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पचास रूपये

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शहर में मंदिर बनने का काम जोर शोर से चल रहा था.. लाखों की तादाद में लोग मंदिर समिति को दान दे रहे थे जिससे मंदिर निर्माण में कोई रुकावट न आ सके…रिक्शा चलाने वाला राजु तीन दिन से रोज दान देने की इच्छा से जाता था और सोचता कि मैं भी कुछ दान करूँ और ईश्वर मेरी सेवा स्वीकार करें.. पर वहाँ लोगों को हजारों और लाखों की दान पर्ची कटवाते देख उसे हिचक होती और वह लौट जाता..

आज मंदिर के लिए दान देने का आखिरी दिन था.. क्योंकि मंदिर तैयार हो चुका था और कल मूर्तियों की स्थापना होनी थी.. राजु से नहीं रहा गया, उसने अपनी जेब से पचास रुपये निकाले और बोला, “भैया, यह पैसे ईश्वर की सेवा में लग जाते तो.. ” मंदिर समिति के कर्मचारी ने पचास रुपये देखकर मुंह बिचकाते हुए कहा कि पचास रुपये में क्या होगा फिर भी राजु के बार बार कहने पर उसने वह पचास रुपये अपने कुर्ते की जेब में डाल लिए ओर इतने छोटे से दान के लिए पर्ची काटने से मना कर दिया.. राजु संतोष की सांस लेता हुआ घर चला गया..

दूसरे दिन मंदिर में काफी भीड़ थी.. ज्यादा धन दान करने वालों के नाम अलग से लिखे हुए थे जिन्हें मूर्ति स्थापना के बाद सम्मानित किया जाना था..मंत्रोच्चारण के साथ मूर्तियां लाल वस्त्रों से ढकी हुई परिसर में लाई गयीं.. पर यह क्या, भगवान की मूर्ति का मुकुट इतना ढीला था कि मूर्ति का चेहरा पूरा मुकुट से ढका हुआ था.. लोग परेशान थे कि नया मुकुट बनने में तो बहुत समय लगेगा और बिना मुकुट मूर्ति की स्थापना नहीं हो सकती.. तभी कारीगर को सलाह लेने के लिए बुलाया गया..

कारीगर बोला कि मुकुट में एक छोटी सी टेक लगते ही मुकुट अपनी जगह स्थिर हो जायेगा और मूर्ति का चेहरा सही से दिखने लगेगा..और उसने टेक की कीमत पचास रुपये बतायी.. मंदिर समिति के कर्मचारी ने अपने कुर्ते की जेब से राजु द्वारा दान किये गये पचास रुपये निकाल कर कारीगर को दिये और कुछ देर में ही टेक लगते ही मुकुट स्थिर हो गया और मूर्ति स्थापना कर सभी ने ईश्वर के दर्शन किये.. ऐसा लग रहा था मानों ईश्वर ने राजु का दान स्वीकार करने के बाद ही सभी भक्तजनों को अपने मुखमंडल के दर्शन कराये..

शिक्षा:-समर्पण के भाव से किया गया छोटा सा दान दिखावटी करोड़ों के दान से कहीं श्रेष्ठ है।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
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