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अनोखा अपनापन-बाबूजी

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“अमित, अरे बाबूजी उठे नहीं क्या अभी तक ? टाइम पर दवा नहीं लेने से उनकी तबियत बिगड़ जाती है। अमित, जरा देखोगे क्या उनके कमरे में जाकर ? मैं रोटियाँ बना रही हूँ, सब्जी भी गैस पर रखी है, तुम्हारा टिफिन भी लगाना है”।

“अभी। जागते ही चाय चाहिए उनको, वो भी सुबह ठीक सात बजे। अब तो पौने आठ बज रहे हैं, आज चाय-चाय करते किचन तक आए भी नहीं। “

अदिति की बातें सुनते अमित को भी आश्चर्य हुआ। बाबूजी आज अभी तक उठे क्यों नहीं ? वो तुरंत उनके कमरे में गया। बाबूजी अभी बिस्तर पर ही थे, गहरी नींद में।

अमित ने उन्हें आवाज दी : “बाबूजी, उठिए, आठ बजने को आए। आज चाय नहीं पीनी क्या ? ” कोई जवाब न पाकर अमित ने उन्हें हिलाया और जगाने की कोशिश की लेकिन उनके एकदम ठंडे पड़े शरीर के स्पर्श से वह चौंक गया और चीखा : ” अदितिsss…अदितिsss…इधर आओ जरा। देखो, बाबूजी उठ नहीं रहे हैं।”

रोटी बेलना छोड़, सब्जी की गैस बंद कर अदिति तेजी से बाबूजी के कमरे में पहुँची।  अमित को कुछ सूझ नहीं रहा था। बोला : ” अदिति, देखो, बाबूजी उठते नहीं हैं। “

अदिति ने भी कोशिश की मगर बाबूजी न जागे। उसकी आँखों से अश्रु बह निकले फिर खुद को मानो सांत्वना देती हुई वह बोली : “जरूर रात की दवाओं के असर से गहरी नींद में हैं। ठहरो मैं डॉक्टर को फोन करती हूँ।”

अदिति ने बाबूजी के रेग्युलर डॉक्टर को कॉल किया : “हलो डॉक्टर साहब, मैं गीता बोल रही हूँ।”

डॉक्टर : “हाँ, गीता, बोलो। बाबूजी तो ठीक हैं न ?

अदिती : “डॉक्टर साहब, बाबूजी उठ नहीं रहे। प्लीज आप जल्दी घर आएँगे क्या ?”

डॉक्टर : “हाँ… हाँ… मैं आता हूँ”

10 मिनिट में डॉक्टर साहब आ गए। बाबूजी को चैक किया। फिर अमित की पीठ पर सांत्वना की थपकी देते हुए बोले : “सुबह-सुबह ही डेथ हुई है इनकी। बीपी ही इन पर भारी गुजरा। मैं डेथ सर्टिफिकेट बना देता हूँ”

डॉक्टर की बात सुन, अदिति हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगी। डॉक्टर ने उसे कहा : “गीता, जन्म-मरण हमारे हाथ में थोडे ही होता है और फिर उम्र भी तो हो गई थी इनकी। होनी को कौन टाल सकता है” फिर अमित की ओर देखते वे बोले : “मैं तो कहता हूँ, अच्छा ही हुआ जो तकलीफ से निजात पा गए। अल्जाइमर रोग बहुत तकलीफदेह होता है, खुद पेशेंट के लिए भी और उसके नाते-रिश्तेदारों के लिए भी”

“डेथ सर्टिफिकेट पर उनका नाम क्या लिखूँ ? उन्हें चैक करने आता था तो तुम लोगों की देखा-देखी मैं भी उन्हें बाबूजी ही कहता था। गीता के बाबूजी के रूप में ही जानता हूँ मैं इन्हें” —डॉक्टर ने आगे कहा

थोड़ी देर के लिए अमित और अदिति सकपकाए से एक दूसरे का मुँह देखने लगे फिर गीता ने चुप्पी तोड़ी और डॉक्टर से बोली : “डॉक्टर साहब, मेरा नाम गीता नहीं, अदिति है। पिछले दस सालों से मैं बाबूजी के लिए गीता बनी हुई थी”

डॉक्टर : “क्या मतलब ?”

