ- नहीं नहीं गुरू जी। आप कैसी बात करते हैं? इसमें गुस्से की कौन सी बात है? वह तो रामलीला है ना।
गुरू जी- अच्छा! वहाँ तो रामलीला चलती थी, यहाँ क्या तुम्हारे बाप की लीला चल रही है?
सन्त जन कहते है कि यहाँ भी रामलीला ही चल रही है। सारा जगत राम जी की लीला ही है। यदि यह बात समझ में उतर आए, तब यहाँ चाहे जो भी हो जाए, क्रोध का यहाँ क्या काम है?
जय श्रीराम
