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भ्रातप्रेम

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एक दिन संध्या के समय सरयू के तट पर तीनों भाइयों संग टहलते हुए श्रीराम से महात्मा भरत ने कहा, “एक बात पूछूं भईया ? अनुमति मिलने पर पूछा, माता कैकई ने आपको वनवास दिलाने के लिए मंथरा के साथ मिलकर जो षड्यंत्र किया था, क्या वह राजद्रोह नहीं था ? उनके षड्यंत्र के कारण एक ओर राज्य के भावी महाराज एवं महारानी को चौदह वर्ष का वनवास झेलना पड़ा, तो दूसरी ओर पिता महाराज की दु:खद मृत्यु हुई। ऐसे षड्यंत्र के लिए सामान्य नियमों के अनुसार तो मृत्युदंड दिया जाता है, फिर आपने माता कैकई को दण्ड क्यों नहीं दिया ?

राम मुस्कुराए और बोले, “जानते हो भरत, किसी कुल में यदि कोई चरित्रवान तथा धर्मपरायण पुत्र जन्म ले ले, तो उसका जीवन उसके असँख्य पीढ़ी के पितरों के अपराधों का प्रायश्चित कर देता है। जिस माँ ने तुम जैसे महात्मा को जन्म दिया हो, उसे दण्ड कैसे दिया जा सकता है ?”

भरत संतुष्ट नहीं हुए। कहा, “यह तो मोह है भईया, और राजा का दण्डाविधान तो मोह से मुक्त होता है। एक राजा की तरह उत्तर दीजिये, कि आपने माता को दण्ड क्यों नहीं दिया ? समझिए कि आपसे यह प्रश्न आपका अनुज नहीं, अयोध्या का एक सामान्य नागरिक कर रहा है।

राम गम्भीर हो गए। कुछ क्षण के मौन के पश्चात कहने लगे, “अपने सगे-सम्बन्धियों के किसी अपराध पर कोई दण्ड न देना ही इस सृष्टि का कठोरतम दण्ड है भाई! माता कैकई ने अपनी एक भूल का बड़ा कठोर दण्ड भोगा है। वनवास के चौदह वर्षों में हम चारों भाई अपने अपने स्थान पर परिस्थितियों से लड़ते रहे हैं, परन्तु माता कैकई हर क्षण मरती रही हैं।

अपनी एक भूल के कारण उन्होंने अपना पति खोया, अपने चार बेटे खोए, अपना समस्त सुख खोया, फिर भी वे उस अपराधबोध से कभी मुक्त न हो सकीं। वनवास समाप्त हो गया, तो परिवार के शेष सदस्य प्रसन्न तथा सुखी हो गए, पर वे कभी प्रसन्न न हो सकीं। कोई राजा किसी स्त्री को इससे कठोर दण्ड क्या दे सकता है ? मैं तो सदैव यह सोच कर दुखी हो जाता हूँ, कि मेरे कारण अनायास ही मेरी माता को इतना कठोर दण्ड भोगना पड़ा।”

राम के नेत्रों में जल भर आया था, और भरत आदि सब भाई मौन हो गए। राम ने फिर कहा,”और उनकी भूल को अपराध समझना ही क्यों भरत ! यदि मेरा वनवास न हुआ होता, तो संसार भरत तथा लक्ष्मण जैसे भाईयों के अतुल्य भ्रातृप्रेम को कैसे देख पाता ! मैंने तो मात्र अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन किया था, परन्तु तुम दोनों ने तो मेरे स्नेह में चौदह वर्ष का वनवास भोगा। वनवास न होता, तो यह संसार कैसे सीख पाता, कि भाईयों का सम्बन्ध कैसा होता है !”

भरत के प्रश्न मौन हो गए थे। वे अनायास ही बड़े भाई से लिपट गए।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
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