अदिति : “कोई 10 साल पुरानी बात है डॉक्टर साहब, मैं साग-भाजी लेने सब्जी मार्केट गई थी। खरीदारी के बाद जब मार्केट से बाहर आई और किसी खाली रिक्शे की तलाश में इधर-उधर देख रही थी तभी, गीताss गीताss पुकारते एक बुजुर्गवार मेरे करीब पहुँचे और मेरी बाँह पकड़ मुझसे बोले, गीताss, अरे मुझे अपना घर ही नहीं मिल रहा। कब से मैं यहाँ खड़ा हूँ लेकिन किधर जाऊँ कुछ समझ ही नहीं आ रहा। अच्छा हुआ तू आ गई। चल, अब घर चलें”

“बुजुर्गवार किसी अच्छे घर के लग रहे थे, दिखने में भी और कपड़ों से भी। मेरा हाथ थामे बोलने लगे, गीताsss चल जल्दी। मुझे कब से भूख लगी है” “मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ ? बुजुर्गवार की स्नेहमयी, मीठी वाणी सुन सोचा कि, उनको घर ले जाती हूँ। कुछ खिलाकर, शांति से उनका एड्रेस पूछती हूँ और फिर उन्हें उनके घर छोड़ आती हूँ। अतः रिक्शे पर हम दोनों घर आए।”

“घर पहुँचते ही, बुजुर्गवार बोलने लगे, गीताsss जल्दी खाना दे, बहुत भूख लगी है”

“मैंने जल्दी से थाली में उन्हें उपलब्ध भोजन परोसा तो कई दिनों के उपवासे जैसे वे तेजी से खाने लगे। भरपेट भोजन के बाद मैंने उनसे पूछा, बाबूजी आप कहाँ रहते हो ? याद है क्या आपको ? चलो मैं आपको, आपके घर छोड़ आती हूँ”

बुजुर्गवार बोले : “अरे गीता,यही तो है अपना घर”

“मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। फिर वे बाहर सोफे पर ही सो गए” “शाम को अमित के घर आने पर मैंने सारा किस्सा सुनाया। फिर अमित के कहने पर हमने न्यूजपेपर में गुमशुदा वाले पृष्ठ पर और टीवी के गुमशुदा वाले कार्यक्रम के माध्यम से बुजुर्गवार का एड्रेस और नाते-रिश्तेदारों का पता करना प्रारंभ किया।

अमित ने पुलिस थाने में भी बुजुर्गवार की जानकारी दी। पुलिस ने कहा, कुछ पता चलने पर खबर करेंगे। तब तक बुजुर्गवार को अपने घर पर रखो या तुम्हें दिक्कत हो तो उन्हें सरकारी वृद्धाश्रम अथवा अस्पताल में दाखिल करवा दो”

“गीता…गीता…पुकारते वे मेरे आगे-पीछे घूमा करते। गीता आज भिंडी की सब्जी बना, आज बेसन के भजिए वाली कढ़ी बना, आज हलवे की इच्छा है, ऐंसी फरमाइशें किया करते। उनकी बातें, उनका अपनापन देख-सुन मेरा मन भर-भर आता। बड़े हक से वे मुझे हर बात कहते जो मुझे भी बहुत भाता”

“हफ्ता गुजर गया लेकिन उनका कुछ पता नहीं चला। उनसे कोई हेल्प नहीं मिलती लेकिन घर में रह रहे एक बुजुर्ग का अस्तित्व हमें खूब अच्छा लगने लगा। उनके लिए कुछ करना हमें खूब भाता” “मैंने और अमित ने निर्णय लिया कि हम उन्हें कहीं नहीं भेजेंगे, अपने घर पर अपने साथ ही रखेंगे। फिर हमने पुलिस थाने में भी अपने इस निर्णय की सूचना दे दी। बस तभी से बुजुर्गवार हमारे बाबूजी बन गए”

“दस बरस हो गए मेरा दूसरा नामकरण गीता हुए। आज बाबूजी के साथ गीता का भी अस्तित्व समाप्त हो गया” — बोलते हुए अदिति की आँखों से पुनः झर-झर आँसू बहने लगे

अदिति से सारा किस्सा सुन डॉक्टर निशब्द हो गए। थोड़ी देर बाद बोले : “इतने सालों में मुझे जरा भी महसूस नहीं हुआ कि, ये तुम्हारे पिता नहीं बल्कि कोई गैर हैं। सच कहूँ तो अल्जाइमर बड़ा गंभीर रोग है। आजकल वृद्ध लोगों में यह समस्या बढ़ती ही जा रही है”

“आज के दौर में खुद की औलादें अपने माता-पिता को साथ रखना पसंद नहीं कर रहीं। पैसे-प्रोपर्टी वसूली कर वृद्ध माता-पिता की जवाबदारी से मुँह मोड़ लेने का चलन समाज में बढ़ गया है। दिनोंदिन वृद्धाश्रमों में भीड़ बढ़ती ही जा रही है लेकिन इसी समाज में आप जैसे लोग भी हैं, यह मेरे लिए बेहद आश्चर्य का विषय है”

फिर डॉक्टर साहब खामोश हो गए। उन्होंने अमित और अदिति की पीठ पर प्यार और सांत्वना भरी थपकी दी। फिर बाबूजी का डेथ सर्टिफिकेट उन्हें सौंपा और डबडबाई आँखों से घर के मुख्यद्वार की ओर बढ़ गए…

जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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