बिहार के रहने वाले देबेन्द्र की टैक्सी में एक दिन एक काश्मीर का निवासी बैठा जिसे एयरपोर्ट से पहाड़गंज तक जाना था। देवेन्द्र ने उसको पहाड़गंज छोड़ा, अपना किराया लिया और वापिस टैक्सी स्टैंड की ओर चल पड़े। इसी बीच उनकी नज़र गाड़ी में पड़े एक बैग पर गयी। बैग को देखकर देवेंद्र समझ गए कि यह उसी सवारी का बैग है, जिसे कुछ ही समय पहले वह पहाड़गंज छोड़ कर आये हैं। बैग को खोलकर देखा तो उसमें कुछ स्वर्ण आभूषण, एक एप्पल का लैपटॉप, एक कैमरा और कुछ नगद पैसे थे। सब कुछ मिला के लगभग 7 या 8 लाख का सामान था।।
एकदम देबेन्द्र की आँखों के सामने अपनी टैक्सी के फाइनेन्सर की तस्वीर आ गयी। इतने आभूषण बेच कर तो उनकी टैक्सी का कर्ज आसानी से उतर सकता था। एक दम से प्रसन्न हो उठे। उनके मन में बैठा रावण जाग उठा। पराया माल अपना लगने लगा।परन्तु जीवन की यही तो विडम्बना है। मन में राम और रावण दोनों निवास करते हैं।
कुछ ही दूर गये थे के मन में बैठे राम जाग उठे। देबेन्द्र को लगा के वह कैसा पाप करने जा रहे थे। नैतिकता आड़े आ गयी। बड़ी दुविधा थी। एक ओर आभूषण सामने पड़े थे और दूसरी ओर अपनी अंतरात्मा खुद को ही धिक्कार रही थी।
कुछ देर द्वंद चला पर अंत में विजय राम जी की ही हुई। देवेन्द्र पास के पुलिस स्टेशन गये और बैग ड्यूटी पर मौजूद थानेदार के हाथ में थमा दिया। अब थानेदार कभी बैग में पड़े आभूषण देखे और कभी ड्राइवर का चेहरा देखे। थानेदार ने कहा कि तू अगर चाहता तो यह बैग लेकर भाग सकता था। देवेन्द्र ने जवाब दिया – “साहब ! हम “गरीब” हैं, पर “बेईमान” नहीं हैं।”
थानेदार भी निःशब्द हो गया। उसे लगा कि ड्राइवर सच में गरीब तो है किंतु ईमानदार है। ख़ैर सवारी को उसका बैग सकुशल वापिस मिल गया। देवेन्द्र की ईमानदारी के इनाम के रूप में मालिक ने उसे कुछ रुपये देने की पेशकश की तो देवेन्द्र ने साफ मना कर दिया।
अब रामकृपा प्रारम्भ हुई और थानेदार ने देवेन्द्र की ईमानदारी की गाथा एक मीडियाकर्मी के आगे सुना दी । मीडियाकर्मी भी थानेदार की तरह प्रभावित हो गया। उसने इस ईमानदारी की खबर अखबार में छापने की ठान ली ।
वह देवेन्द्र से मिला और उसका साक्षात्कार लेते हुये पूछा- “अगर बैग में पड़े सामान की कीमत (8 लाख रुपये) उसे मिल जायें तो वह क्या करेगा।”
देवेन्द्र ने कहा कि पहले तो फाइनेन्सर का कर्जा चुकाएगा और फिर अगर सम्भव हुआ तो एक टैक्सी खरीदेगा।
रिपोर्टर ने कहा कि तेरे सर पर कर्ज़ है तो तू बैग लेकर भाग क्यों नहीं गया? देवेन्द्र ने रिपोर्टर से भी यही कहा कि साहब, “हम गरीब हैं पर बेईमान नहीं हैं” थानेदार की तरह अब रिपोर्टर भी प्रभावित हुआ।
रिपोर्टर ने उसकी ईमानदारी की गाथा एफ एम चैनल के एक रेडियो जॉकी को बताई। एफ एम रेडियो के ज़रिए देवेन्द्र की कहानी दिल्लीवासियों को सुना दी गई । साथ ही साथ दिल्ली वालों को देवेन्द्र के कर्ज के विषय में भी बताया गया। इसी के साथ देवेन्द्र का एक बैंक खाता नम्बर भी दिया गया, जिसमे धनराशि डाल कर वह ईमानदार देवेन्द्र का कर्ज़ उतारने में उसकी मदद कर सकते थे।
केवल 2 घँटे बाद ही…… मात्र 120 मिनट में..दिल्ली ने देबेन्द्र के खाते में 91751 रुपये डलवा दिये और 8 लाख रुपये मिल गए मात्र 2 दिन में।
सबने अपनी हैसियत के हिसाब से पैसा दिया। दिलवालो की दिल्ली ने देवेन्द्र की ईमानदारी के उपहार में उसे ऋण मुक्त कर दिया। लाखों लोगों ने उसकी ईमानदारी को सराहा….
देवेन्द्र आज भी कहते हैं कि मन के रावण को राम पर हावी ना होने देना उनके जीवन की सबसे बड़ी जीत थी। अगर वह बैग लेकर भाग जाते तो कर्ज़ा तो उतार लेते पर खुद को कभी माफ नहीं कर पाते।
यह सच सिद्ध हो गया कि मन में बैठा रावण आज की व्यवस्था में हावी है परन्तु मन में बैठे राम आज भी दशानन का वध करने में सक्षम हैं। अच्छाई और बुराई मे आज भी धागे भर का फासला है। इस ओर गये तो राम और उस ओर गये तो रावण।
गरीब ड्राइवर देवेन्द्र ने दिल की सुनी और दिमाग के तर्क को नकार दिया, अपने हिन्दू संस्कार से सिद्ध किया कि किसी और के परिश्रम से अर्जित धन को हड़पने से धन नहीं आता-
जय श्रीराम